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शौरसेनी भाषा का नाटकों में प्रयुक्त गद्यभाषाओं में प्रथम स्थान है । शूरसेनों की भाषा का नाम शौरसेनी पड़ा । शूरसेनों की राजधानी मथुरा थी और मथुरा के आस-पास बोली जाने वाली भाषा शौरसेनी कहलाती थी ।
मागधी से वररुचि के अनुसार मगध देश की भाषा समझी जाती है । 'मागधानां भाषा मागधी' ( वर० ११ १. वृत्ति) । पटने के समीप - वर्ती स्थलों को मगध कहते थे। आज भी बिहार राज्य में बोली जानेवाली भोजपुरी आदि भाषाओं का मागधी से बहुत कुछ सामीप्य है । मार्कण्डेय का कथन है कि राक्षस, भिक्षु, क्षपणक और चेटी आदि की भाषा का नाम मागधी है— 'राक्षसभिक्षुक्षपणकचेटाद्या मागधीं प्राहुः' ( मा० १२. १. वृ० ) । भरत के अनुसार अन्तःपुर में रहने वालों की भाषा मागधी है। इनके अनुसार नपुंसक, स्नातक और कचुकी अन्तःपुर में नियुक्त होते थे । दशरूपक के अनुसार पिशाच और अत्यन्त नीच लोग पैशाची और मागधी बोलते हैं - 'पिशाचात्यन्तनीचादौ पैशाचं मागधं तथा ।'
अवन्ति देश की भाषा आवन्ती कहलाती है । अवन्ति देश में चेदि, मालव, उज्जयिनी आदि देश सम्मिलित थे- 'चेदिमालवोज्जयिन्यादिरवन्तीदेशः तद्भवा भवन्ती दाण्डिकादि भाषा' (मार्क० ११।१ की वृत्ति ) | आवन्ती महाराष्ट्री और शौरसेनी के सांकर्य से सिद्ध होती है । 'भरत' के अनुसार नाटकों में यह सदा मध्यम पात्रों द्वारा प्रयुक्त होती है। मार्कण्डेय के अनुसार यह भाषा का एक भेद है ।
प्राच्या मार्कण्डेय के अनुसार विदूषक और विट आदि हँसोड़ पात्रों की भाषा है । भरत नाट्यशास्त्र के अनुसार विदूषक आदि की भाषा प्राच्या है - 'प्राच्या विदूषकादीनाम् ।' पृथ्वीधर ने मृच्छकटिक की टीका में इसी मत का समर्थन करते हुए लिखा है कि – 'प्राच्यभाषापाठको विदूषकः' अर्थात् विदूषक प्राच्य भाषा का पाठक होता है ।