Book Title: Prakrit Vidya Samadhi Visheshank
Author(s): Kundkund Bharti Trust
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 194
________________ अंजुलि से आत्म-अमृत को पीता हूँ। यह आत्म-अमृत मेरे ही स्वभाव से उत्पन्न हुआ है अतः स्वाधीन है, पराधीन नहीं है, इसलिए उसके भोग से मुझे खेद नहीं है। कैसा हूँ मैं? अपने निज स्वभाव में स्थित हूँ, अडोल हूँ, अकम्प हूँ, अपने निज रस से अतिशय परिपूर्ण हूँ और ज्वलन्त अर्थात् देदीप्यमान ज्ञान ज्योति से प्रगट अपने ही निज स्वभाव में स्थित हूँ। देखो ! अद्भुत चैतन्य स्वरूप की महिमा ! इसके ज्ञान स्वभाव में समस्त ज्ञेय पदार्थ स्वयमेव झलकते हैं किन्तु ज्ञान ज्ञेय रूप परिणमन नहीं करता और ज्ञेयों को जानते हुए भी ज्ञान में विकल्प का अंश भी नहीं आता, इसलिए निर्विकल्प, अभोग, अतीन्द्रिय, अनुपम और बाधा रहित अखण्ड सुख उत्पन्न होता है, सो यह सुख संसार में नहीं है। संसार में तो दुःख ही है। अज्ञानी जीवों को सुख का आभास जैसा होता है। कैसा हूँ मैं? ज्ञानादि गुणों से पूर्ण भरा हुआ हूँ, ज्ञानादि गुणमय एक वस्तु होता हुआ भी मैं अनन्त गुणों की खान हूँ। मेरा चैतन्य स्वरूप जहाँ-तहाँ चैतन्य ही चैतन्य रस से व्याप्त है। जैसे नमक की डली के सर्वांग में क्षार रस व्याप्त है अथवा जैसे शक्कर की डली का पिंण्ड सर्वांग मिष्ट अर्थात् अमृत रस से व्याप्त रहता है, उसी प्रकार मैं एक मात्र ज्ञानमय पिण्ड हूँ, सर्वांग ज्ञान रस से व्याप्त हूँ। मेरे इस शरीर का जितना आकार है, उतना ही आकार मेरा है। वस्तुस्वरूप का विचार करते हुए मेरा आकार तीन लोक प्रमाण है। अवगाहन शक्ति के कारण लोक में यह आकार समा गया है। एक-एक प्रदेश में असंख्यातअसंख्यात प्रदेश भिन्न-भिन्न स्थित हैं और सर्वज्ञ देव उन्हें भिन्न-भिन्न ही देखते हैं। इस आत्मा में संकोच-विस्तार शक्ति है। आगे कैसा है मेरा निज स्वभाव अनन्त आत्मिक सुख का भोक्ता है, एक सुख की ही मूर्ति है, चैतन्यमय और पुरुषाकार है। जैसे मिट्टी के साँचे में एक शुद्ध रूपामय धातु के बिम्ब को निर्मापित करते हैं, वैसे ही आत्मा का स्वभाव इस शरीर के मध्य में जानना चाहिए। जैसे मिट्टी के सांचे के गल जाने पर, जल जाने पर या उसके हट जाने पर बिम्ब ज्यों-कात्यों रहता है और सबों को प्रत्यक्ष दिखाई देता है। साँचे का विनाश होने पर वस्तु का विनाश नहीं होता, क्योंकि वस्तु पहिले ही भिन्न थी, तब एक का नाश होने पर दूसरी वस्तु का नाश कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा नियम नहीं है। उसी प्रकार काल को प्राप्त करके यह शरीर गलता है तो गले। मेरे स्वभाव का तो विनाश है नहीं, मैं क्यों सोच करूँ? कैसा है मेरा यह चैतन्य स्वरूप? आकाश की निर्मलता से भी अधिक निर्मल है। जैसे आकाश में किसी प्रकार का विकार नहीं है, वह एक स्वच्छता का पिण्ड मात्र है, वैसे ही मेरी आत्मा है। कोई यदि तलवार से आकाश को छेदना चाहे, भेदना चाहे, अग्नि में जलाना 192 00 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004

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