Book Title: Prakrit Vidya Samadhi Visheshank
Author(s): Kundkund Bharti Trust
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 165
________________ स्वाभाविक पूरण-गलन लक्षण को प्राप्त होती हुई निरन्तर वियोग के खतरे से जीव को सचेत करती रहती है। पं. दौलतराम जी के शब्दों में- 'जब लौं न रोग-जरा गहै तबलौं झटिति निज हित करौ।' की प्रेरणा देती रहती है। इस मनुष्य देह की सार्थकता तो इसी में है कि अनादिकाल से अनजान रहे अपने चैतन्य वैभव से यह जीव परिचित हो। देह-मिलन एक संयोग है और आयु अंत में यह संयोग वियोगरूप मृत्यु का अवश्य दाता है। इस भव के एक-एक समय का व्यतीत होना मृत्यु की नजदीकी बढ़ाना है, यह तो जीव की अकुशलता की ही सूचना है, जैसाकि पं. भूधरदास जी ने जैनशतक में लिखा है "जोई दिन कटै सोई, आयु में अवश्य घटै, बूंद-बूंद बीतै जैसैं अंजुलि क़ौ जल है। देह नित झीन होत, नैन तेज हीन होत, जोबन मलीन होत, छीन होत बल है।। आवै जरा नैरी तक, अंत अहेरी आवै, परभौ नजीक जात, नरभौ निफल है। मिलकै मिलापीजन, पूंछत कुशल मेरी, ऐसी दशा माही मित्र! काहे की कुशल है।।" जब देह का स्वरूप.ही नित्यप्रति क्षीणता, रुग्णता को प्राप्त होना है, मल प्रदान करना है तो विवेकी पुरुष को तो देह के प्रति मोह छोड़ना ही कर्तव्य है। 'यह देह छूटे तो यह विचार कर्तव्य है मैंने अनादिकाल से अब तक अनन्त जन्म पाये हैं, उनमें अनेक बार उत्कृष्ट संयोगों की प्राप्ति हुई, राजा हुआ, ऋद्धियाँ प्राप्त हुईं, कभी माता-पिता-पुत्र, कभी पुरुष, कभी स्त्री तो कभी नपुंसक शरीर हुआ। अनेक बार देवगति में देव हुआ और वहाँ के अनेक सुख से प्रतीत होने वाले भोग भोगे। कभी नरकगति में जाकर कर्मयोग में अनन्त दुःख भोगे, कभी तिर्यंच गति पाकर अनेक कष्ट सहे, और अनेक बार साधर्मीजन का संग भी मिला, जिनेन्द्रपूजन आदि भी किये, सत्पात्रों को दानादि भी दिये, और तो और भगवान् जिनेन्द्र के समवसरण में जाने का सद्भाग्य भी अनेक वार लिया किन्तु एकमात्र सम्यक्त्व की प्राप्ति से वंचित रह, समाधि को प्राप्त न कर अनादि से अब तक सदैव कुमरणों को प्राप्त करता आया है। यदि सम्यक्त्वपूर्वक मुझे स्व और पर का ज्ञान हुआ होता तो कभी भी कमरण की दशा नहीं भुगतनी पड़ती। यह देह तो विनाशी लक्षण वाली ही है, किन्तु / स्वयं तो ज्ञान-दर्शन स्वरूपी अविनाशी हूँ। मैंने इस अविनाशी स्वाधीन निजतत्व प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 01 163

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