________________ धम्म सुणेज्ज दस मित्त-पवित्त-लाह। सिद्धोसि बुद्ध-विणिमुत्त-सुसंकरो सि।। 4 / / सल्लेखना में जगत् के किसी भी तरह के वाद-विवाद को स्थान न दें, अपितु उस समय दिव्य तत्त्व, परमार्थ पूर्ण विचार को महत्त्व दें। धर्म सुनें, उन्हें ही अपना पवित्र लाभ का कारण समझें और सोचें कि मैं सिद्ध हूँ बुद्ध हूँ, विनिर्मुक्त हूँ और शंकर भी हूँ। अंते समाहिमरणे गुण विग्गहेहिं। मुत्तो विसुद्ध-सुद-भाव-सुणंद-जुत्तो।। ओत्तिं पडिक्कमण-कम्म-कुणंत-सम्म। णो तं च होदि पडिक्कमणं पुणो वि।।5।। अन्तिम समय में समाधिमरण के समय में साधक गुण-विग्रह से मुक्त, विशुद्ध सद्भावपूर्वक अत्यन्त आनन्द के साथ औत्तमार्थिक प्रतिक्रमण को करता हुआ फिर प्रतिक्रमण को नहीं प्राप्त होता है। सव्वेसु कप्पतरु . राजदि रुक्खएसुं। सल्लेहणा वि समएसु सुजप्पमंतो।। भव्वाण * भव्व-मण-वंछिद-संपदंदु। दाएज्ज सा विहि सु सदा पवित्त-भावं / / 6 / / - सभी वृक्षों में जैसे कल्पवृक्ष शोभित होता है, उसी तरह मंत्रजापपूर्वक सल्लेखना भी भव्यजीच के लिए मनोवांछित सम्पदा को प्रदान करती है तथा वही सल्लेखना पूर्ण पवित्र भाव को प्राप्त कराएगी। भावेण . पूद-इणमं च पडिक्कमाइं। पुण्णोदएण सुविहिं सद-लेहणं च।। कुव्वेज्ज घाद-उवघाद-किदं च कम्म। बंधं ण होज्ज पुण एस वियारएज्जा।।7।। शुभ भावों से पवित्र प्रतिक्रमण आदि की विधि से सत् लेखन एवं कृत कर्म का घात-उपघात करें, ताकि पुनः बन्ध न हो और उत्तम विचारों को धारण करें। अंते हि आउस-परं परमं च णंदं। सत्थं च सार-सुण उत्तम-दायगं च।। कम्मखयं खलु कुणेहिदि मण्ण तुम्हे। सल्लेहणा पयडि-जोग-सुजोग-जुत्ता।। 8 / / __ अन्त में आयु पूर्ण होते समय परम आनन्द के साथ निश्चय सल्लेखना करें, शास्त्रों के-सार को अन्तरंग में उतारें, क्योंकि वही श्रेष्ठ फलदायक है। यदि साधक वास्तव में ऐसे उत्तम भाव प्राप्त कर ले तो मानिए कि निश्चय ही वह कर्मक्षय करेगा। ** प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 21