Book Title: Prakrit Vidya Samadhi Visheshank
Author(s): Kundkund Bharti Trust
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 196
________________ से पड़ोसी का-सा सम्बन्ध है, क्योंकि मेरा स्वभाव भिन्न प्रकार, इसका स्वभाव भिन्न प्रकार है। मेरा परिणमन भिन्न प्रकार है और इसका परिणमन भिन्न प्रकार है। इस समय यह शरीर गलन स्वभाव रूप परिणमन कर रहा है, इसमें मैं क्यों शोक करूँ और क्यों दुःख करूँ? मैं तो तमाशगीर तथा पड़ोसी बनकर स्थित हूँ। इस शरीर से मेरा राग-द्वेष नहीं है, क्योंकि राग-द्वेष जगत में निन्द्य है और परलोक में महा दुःखदाई है। ये राग-द्वेष मोह से ही उत्पन्न होते हैं, अतः जिसका मोह विलय को प्राप्त हो गया उसका राग-द्वेष भी नाश हो गया। मोह से. परद्रव्य में अहंकार-ममकार उत्पन्न होता है, जो यह द्रव्य है वही मैं हूँ- ऐसें अध्यवसान का नाम अहंकार है, और यह द्रव्य मेरा है- ऐसे अध्यवसान का नाम ममकार है। यह सामग्री न तो इच्छानुसार प्राप्त होती है और न इच्छानुसार छोड़ी जाती है, इसीलिए यह आत्मा खेदखिन्न होता है। यदि सर्व सामग्री पर ही ऐसी दृढ़ प्रतीति हो जाय तो उसके आने-जाने का विकल्प ही क्यों उत्पन्न हो? मेरा मोह पहिले ही विलय को प्राप्त हो चुका है, और पहिले ही मैं शरीरादि सर्व सामग्री को पर जान चुका हूँ, तब क्या इस शरीर के जाने का विकल्प मुझे अब उत्पन्न हो सकता है? कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि मैं विकल्प उत्पन्न करनेवाले का पहिले ही भलीभाँति नाश कर चुका हूँ। अब मैं निर्विकल्प आनन्दमयी निज स्वरूप को बारम्बार सँभालता हुआ उसी भव में स्थित रहने का प्रयास करता हूँ। * यहाँ कोई कहे कि यह शरीर तुम्हारा नहीं है- यह बात तो सत्य है, किन्तु यह शरीर ही मुनिपर्याय में शुद्धोपयोग का साधन है, अतः इसका यह उपकार जानकर तो कम से कम इसे सुरक्षित रखने का उद्यम करना उचित है। इसमें तो आपका कोई घाटा नहीं है? इसके उत्तर में कहते हैं कि हे भाई ! आपने जो बात कही, वह मैं भी जानता हूँ कि शुद्धोपयोग का और ज्ञान, वैराग्य आदि गुणों की वृद्धि का कारण यह मनुष्य शरीर हीं है, इस शरीर के न होने से अन्य पर्यायों में इन गुणों की प्राप्ति दुर्लभ है, किन्तु अपने संयमादि गुणों के रहते यदि शरीर रहता है तो रहे और न रहे तो जाय / इससे मेरा कोई बैर तो है नहीं, जो मैं इसे साधक होते हुए भी नाश करूँ, किन्तु अपने संयमादि गुण जब तक निर्विघ्न पलेंगे तब तक ही इसकी रक्षा करूँगा, इसके बाद तो इसे अवश्य ही छोडूंगा। शरीर रक्षा के लिए संयमादि गुणों में दूषण कदापि न लगाऊँगा। जैसे कोई रत्नों का व्यापारी रत्नद्वीप में फूस की झोंपड़ी बनाकर रहता है और उस झोंपड़ी में रत्न ला-लाकर इकट्ठे करता है, यदि अचानक उस झोपड़ी में आग लग जाय तो वह विचक्षण पुरुष ऐसा विचार करता है कि किसी भी प्रकार इस अग्नि को शान्त करके रत्नों सहित झोंपड़ी की रक्षा करनी चाहिए। यदि यह झोंपड़ी सुरक्षित रह जायगी तो इसके 1940 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004

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