Book Title: Prakrit Vidya Samadhi Visheshank
Author(s): Kundkund Bharti Trust
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 183
________________ तृषावेदना शमन करने का उपदेश कर्म शत्रुओं से युद्ध करने वाले आपको बाह्याभ्यन्तर शरीर को शुष्क कर देने वाली जो यह तृषावेदना उत्पन्न हुई है, यह आपके ज्ञायक स्वभाव को स्पर्श नहीं कर सकती। आप आत्मस्वभाव के अवलम्बन से इस पर विजय प्राप्त करो। नरकादि चारों गतियों में परिभ्रमण करते हुए इस जीव ने सागरों पर्यन्त प्यास की भयंकर वेदना भोगी है। स्मरण करो नरकों की उस वेदना को जो दावानल की ज्वाला के सदृश निरन्तर जलाती थी। विश्व के समस्त जलाशयों के जल से भी जो शान्त होने वाली नहीं थी। मरण प्राप्त करा देने वाली वेदना होते हुए भी जहाँ मरण नहीं होता था, वहाँ क्या कोई भी हितचिन्तक तुम्हें एक बूंद भी जल पिला सका अथवा अन्य कोई शीतोपचार कर सका? नहीं। तब यहाँ तो उतनी भयंकर वेदना भी नहीं है और संघस्थ साधु एवं श्रावकगण शीतोपचार आदि के साधन भी जुटा रहे हैं। इतना ही नहीं, पूर्वोपार्जित पुण्योदय से निरन्तर शीतल ज्ञानामृत का पान भी कराया जा रहा है, इससे सन्तोष प्राप्त करो। समय को पहिचानो, यह समय गाफिल होने का नहीं है किन्तु सावधानीपूर्वक अपने संयमादि गुणों की रक्षा का है। यदि आपने कर्माधीन होकर कुगतियों में प्यास के अनन्त दुःखों को सहन किया है, तो फिर आज स्ववश होकर कर्मबन्धन से छूटने के लिए प्यास के इस अल्प से दुःख को शान्तिपूर्वक सहन नहीं करना चाहिए क्या? अवश्य ही करना चाहिए। आप तो वसतिका की शीतल छाया में लेटे हुए हो। साधुगण आपको धर्मामृत का निरन्तर पान करा रहे हैं, आपके अनुकूल वैयावृत्य में तत्पर हैं, यथायोग्य बाह्य उपचार भी किये जा रहे हैं, किन्तु बेचारे दीन-हीन उन पशुओं का विचार करो, जिन्होंने गुरुओं के उपदेश से एकदेश संयम धारण कर अन्त में समाधिमरण ग्रहण किया और अन्त तक उसका सुचारुरीत्या निर्वाह किया। धन्य है उन पशुओं की समता को जो बेला, तेला आदि उपवासों के द्वारा अपने शरीर को कृश कर लेते हैं, उपवासों के बाद जिनकी पारणा को कोई साधक नहीं। प्यास से प्राण व्याकुल हो रहे हैं किन्तु शरीर में इतनी शक्ति नहीं कि सरोवर तक जा सकें। यदि किसी प्रकार वहाँ पहुँच भी गये तो सरोवर में पैर रखते ही विकट कीचड़ में फँस गयें। सामने जल दिखाई दे रहा है किन्तु कीचड़ में फँस जाने से पी नहीं सकते। शक्तिहीन होने के कारण न निकल पाते हैं, न बैठ पाते हैं और न लेट पाते हैं, कईकई दिनों तक वैसे ही फंसे रहते हैं, ऊपर से गर्मी-सर्दी की वेदना सहन करते हैं फिर भी अपनी समता नहीं छोड़ते, ग्रहण किये हुए संयम एवं सम्यक्त्व का विघात नहीं करते / वहाँ कौन उन्हें सम्बोधन देने वाला है? कौन धर्म में स्थिर करने वाला है? कौन आत्मस्वरूप की चर्चा करने वाला है? कौन उनके शरीर को सँभालने प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 181

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