________________ मरणाशंसा- दुःसह क्षुधादि की वेदना के भय से शीघ्र मरने की इच्छा भी मत करो, क्योंकि इस वेदना से अनन्तगुणी वेदना तुम अनन्त भवों में भोग चुके हो, किन्तु वे सब परवशतापूर्वक तथा संक्लेश परिणामों से भोगी हैं, अतः कर्मक्षय का कारण न होकर संसार का ही कारण बनीं। इस शुभ अवसर पर बुद्धिपूर्वक आमन्त्रित की हुई इन वेदनाओं को यदि साम्य परिणामों में सहन कर लोगे तो पूर्वोपार्जित दुष्कर्मों का नाश होगा और नवीन आस्रव का निरोध होगा, किन्तु यदि आपके हृदय में शीघ्रमरण की इच्छा बनी रही तो आप आत्मघाती होते हुए दीर्घ संसारी होंगे, इसलिए आपको अपने हृदय से शीघ्रमरण की इच्छा का परिहार कर देना चाहिए। मित्रानुराग- बाल्यावस्था में एक साथ धूल में खेलने वाले अपने मित्रों की स्मृति मत करो, उनसे स्नेह मत करो और उनसे मिलने की अभिलाषा मत करो अर्थात् अपनी आत्मा को मित्रों के साथ अनुरंजित मत करो। पूर्व में अनेक बार अनुभव में आये हुए और मोह कर्म के विपाक से दुर्ललित ऐसे मित्रानुराग से परलोक की यात्रा में उद्यत आपको कुछ भी प्रयोजन नहीं है। . सुखानुबन्ध- इस समय आप गृहस्थावस्था में अनुभूत पंचेन्द्रियों के विषयों में से किसी भी विषय का अनुराग मत करो। मेरी इस प्रकार की सुन्दर स्त्री थी, सुन्दर शय्या थी तथा मैंने अतिमनोज्ञ भोगों को भोगा था—ऐसा चिन्तन भी मत करो, क्योंकि पंचेन्द्रियों के सुखों के द्वारा आकृष्ट हुआ प्राणी अनन्तकाल तक संसार रूपी वनों में परिभ्रमण करता रहता है। निदान- ज्वर आदि रोग, व्याधि, इष्टवियोग और शोक आदि के समान भविष्यत् काल में अत्यन्त दुःख देने वाले चक्रवर्ती आदि के भोगों की वांछा मत करो अर्थात् इस तप के माहात्म्य से मैं इन्द्र, धरणेन्द्र आदि के पद प्राप्त करूँ- ऐसी भावना हृदय में उत्पन्न मत होने दो, क्योंकि ऐसा कौन मनुष्य है जो इच्छित वरदान को देने वाले इष्टदेव की आराधना करके कालकूट विष की प्रार्थना कोई नहीं करेगा। निर्यापकाचार्य का अन्तिम कर्तव्य इस प्रकार सम्बोधन देते हुए जब क्षपक की शारीरिक शक्ति एकदम क्षीण हो जाय; उठने, बैठने एवं बोलने आदि की भी शक्ति न रहे तब केवल आत्मचिन्तन अथवा पंचपरमेष्ठियों के चिन्तन में क्षपक के उपयोग को लगाने का प्रयत्न करना चाहिए। इसके बाद जब क्षपक के प्राणों का अन्त होने को हो तब से मृत्यु होने तक मधुर वाणी में धीरे-धीरे कानों में णमोकार मन्त्र सुनाते रहना चाहिए। समाधिमरण का फल यदि तद्भवमोक्षगामी जीव समाधि की साधना करता है तो समाधिमरण का साक्षात् फल तो मोक्ष है, क्योंकि उत्कृष्ट आराधना का फल मोक्ष भी है। यदि मध्यम 18600 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004