Book Title: Prakrit Vidya Samadhi Visheshank
Author(s): Kundkund Bharti Trust
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 198
________________ दिखाई देता नहीं है तब भला फिर मेरे परिणामों में संक्लेश उत्पन्न क्यों होगा? मेरा परिणाम शुद्ध स्वरूप में अत्यन्त आसक्त है। इस आसक्ति को दूर करने में एक मात्र मोह कर्म समर्थ था, सो उसे मैंने पहिले जीत लिया है। अब त्रैलोक्य में कोई मेरा बैरी रहा नहीं और मोह बैरी बिना त्रैलोक्य और तीन काल में कोई दुःख देने वाला है नहीं, तब मुझे मरण भय कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता, इसीलिए आज मैं सर्वप्रकार से निर्भय हुआ हूँ, यह बात तुम भली प्रकार जानो और इसमें किसी प्रकार का सन्देह मत करो। . इसप्रकार शुद्धोपयोग की आराधना करनेवाला महापुरुषं अपने शरीर की स्थिति को पूर्ण जानकर उपर्युक्त विचारों में आनन्दमय रहता है। किसी प्रकार की आकुलता उत्पन्न नहीं करता, क्योंकि आकुलता ही संसार का बीज है, इसी बीज से संसार की स्थिति है। आकुलता करने से बहुत काल में संचित किये हुए भी संयम आदि गुण अग्नि में डाले हुए बहुमूल्य पदार्थों के सदृश भस्म हो जाते हैं, इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव को किसी प्रकार की आकुलता नहीं करना चाहिए। निश्चय से अपने एक आत्मस्वरूप का ही बारम्बार विचार करना चाहिए। उसी को . बार-बार देखना चाहिए, उसी के गुणों का बार-बार चिन्तन करना, उसी की शुद्ध पर्याय का अविचार एवं वांछा करना और उसी का निरन्तर चिन्तन करना चाहिए। जब अपने शुद्धस्वरूप से चलायमान हो तब ऐसा विचार करना चाहिए कि यह संसार अनित्य है, इसमें कुछ भी सार नहीं है, यदि सार होता तो तीर्थंकर देह क्यों छोड़ते? इसलिए अब मुझे निश्चय से तो मेरे अपने स्वरूप का ही शरण है और बाह्य में पंचपरमेष्ठी, जिनवाणी और रत्नत्रय धर्म शरण है। कदाचित् भी तथा स्वप्न में भी तथा भूलकर भी मेरा अभिप्राय अन्य को शरण मानने का नहीं है। यह मेरा दृढ़ संकल्प है। ऐसा विचार करके पुनः अपने उपयोग को अपने आत्मस्वरूप में ही लगावे, और यदि पुनः वहाँ से उपयोग लौटे तो अरिहन्त, सिद्ध के आत्मस्वरूप का अवलोकन करे, उनके द्रव्य, गुण और पर्याय का विचार करे। उनके द्रव्य-गुणपर्याय का विचार करते-करते जब उपयोग निर्मल हो तब फिर उसे अपने स्वरूप में लगावे। अपने स्वरूप सदृश अरिहन्त-सिद्ध का स्वरूप है, और अरिहन्त सिद्ध के स्वरूप सदृश अपना स्वरूप है। किसी भी प्रकार द्रव्यत्व स्वभाव में अन्तर नहीं है, किन्तु पर्याय स्वभाव में तो अन्तर है ही। जो मैं हूँ सो तो द्रव्यत्व स्वभाव का ही ग्राहक हूँ, अतः अरिहन्त का ध्यान करते-करते आत्मा का ध्यान भली-भाँति बन जाता है और आत्मा का ध्यान करते-करते अरिहन्त का ध्यान हो जाता है। अरिहन्त के और आत्मा के स्वरूप में अन्तर नहीं है, चाहो तो अरिहन्त का ध्यान करो और चाहो तो आत्मा का ध्यान करो। 19600 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004

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