Book Title: Prakrit Vidya Samadhi Visheshank
Author(s): Kundkund Bharti Trust
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 191
________________ धातु का पिण्ड, अनन्त गुणों से युक्त चैतन्यदेव आपको जानता है, अतः इसके अतिशय से परद्रव्यों में अंश मात्र भी रंजित अर्थात् रागी नहीं होता। रागी क्यों नहीं होता? क्योंकि वह अपने निज स्वरूप को वीतराग, ज्ञाता-द्रष्टा, परद्रव्य से भिन्न, शाश्वत और अविनाशी जानता है तथा परद्रव्य का स्वभाव पूरण, गलन, क्षणभंगुर, विनाशीक और अपने स्वभाव से भिन्न जानता है। तब सम्यग्ज्ञानी पुरुष मरण से क्यों डरेगा? अर्थात् नहीं डरेगा। सम्यग्ज्ञानी पुरुष मरण का अवसर आने पर भावना भाता है कि अब इस शरीर से सम्बन्धित आयु एवं बल आदि दिन-प्रतिदिन क्षीण हो रहे हैं। मरण चिह्न प्रगट हो रहे हैं, इसलिए अब मुझे सावधान रहना उचित है, ढील करना उचित नहीं। जैसे सुभट रणभेरी बजने के बाद तुरन्त शत्रु सेना पर चढ़ाई कर देता है, क्षण मात्र भी विलम्ब नहीं करता। वाद्यध्वनि सुनते ही उसे ऐसा वीररस चढ़ जाता है कि कब जाकर बैरियों से भिडूं और उन्हें जीतूं। इसीप्रकार अब मेरा भी इस काल को जीतने का अभिप्राय है। अतः हे कुटुम्बी जनो ! तुम सुनो ! अहो ! देखो ! इस पुद्गल पर्याय का चरित्र, थह आँखों देखते-देखते ही उत्पन्न हुआ और अब आँखों देखते-देखते ही विलय को प्राप्त हो जायगा। मैं तो पहले ही इसका यह विनाशीक स्वभाव भली प्रकार जानता था, जो इस समय यह आकर अब उपस्थित हुआ है। अब इस शरीर को स्थिर रखने वाली आयु अति अल्प रही है, उसमें भी समयप्रतिसमय गलती जा रही है, अतः अब मैं इसका ज्ञाता-द्रष्टा होकर मात्र इसे देखता हूँ। मैं अब इसका मात्र पड़ोसी हूँ, स्वामी एवं कर्ता नहीं हूँ, मैं तो अब केवल यह देख रहा हूँ कि इस शरीर का आयु और बल कैसे पूर्ण (समाप्त) होता है और कैसे इस शरीर का नाश होता है? मैं केवल तमाशगीर बनकर इसका चरित्र देख रहा हूँ कि पुद्गल के अनन्त परमाणुओं ने मिलकर इसकी रचना की थी, और उनका विघटन ही अब इसे मार रहा है। शरीर पुद्गल से कोई भिन्न पदार्थ नहीं है, और वह मेरा स्वरूप भी नहीं है। मेरा स्वभाव तो एक चैतन्य धातुमय, शाश्वत और अविनाशी है तथा इसकी महिमा अद्भुत है सो मैं किससे कहूँ? देखो ! देखो !! इस पुद्गल पर्याय का. माहात्म्य, जो इन अनन्त पुद्गल-परमाणुओं का एक सदृश परिणमन इतने दिनों तक रहा, सो यह बड़ा ही आश्चर्य है, इन परमाणुओं का अब भिन्न-भिन्न अन्य-अन्य रूप जो यह परिणमन हो रहा है उसमें आश्चर्य नहीं। जैसे लाखों मनुष्य मिलकर एक मेला नामक पर्याय की रचना करते हैं, अब यदि वे दीर्घकाल पर्यन्त उस मेला नामक पर्याय को शाश्वत रखते हैं तो इसका आश्चर्य है क्योंकि इतने दिनों तक लाखों मनुष्यों का परिणमन एक सदृश रहा- इस बात पर आश्चर्य अवश्य होता है, किन्तु जब वे लाखों मनुष्य दसों दिशाओं में भिन्न प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 189

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