________________ अपना निज आत्मस्वरूप भी शाश्वत है, अतः निरन्तर उसकी सम्हाल करते रहो। उसकी सम्हाल में किसी प्रकार का खेद नहीं, किसी के पास जाकर कुछ याचना करना नहीं, अपने ही घर में महा अमूल्य निधि है, यदि एक भी बार उस निधि की सम्हाल कर ली जाय तो जन्म-जन्म का दुःख नाश हो जाये। इस संसार में जितना भी दुःख है वह केवल आत्मस्वभाव को न जानने से ही है, इसलिए एक आत्मज्ञान की ही आराधना करो, क्योंकि जो ज्ञान स्वभाव है वह अपना ही स्वभाव है, उसको प्राप्त करके जीव महासुखी हो जाता है, और उसकी प्राप्ति न होने से महादुःखी रहता है। प्रत्यक्ष देखने-जानने स्वभाव वाला ज्ञायक महापुरुष शरीर से भिन्न है, ऐसे अपने स्वभाव को छोड़कर अन्य किसी बात में प्रीति उत्पन्न नहीं करता। स्त्री से ममत्व छुड़ाने हेतु वह कहता है- अहो ! इस शरीर की स्त्री ! तू अब इस शरीर से ममत्व छोड़। तेरा मेरे इस शरीर से इतना ही सम्बन्ध था सो अब पूर्ण हुआ। इस शरीर से तेरा हित-साधन होगा नहीं, इससे अब तू मोह छोड़। बिना प्रयोजन खेद मत कर। यदि तू इस शरीर को रख सकती है तो रख ले, मैं मना करता नहीं और यदि तू इसे रखने में असमर्थ है तो अब बोल-इसमें मैं क्या करूँ? हे रमणी ! तू विचार कर देख कि तू भी आत्मा है और मैं भी आत्मा हूँ, स्त्री-पुरुष तो पर्याय है जो विनाशीक है, इसमें कैसी प्रीति? यह जड़ और आत्मा चैतन्य, ऊँट बैल का-सा जोड़ा-सो यह संयोग कैसे बने। यह मेरी पर्याय भी चंचल है- ऐसा विश्वास करके तू अपने हित की बात क्यों नहीं सोचती। हे देवि ! इतने दिनों भोग किया सो बतला तो सही कि उससे क्या सिद्धि हुई? यदि नहीं हुई तो और कुछ दिन भोग भोग लेने से क्या सिद्धि हो जायगी? भोग-भोगकर वृथा ही आत्मा को संसार-समुद्र में डुबोया और सिर पर नाचने वाले इस मरण के समय को नहीं जाना। मरने के बाद यह तीन लोक की सम्पदा मेरे लिए तो झूठी ही है, क्योंकि अगली पर्याय में तो तू मेरी सम्हाल करेगी नहीं। यदि यथार्थ में तू मेरी प्यारी स्त्री है तो मुझे धर्म का उपदेश दे, तेरे लिए यह स्वर्ण का समय मिला है और यदि तू स्वार्थ की सगी है तो तेरी तू जान / मैं तेरे डिगाये नहीं डिगूंगा। मैंने तो तुझ पर दया करके तुझे उपदेश दिया है, मानो तो ठीक है, न मानो तो तुम्हारा जैसा होनहार होना होगा सो होगा, मेरा तुमसे अब कोई मतलब नहीं। अब तू मेरे पास से जा और परिणामों में शान्ति रख, आकुलता मत कर, क्योंकि आकुलता ही संसार का बीज है। तू भी निराकुल हो आत्मसाधना कर यही हितकर है। कुटुम्ब परिवार को समझाते हुए कहता है- अहो कुटुम्बी जनो ! अब इस शरीर की आयु क्षय हो रही है, मेरा परलोक निकट है, इसलिए मैं तुमसे कहता हूँ कि आप मुझसे किसी बात का राग नहीं करना। मेरा और आपका चार दिन प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 199