________________ चारित्ररूपी महारत्न के ऊपर प्रमाद रूपी चोरों की दृष्टि लगी हुई है। अब रात्रि प्रायः समाप्त होने को है (जीवन कुछ क्षणों का है), ऐसा न हो कि तुम्हारी गाढ़ (मोह) निद्रा, इन चोरों को रत्न चुराने का अवसर प्रदान कर दे। आपके द्वारा दीर्घकाल में संचित किया हुआ मनुष्यपर्याय का सारभूत पदार्थ (संयम या चारित्र) उपसर्ग, परीषह, रोग आदि की तीव्र वेदना और कषाय आदि के द्वारा नष्ट किया जा सकता है, अतः इसकी सुरक्षा का पूर्ण ध्यान रखते हुए इसकी वृद्धि में प्रयत्नशील रहो। इस समाधि रूपी सम्बल के द्वारा संयम की पूर्णता कर लेनी चाहिए, किन्तु यदि पूर्णता न कर सको तो कम से कम चारित्र की जितनी विशुद्धि है उसे मत छोड़ो। तपाराधना की शुद्धि का उपदेश आत्मकल्याण के लिए चित्त-संक्लेश, दुर्ध्यान, दुर्लेश्या, आलस्य, सुखों में आसक्तता, शरीर का सुखियापना तथा आस्रव के और भी अन्य कारणों को रोककर आपको बारह प्रकार के बाह्याभ्यन्तर तपों की परमविशुद्धि करनी चाहिए, क्योंकि मायाचाररहित उज्ज्वल परिणामों से किया हुआ तप उभयलोक में विविध. प्रकार की ऋद्धि को प्रदान करने वाला है। वटवृक्ष के बीज की भाँति अल्प भी तप असंख्यकाल के अगणित कर्मों का नाश करने वाला है जैसे विवेकपूर्वक दी हुई शक्तिवान् औषधि भीषण रोगों का नाश करती है, वैसे ही शक्तिप्रमाण किया. हुआ अल्प भी सम्यक् तप, जन्म-मरण रूपी रोग को नष्ट करने वाला है; संसार की महादाह को शान्त करने के लिए शीतल गृह है; कामनापूर्ति के लिए कामधेनु है; वांछित फल प्रदान करने के लिए चिन्तामणि रत्न है, उत्तम मंगलभूत है; सच्चा शरण है और कर्म रूपी तृणों को दग्ध करने के लिए दावानल है। जैसे अपने प्रयोजन को सिद्ध करने वाला स्वामी, वेदना. से पीड़ित नौकर पर दया न करते हुए उसे अपने कार्य में प्रेरित किये रहता है, वैसे ही संसार-ग्रहण से जीर्ण-शीर्ण हुए तथा रोगादि वेदना से युक्त इस शरीर रूपी नौकर पर दयादृष्टि न करते हुए मात्र अपने प्रयोजन (समाधिसिद्धि) की सिद्धि में ही प्रयत्नशील रहो। धर्मध्यान में रत रहने का उपदेश __इस जीव को आज तक वेदनारहित, स्वाधीन अविनाशी, अन्तरहित, अप्रमाण और निराकुल लक्षण वाले आत्मिक सुख का अनुभव नहीं हुआ, इसीलिए यह जीव दीनहीनों के सदृश विषयसुखों की इच्छा से यत्र-तत्र भटक रहा है। इन क्षणिक सुखों की प्राप्ति के लिए निरन्तर क्लेश के कारण आतरौद्र ध्यानों में निमग्न रहता है। आपने अति धीरतापूर्वक संस्तर ग्रहण किया है अतः अब क्षुधादि वेदना या रोगादि की पीड़ा के वशीभूत होकर संतप्त एवं क्लेश रूप नहीं होना चाहिए, 17800 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004