Book Title: Prakrit Vidya Samadhi Visheshank
Author(s): Kundkund Bharti Trust
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 200
________________ है कि कोई पाप करे और अन्य कोई उसका फल भोगे। आप लोगों की अज्ञानता को देखकर मुझे बहुत दया आती है, इसलिए आप मेरा उपदेश ग्रहण करो, ग्रहण करो ! मेरा उपदेश आपको बहुत सुखदाई है। मेरा उपदेश सुखदाई क्यों है, क्योंकि मैंने जैनधर्म का यथार्थ स्वरूप जान लिया है और आप जैनधर्म से अत्यन्त विमुख हो, इसलिए आप लोगों को दुष्ट मोह दुःख दे रहा है और मैंने मोह को जैनधर्म के प्रताप से सुलभतापूर्वक जीत लिया है, इसलिए मैं एक जैनधर्म को ही विशेष जानता हूँ, और आपको भी जैनधर्म के स्वरूप का विचार करना ही कार्यकारी है। देखो ! आपकी आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता द्रष्टा-स्वभाव वाली है, और ये शरीरादि पर वस्तुएँ हैं, और अपने स्वभाव रूप स्वयमेव परिणमन करती हैं, किसी के द्वारा भी रक्षित नहीं रह सकतीं। भोले जीव भ्रम में पड़े हुए हैं, इसलिए हे भाई! भ्रम बुद्धि छोड़ो और एक आपा-पर की ही पहिचान करो, इसी से अपना हित. साधन होगा। जिसमें अपना हित हो वही कार्य करना, यही विलक्षण पुरुषों की रीति है, वे मात्र अपने हित को ही चाहते हैं, बिना प्रयोजन एक पग भी नहीं रखते। तुम मुझसे जितना अधिक ममत्व करोगे वह सब दुःख का ही कारण होगा। उससे कुछ भी प्रयोजन सिद्ध होना नहीं है। इस जीव ने अनन्त पर्यायों में अनन्त बार भिन्न-भिन्न माता-पिता प्राप्त किये थे, सो इस समय वे सब कहाँ चले गये? इस जीव को अनन्त बार स्त्री, पुत्र एवं पुत्री आदि का संयोग मिला है सो वे सब अब कहाँ गये? प्रत्येक पर्याय-पर्याय में भ्राता, कुटुम्ब और परिवार आदि की प्राप्ति हुई है सो वह कहाँ गये? इन संसारी जीवों की पर्याय बुद्धि है, इससे वे जिस पर्याय में जाते हैं, उसी को अपना मानकर उससे तन्मय होते हुए तद्रूप ही परिणमन करते हैं। यह नहीं जानते कि पर्याय.विनाशीक है और मेरा स्वरूप नित्य, शाश्वत अविनाशी है। ऐसा विचार उत्पन्न ही नहीं होता, इसमें आपका कोई दोष नहीं, यह तो सब मोह का ही माहात्म्य है, जो प्रत्यक्ष सत्यार्थ वस्तु को झूठी दिखाता है और झूठी वस्तु को सत्यार्थ दिखाता है। जो भेदविज्ञानी पुरुष हैं, जिनका मोह गल गया है वे पर्याय को अपना कैसे मानेंगे और कैसे संयोग को सत्य जानेंगे? वे महापुरुष क्या किसी के द्वारा चलायमान किये जा सकेंगे? कदापि नहीं। अब इस समय मुझे ज्ञान भाव रूप पदार्थ की दृढ़ प्रतीति उत्पन्न हुई है। आपा-पर का समीचीन ज्ञान हुआ है अतः अब मुझे ठगने में कोई भी समर्थ नहीं है। अनादि काल से प्रत्येक पर्यायों में अनेक बार ठगाया गया, इसीकारण भव-भव में जन्म-जन्म के भयंकर दुःख सहन किये हैं, इसलिए अब मैंने भली प्रकार जान लिया है कि आपका और मेरा मात्र इस पर्याय का संयोग था, सो अब समाप्त हो रहा है, अतः अब आपको भी आत्मकार्य ही करना उचित है, मोह करना उचित नहीं है। आपका 198 00 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004

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