Book Title: Prakrit Vidya Samadhi Visheshank
Author(s): Kundkund Bharti Trust
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 181
________________ क्योंकि सन्तप्त होना, क्लेश करना, वैयावृत्त्य में तत्पर साधुजनों से कलह करना, चिन्ता करना, परीषह आदि से खेद रूप होना, षट् आवश्यक आदि क्रियाओं में आलस्य करना, आहार आदि त्याग कर देने का पश्चात्ताप करना, वेदना आदि के कारण हाहाकार करना, शरीर आदि की सुखप्राप्ति के लिए मन में उत्कण्ठा होना, अधिक निद्रा लेना और बेसुध आदि हो जाना ये सब आर्त्तध्यान के लक्षण हैं, अतः हे सुखार्थी ! शाश्वत सुख के लिए इन आर्त्त-रौद्र ध्यानों को छोड़कर सतर्कतापूर्वक धर्मध्यान में प्रवृत्ति करो। आर्जव ही धर्मध्यान का लक्षण है, धर्मध्यान में स्थित रहने के लिए मायाचार का सर्वथा त्याग करो, क्योंकि कषायों का निग्रह, इन्द्रिय-दमन, चित्तनिरोध और रत्नत्रय में दृढ़ता आदि लक्षण धर्मध्यान के द्योतक हैं। रत्नत्रय आदि अनेक गुणरत्नों से भरी हुई तुम्हारी नौका, संस्तररूपी (समुद्र किनारे तक जा चुकी है, अब कहीं यह परीषह आदि झंझावात के झोंकों से डूब न जाय / इसकी रक्षा अति आवश्यक है और वह धर्मध्यान के अवलम्बन से ही हो सकती है, अतः चारों प्रकार के धर्मध्यानों में ही प्रवृत्ति करो। वैराग्यवर्धक बारह भावनाओं का उपदेश संसार, शरीर और भोगों में लगे हुए अपने रागभाव को दूर करने के लिए वैराग्यवर्धक बारह भावनाओं का निरन्तर चिन्तन करो। ये द्वादश भावनाएँ वैराग्य की माता हैं, समस्त जीवों का हित करने वाली हैं, दुःख पीड़ित जीवों को शरणभूत हैं, आत्मा को प्रसन्न करनेवाली हैं, परमार्थ मार्ग को दिखाने वाली हैं, तत्त्वों का निश्चय कराने वाली हैं, सम्यक्त्व की रक्षा करने वाली हैं और अशुभध्यानों को नष्ट करने वाली हैं, अतः कल्याण की परम्परा को अक्षुण्ण रखने के लिए तुम्हें नित्य ही इनका चिन्तन करना चाहिए। क्षुधावेदना शमन करने का उपदेश ___ कर्माधीन होकर, इस भव वन में परिभ्रमण करते हुए आपने अनेक सागर पर्यन्त इस सर्वांग-शोषिका क्षुधा वेदना को भोगा है। यह भव आपका कृतार्थ है, जिसमें आहारपरित्यागपूर्वक आपने गुरु के सान्निध्य में सल्लेखना ग्रहण की है। अहो ! धन्य है आपका पुरुषार्थ जो इस क्षुधा वेदना को आमन्त्रित करके बुलाया है। बुद्धिपूर्वक बुलाई हुई यह असह्य वेदना आपकी अतिथि है, अतः परिणामों को संक्लेशित करकें अतिथि का निरादर नहीं करना, सोत्साह इसका आदर करो। अर्थात् धैर्यपूर्वक इसे सहन करते हुए अपने आत्मगुणों की सुरक्षा करो। नरक गति में उत्पन्न होने वाली अति दुःसह और सर्वांग-दाहक क्षुधा वेदना का स्मरण करो। यह आत्मा अनन्त बार नरकों में उत्पन्न हुआ, जहाँ स्वभाव से ही इतनी अधिक भूख लगती है कि संसार का समस्त अन्न खा लेने पर भी शान्त नहीं हो सकती प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 179

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