________________ ___ 'तं मरणं मरियव्वं, जेण मओ सुम्मओ होई।' 'निर्भय होकर प्राप्त किया गया ऐसा पण्डितमरण जन्म का सार्थक अन्त है. और भविष्यकालीन जीवन का पवित्र पाथेय।' यह शरीर धर्मसाधन और सदाचार के लिए प्राप्त होता है। शरीर का उचित उपयोग होने के पश्चात शेष जीवन और देह का धर्म साधना के लिए उपयोग नहीं हो सकता। जब ऐसी स्थिति निर्माण होती है तब बड़ी प्रसन्नता के साथ इस देह का त्याग करना चाहिए। इसप्रकार के त्याग का एक अलग प्रकार का शास्त्र है। अपने भीतर स्थित चार कषायों--- क्रोध, मान, माया, लोभ- को कृश करें। उससे आत्मा पवित्र बनती है। साथ ही भोजन का विधिपूर्वक त्याग करें, ताकि अपने आप शरीर कृश हो, जीर्ण-शीर्ण हो; यही सल्लेखना (सत्-विधिपूर्वक, लेखना-कृश करना) है। सल्लेखना में मायादि शल्य उतना ही कष्ट देते हैं जितना कष्ट घातक शस्त्र, जहर, आसुरी शक्ति अथवा क्रोधित सर्प देता है। निर्विकल्प आत्मस्वरूप का लाभ और भविष्यकालीन भोग वासना का त्याग ही सच्ची निःसंगत्व की प्राप्ति है। इसी का दूसरा नाम सल्लेखना है। इस समय साधक की पूरी चर्या पर शुक्ल लेश्या की पवित्र उत्कृष्ट सद्भावना की उषा काल की किरणें फैलती हैं। मृत्यु के साथ चल रहे द्वन्द्व युद्ध में नियमित ध्यानाभ्यास कर चित्त पर अपना कब्जा करनेवाले जागृत वीर के समान यह साधक पराक्रम की बाजी लगाता है। अनेक शास्त्रों में इसे मृत्यु-महोत्सव भी कहा है। कवियों ने इसको ‘मुक्तिरमणी का विवाहोत्सव' भी कंहा है। इहपरलोक के किसी भी प्रकार की कामना का इस समय साधक के सामने विकल्प नहीं रहता। जीवन-मृत्यु, भौतिक सुख-दुःखों की इच्छा कब की समाप्त हो चुकी होती है। सल्लेखना आत्मघात नहीं है . सल्लेखना से प्राप्त वीरमृत्यु को कभी-कभी अज्ञानवश आत्मघात या खुदखुशी मानने की एक भ्रमपूर्ण परिपाटी चली है; परन्तु सल्लेखना का अर्थ आत्मघात नहीं, इसके विपरीत आत्मप्राप्ति है। किसी भी कषाय के कारण या भय से अगर साधक मृत्यु को प्राप्त करना चाहता है और स्वयं को भुलाकर उसे प्राप्त करता है तब उसे आत्मघात कहा जाएगा। भय के कारण कोई मृत्यु को स्वीकार करता है तो वह साधुत्व से भ्रष्ट हो गया कहना ही उचित है। सल्लेखना भय से प्राप्त मृत्यु नहीं है। जब तक शरीर को साधन मानकर जितना भी धर्मलाभ प्राप्त किया जा सकता है उतना करना चाहिए; परन्तु जब धर्मलाभ की अपेक्षा पाप बढ़ने की सम्भावनाएँ निर्माण होती हैं तब इस नश्वर कलेवर (देह) को बचाए क्यों रखें? इसीलिए ज्ञानीजन जीवन की चरम सीमा पर पहुंचकर पण्डितमरण का सहर्ष स्वागत करते हैं। समाधि, सल्लेखना, वीरमृत्यु, मृत्यु महोत्सव आदि सब एकार्थवाचक शब्द हैं। 110 00 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004