________________ कुटुम्ब-परिवार से ममत्व छुड़ाने हेतु वह कहता है कि अहो ! इस शरीर के माता-पिता ! तुम भलीभाँति यह जान लो कि वह शरीर जब तक आपका था तब तक था, अब तुम्हारा नहीं है। अब इसका आयु और बल समाप्त हो रहा है सो यह किसी के भी पुरुषार्थ से रह नहीं सकता। इसकी इतनी ही स्थिति थी। अब इसके नाश का समय आ चुका है, अतः अब इससे ममत्व छोड़ो। अब इससे ममत्व करने से क्या? इसकी प्रीति दुःख का ही कारण है। यह शरीर रूप पुद्गल की पर्याय इन्द्रादिक देवों की भी विनाशीक है। जब मरण-समय आता है तब इन्द्रादिक देव भी मुख फाड़े खड़े रहते हैं, सर्व देवों का समूह देखता ही रहता है और काल रूप किंकर उसे (शरीर को) उठाकर ले जाता है। इस समय किसी की भी शक्ति नहीं कि जो काल की दाढ़ में से छुड़ाकर क्षणमात्र भी स्थित रख सके। यह काल रूपी किंकर एक-एक को ले जाकर सर्व को भक्षण कर जायगा। जो अज्ञान से काल के वशीभूतं रहेगा उसकी यही गति होगी। आप लोग मोह के वशीभूत होकर दूसरे के शरीर से ममत्व कर रहे हो, और इसे स्थिर रखना चाहते हो। मोह के कारण आपको संसार का चरित्र विपरीत मालूम नहीं होता। दूसरे के शरीर को बनाए रखना तो दूर है, आप पहिले अपने शरीर को तो सुरक्षित रख लो। पीछे दूसरों के शरीर को सुरक्षित रखने का उपाय करो। आपकी जो यह भ्रमबुद्धि है वह वृथा ही दुःख का कारण है। क्या आपको यह प्रत्यक्ष दिखाई नहीं दे रहा है कि इस संसार में काल ने जब पहिले भी किसी को नहीं छोड़ा तब अब किसी को कैसे छोड़ देगा? जो हाय-हाय करते हुए दुःखी होते हो। मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि आप निर्भय होकर स्थित क्यों नहीं रहते? आपका यह कौन-सा अज्ञान है तथा आपकी कैसी होनहार है? यह मुझे कुछ समझ में नहीं आता। मैं आपसे पूछता हूँ कि आपको आपा-पर की भी कुछ खबर है या नहीं? मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ और इस पर्याय को छोड़कर अब कहाँ जाऊँगा? जिन पुत्र आदि से मैं प्रीति करता हूँ वे कौन हैं? यदि ये यथार्थ में मेरे पुत्र आदि हैं तो शाश्वत मेरे पास क्यों नहीं रहे? जन्म से पहिले ये कहाँ थे? अब तुम्हें उन जीवों में पुत्र आदि की बुद्धि उत्पन्न हुई है, और उनके वियोग में शोक उत्पन्न होता है। अब आप से यही कहना है कि आप चित्त को सावधान करके विचार करो। भ्रम रूप बुद्धि के अधीन मत रहो। आप तो अपने कार्य का विचार करोगे तो सुख पाओगे। पर के कार्य-अकार्य पर के हाथ हैं, उसमें आपका कर्त्तव्य कुछ भी नहीं चलेगा। आप लोग वृथा ही खेदखिन्न क्यों होते हो? तथा अपने-आपको मोह के अधीन कर संसार-समुद्र में क्यों डूबते हो? इस संसार में नरकादि के दुःख आपको ही सहने पड़ेंगे। ये कुटुम्बीजन कोई नहीं सहेंगे, क्योंकि जैनधर्म का ऐसा उपदेश नहीं प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 197