Book Title: Prakrit Vidya Samadhi Visheshank
Author(s): Kundkund Bharti Trust
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 184
________________ वाला है? कौन बाह्य उपचार करने वाला है और कौन उनकी सल्लेखना का निस्तरण कराने वाला है? वे अपने ही श्रद्धा ज्ञान के बल पर उस संकटकालीन अवस्था में अपनी समता नहीं छोड़ते और स्वर्ग के भाजन बनते हैं, तो क्या हम उनसे भी अधिक कायर हैं? कमजोर हैं? या ज्ञानहीन हैं? नहीं। नहीं। अनन्त धन के धनी, ज्ञानशक्ति से परिपूर्ण, वैराग्य रस से भरी हुई भेदविज्ञान रूपी रंग में रंगी हुई हमारी आत्मा को यह तृषा आदि की वेदना चलायमान नहीं कर सकती। इस प्रकार आत्मशक्ति के अवलम्बन से धैर्य रूपी घड़े में ध्यान रूपी शीतल एवं सुगन्धित जल से तृषा रूपी अग्नि की शिखा को बुझाकर शान्त करो और अपने उसी धैर्य रूपी गृह में विवेक रूपी दीपक के उद्योत से निजस्वरूप का अवलोकन करते हुए अपने संयमादि गुणों की रक्षा करो। समाधिमरण के सर्वोत्तम समय को प्राप्त करके आराधनासहित मरण के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि यह अवसर जब अनन्त भवों में भी नहीं मिलेगा। देखो ! श्यालनी द्वारा तीन दिन तक खाये जाने पर भी सुकुमाल महामुनि ने आराधनाएँ नहीं छोड़ी, फिर आपके शरीर में ऐसा कौन-सा कष्ट है जो आप आकुलित हो रहे हैं। कल्पना करो कि यदि कोई पशु शरीर का मांस निकाल-निकाल कर खा रहा हो तो उससे जिस प्रकार के कष्ट का अनुभव होगा क्या वैसा ही कष्ट वर्तमान में आपको है? यदि नहीं है तो विचार करो कि मैं दर्शनज्ञान-उपयोग लक्षण वाला हूँ, एक हूँ, सदा नित्य हूँ, जन्म-जरा और मृत्यु से रहित हूँ, परद्रव्यों से भिन्न हूँ और अनन्त गुणों का भण्डार हूँ। यह शरीर अचेतन है, निन्द्य है, क्षणक्षयी है तथा मलमूत्र आदि का आधार होने से दुःखों का स्थान है, इसलिए इस शरीर के माध्यम से उत्पन्न होने वाले अल्प कष्टों के वशीभूत होकर चिरकाल से भावित आराधनाओं का विनाश मुझे नहीं करना चाहिए। जिस प्रकार समाधिमरण के प्रभाव से सप्त धातुमयी महान् अशुचि और विनाशीक देह का परित्याग कर दिव्यवैक्रियिक शरीर को प्राप्त होते हुए नाना प्रकार की सुख-सम्पदाओं के स्वामी हुए, उसीप्रकार आप भी इस मृत्यु नामक कल्पवृक्ष को प्राप्त करके अपने आत्मकल्याण में ही पुरुषार्थ करो। देखो ! समाधिमरण के सदृश इस जीव का उपकार करनेवाला अन्य कोई नहीं है। इस देह के सम्पर्क से असंख्यात और अनन्त काल पर्यन्त महान् दुःख भोगते हुए तथा जन्म-मरण रूप अनन्त परिवर्तन पूर्ण करते हुए इस जीव की रक्षा करने में आज तक कोई समर्थ नहीं हुआ, न कोई शरणदाता ही मिला। किसी विशेष पुण्योदय से मनुष्यगति, उच्चकुल, इन्द्रियों की पूर्णता, सत्पुरुषों का समागम तथा भगवान् जिनेन्द्र के परमागम का उपदेश प्राप्त हुआ है अतः अब श्रद्धान, ज्ञान, योग एवं संयम आदि के अवलम्बन से देह से भिन्न अपने ज्ञानस्वरूप आत्मा का 182 00 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004

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