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और राक्षसी की तथा कंसवध में कुब्जक और रजक की बोली मागधी भाषा में है । मागधी गद्य और पद्य दोनों की ही भाषा है । यद्यपि उच्च कुल की एवं शिक्षित नारियाँ गद्य-पद्य में क्रमशः शौरसेनी, महाराष्ट्री का ही व्यवहार करती हैं, तो भी कई नाटकों में नारी का पाठ संस्कृत भाषा में भी मिलता है । जैसे उत्तररामचरित में तापसी, आत्रेयी, वासन्ती, तमसा, मुरला, अरुन्धती, पृथिवी, भागीरथी और गङ्गा की; कर्णसुन्दरी में सखी और नायिका के पद्य की; कंसवध में दूती विलासवती, देवकी और केवल कुछ स्थलों पर कुब्जा की बोली संस्कृत भाषा में पाई जाती है । प्रतिमा में भट एक स्थान पर शौरसेनी तथा दूसरे पर संस्कृत का प्रयोग करता है । किसी-किसी नाटक में ऐसा भी देखा जाता है कि जब कोई पात्र किसी दूसरे का अनुकरण करता है, तो वह अपनी भाषा छोड़कर अनुकार्य व्यक्ति की ही भाषा बोलता है | जैसे मुद्राराक्षस में संस्कृत का बोलने वाला विराध आहितुण्डिक का अनुकरण करने पर शौरसेनी भी बोलता है । वेणीसंहार में मुनिवेषधारी राक्षस संस्कृत भाषा का भी व्यवहार करता है ।
मृच्छकटिक में स्थावरक और रोहसेन नामक चाण्डालों तथा मुद्राराक्षस में आये चाण्डालों की बोली चाण्डाली कहलाती है । इन सब के अतिरिक्त जिन पात्रों की चर्चा नहीं की गई है, उनके साथ वे ही साधारण नियम लागू हैं ।
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साहित्यदर्पण में श्रेष्ठ चेट और राजपुत्रों की भाषा अर्द्धमागधी बतलाई गई है । परन्तु किसी नाटककार ने किसी भी पात्र के लिए इस भाषा का व्यवहार नहीं किया है । चेट का पाठ मृच्छकटिक में आया है, जो मागधी में है । इसी प्रकार राजपुत्रों की भाषा भी अर्द्धमागधी में नहीं है— 'चेटानां राजपुत्राणां श्रेष्ठानाञ्चार्द्धमागधी' ( साहि० ६, १६० )।
साहित्यदर्पण में विश्वनाथ ने भाषा विभाग का वर्णन करते हुए लिखा है कि शिक्षित मध्यम तथा उच्च वर्ग के मनुष्यों की भाषा संस्कृत