Book Title: Prakrit Vidya Samadhi Visheshank
Author(s): Kundkund Bharti Trust
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 193
________________ मरते हैं और महाक्लेश को प्राप्त होते हैं, किन्तु ज्ञानी पुरुष इस प्रकार विचार करते हैं कि अहो ! इस जगत में कौन किसका पति, कौन पुत्र, कौन माता, कौन पिता, किसकी हवेली, किसका मन्दिर, किसका धन, किसका वैभव, किसके वस्त्र और किसके आभूषण? यह समस्त सामग्री झूठी है। कोई भी वस्तु शाश्वत नहीं है। जैसे— स्वप्न में प्राप्त हुआ राज्य, इन्द्रजाल का खेल, भूतों की माया और आकाश में प्राप्त हुई बादलों की शोभा रमणीक सदृश दिखाई दे रही हैं, किन्तु वस्तु-स्वभाव का विचार करने पर यह कोई चीज ही नहीं है। यदि ये स्वभाव से वस्तुपने को प्राप्त होती तो शाश्वत रहतीं, नाश को प्राप्त क्यों होती? ऐसा जानकर अब मैं त्रैलोक्य में स्थित पुद्गल की समस्त पर्यायों (वस्तुओं) से ममत्व छोड़ता हूँ, और इन वस्तुओं के ही सदृश शरीर में भी ममत्व छोड़ता हूँ। इस शरीर के नाश से मेरे परिणामों में अंश मात्र भी खेद नहीं है। इन. शरीरादि पर द्रव्यों से मेरा कुछ भी प्रयोजन नहीं है। यह रहे तो रहे और जाय तो जाय, इससे मेरा कोई मतलब नहीं है। अहो ! देखो ! मोह का स्वभाव, कि जो यह सर्व सामग्री प्रत्यक्ष ही पर है, विनाशीक है और उभयलोक में दुखदाई है तो भी यह संसारी जीव इसे अपनी मानता है और निरन्तर इसे अपने पास बनाये रखने की इच्छा करता है। मैंने इसका यह चरित्र खूब देखा है अतः मैं ज्ञाता-द्रष्टा होता हुआ मात्र अपने ज्ञान स्वभाव का ही अवलोकन करता हूँ। काल का आगमन देखकर भी मैं डरता नहीं हूँ क्योंकि काल का प्रभाव तो इस शरीर के ऊपर है, मेरे ऊपर नहीं। जैसे मक्खी दौड़-दौड़ कर विष्टा आदि अपवित्र वस्तुओं पर ही जाकर बैठती है, अग्नि पर कदापि नहीं बैठती, वैसे ही यह काल दौड़-दौड़कर शरीर को ही ग्रसित करता है और मुझसे दूर-दूर ही भागता है, मुझे कभी ग्रसित नहीं कर सकता क्योंकि मैं तो अनादि अविनाशी चैतन्य देव और त्रैलोक्य पूज्य हूँ अतः ऐसे उत्कृष्ट पदार्थ पर काल का वश नहीं चलता। इस स्थिति में कौन मरे, कौन जन्म ले और कौन मरण का भय करे। मुझे तो मरण दिखाई नहीं देता क्योंकि जो मरता है वह तो पहिले से ही मरा हुआ है और जीवित है वह पहिले ही जीवित था। जो मरता है वह जीता नहीं है और जीता है वह मरता नहीं है, केवल मोह दृष्टि से अन्यथा प्रतिभासित होता है। मेरे मोह का विलय हो चुका है, अतः जैसा वस्तु का स्वभाव है, वैसा ही मुझे प्रतिभासित हो रहा है। इस यथार्थ प्रतिभास में जन्म, मरण, सुख और दुःख आदि कुछ भी नहीं है, तब मैं किस बात का सोच करूँ या शोक आदि करूँ? मैं तो एक चैतन्यधातुमय अमूर्तिक और शाश्वत हूँ, अतः उसी का अवलोकन करता हूँ तब मुझे मरण आदि का दुःख कैसे व्याप सकता है? कैसा हूँ मैं? ज्ञानानन्द निज रस से पूर्ण भरा हुआ हूँ और शुद्धोपयोगी होता हुआ ज्ञानरस को प्राप्त करता हूँ तथा ज्ञान प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 191

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