Book Title: Prakrit Vidya Samadhi Visheshank
Author(s): Kundkund Bharti Trust
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 182
________________ किन्तु हाय ! एक कण की भी प्राप्ति वहाँ दुर्लभ है। कर्मों के वशीभूत होकर जब आपने सागरों पर्यन्त मेरु सदृश महान् कष्ट भोगा है तब यह अल्पकाल का और सरसों सदृश अति अल्प कष्ट क्या कोई कष्ट है? अर्थात् कुछ भी नहीं है, इसे आप शानितपूर्वक सहन करो। क्षुधा वेदना से उत्पन्न होने वाली इस दीनता और कायरता का त्याग करो तथा सन्तोषामृत रूपी भोजन से अपनी आत्मा को तृप्त करो। इसी प्रकार तिर्यंचगतिजन्य अनेक पर्यायों में अनेक प्रकार से असह्य भूख की पीड़ा सहन की है। मनुष्य पर्याय में भी बन्दीगृह आदि में तथा नीच, दरिद्र आदि खोटे कुलों में तथा दुर्भिक्ष आदि पड़ने पर भूख से आकुल-व्याकुल होते. अति उग्र दुःखों को अनन्त काल तक भोगा है, उसका स्मरण करो, और सन्तोष रूप आहार से इस तपोजनित क्षुधा वेदना की ज्वाला को दृढ़तापूर्वक शान्त करो। छिद्रयुक्त पात्र के सदृश इस शरीर को जीवन भर अनेक प्रकार के भोजन-पान से भरा है किन्तु यह कभी पूर्ण नहीं भरा गया, तत्काल खाली होता गया क्योंकि इसका स्वभाव ही ऐसा है इसलिए अब सल्लेखना की सिद्धि के लिए रागभाव का विनाश कर अपने मन को ज्ञानामृत से तृप्त करो। जिस प्रकार जल के सिंचन से चमड़ा दुर्गन्ध ही छोड़ता है, उसी प्रकार अन्नपानादि देने से यह शरीररूप चमड़ा भी विष्ठा आदि मल के द्वारा दुर्गन्ध ही छोड़ता है अतः तब आपका उपयोग मल की वृद्धि करने वाले शरीर के सिंचन की ओर कदापि न जाना चाहिए प्रत्युत् दुष्कर तप रूपी अग्नि के द्वारा इसे सुखाना ही चाहिए। तपों से भली प्रकार सुखाया हुआ यह शरीर भी मल-मूत्र आदि विकारों को छोड़कर निर्मल बन जाता है। आपके शरीर में मात्र चमड़ी और हड्डी ही अवशेष है अतः आप अपनी धीर-वीरता से इस क्षुधावेदना रूपी जगद्विजयी शक्ति को नष्ट करने में समर्थ हो, अपनी अपूर्व शक्ति को जाग्रत करो और इस क्षुधाशत्रु का मूलोच्छेद कर अनन्त सुख के भाजन बनो। उदर में जो जठराग्नि प्रज्वलित हो रही है उसे अपने उपयोग में लेकर ऐसा विचार मत करो कि यह वेदना दुःसह्य है, यह काल निःकृष्ट है, मेरा संहनन हीन और आयु अभी बहुत दिखाई देती है, उस स्थिति में मैं इस क्षुधा वेदना रूपी तस्कर से अपने सल्लेखना रूपी रत्न की रक्षा करने में असमर्थ हूँ, कायर हूँ इत्यादि। इस भयंकर परिस्थिति में आप अपने स्वरूप का बार-बार स्पर्श करो, दृष्टि अन्तर्मुखी करके अपने सहज स्वाभाविक सुख का अनुभव करो। जड़ शरीर के सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाली यह क्षुधा वेदना आपके त्रैकालिक शुद्ध ज्ञायक स्वभाव को स्पर्श नहीं कर सकती। इस क्षुधादि वेदना के पड़ोसी बनकर इस शरीर के माध्यम से उत्पन्न होने वाले समस्त दृश्यों के मात्र ज्ञाता द्रष्टा बनो और संयम रूपी कुम्भ में धारण किये हुए धैर्य रूपी अमृत से क्षुधा रूप अग्नि को शान्त कर आत्मोत्थ सुख का रसास्वादन करो। 18000 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004

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