Book Title: Prakrit Vidya Samadhi Visheshank
Author(s): Kundkund Bharti Trust
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 167
________________ हैं। इसलिए इनसे ममत्व तोड़कर सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप रूप चारों आराधनाओं द्वारा अपने जन्म को सफल करने का अवसर इस मृत्यु प्रसंग ने दिया है। इस शरीर के स्वरूप का जितना-जितना विचार किया जाए, उतना ही वैराग्य बढ़ता है क्योंकि यह तो निरन्तर जीर्णता को प्राप्त होता है, तेज, बल आदि निरन्तर घटते रहते हैं, इन्द्रियाँ शिथिल होती हैं इसलिए यह समतापूर्वक छोड़ने लायक ही है। कविवर मंगतरायजी ने बारह भावना में लिखा है “तू नित पोखै यह सूखै, ज्यों धोवै त्यौं मैली। निशदिन करे उपाय देह का, रोग दशा फैली।।" ____ यदि यह मृत्यु आकर मुझे इस देह से न निकाले तो मैं निरन्तर इस रोगमयी, जीर्ण-शीर्ण, मल-मूत्रादिपूरित देह में ही सड़ता रहूँ। इस मृत्यु ने आकर इन मलिन पुद्गल परमाणुओं के स्कन्ध में से छुड़ाकर मुझे अविनाशी अतीन्द्रिय निज चैतन्य को जानने का अवसर दिया है। यह मृत्यु ही इस दुःखमयी मनुष्य देह से छुड़ा कर स्वर्ग-मोक्ष सम्पदा का लाभ कराती है। ___ अनुकूल-प्रतिकूल परिग्रह सामग्री भी जो पुण्य-पापोदय से हमें मिली है, वह भी परभव में साथ नहीं जाती। वास्तव में तो इस भव में भी सदैव साथ नहीं निभाती है। ये सब सामग्री तो पुण्य-पाप उदय की गुलाम हैं। इन सामग्रियों को अपने अनुकूल व स्थायी रखने की चाह में मैं अपने स्थायी आनन्दधाम को विस्मृत ही करता रहा हूँ इसलिए ये भी मेरे लिए प्रीतिकर नहीं रह जाती हैं। ___ जो परभव में भी मेरे साथ चलें, ऐसे संगी साथी ही मेरे विचारने लायक, 'अपनाने लायक रह जाते हैं और ऐसे तो हमारे हितकारी ज्ञान-दर्शनादि स्वभाव ही हैं जिन्हें हम व्रत, संयम, दशलक्षण धर्म, षोडशकारण भावना, बारह भावना आदि भाकर इस जीव को उत्तम गति की प्राप्ति में सहयोगी बना सकते हैं। पूर्वकाल में अनेक महापुरुष-महान धैर्य के धनी सुकुमाल मुनिराज, सुकौशल मुनिराज, गजकुमार मुनिराज, सनत्कुमार मुनिराज, समन्तभद्र मुनिराज, श्रीदत्त मुनिराज, वृषभसेन मुनिराज, अभयघोष मुनिराज, अभिनन्दन मुनिराज, पाँचों पाण्डव मुनिराज, अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनिराज, और तो और स्वयं तीर्थंकर प्रकृतिधारी पार्श्वनाथ मुनिराज आदि के जीवन में आयीं विकट से विकट परिस्थितियाँ हमें इस ‘जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम्' से परिचित कराकर विरक्ति अवधारण के लिए प्रेरित करती हैं। बड़े-बड़े तीर्थंकरादि महापुरुषों पर अनेक व्याधियाँ, उपसर्ग आदि आये। उस समय उन्होंने समताभाव धारण कर देह के वियोग को ज्ञाता-द्रष्टा रहकर विरक्तचित्त होते हुए परमसिद्धि निर्वाण को पाया है। हमारे ऊपर तो कौन-सा इतना बड़ा पापोदय आया है जो हम धैर्य छोड़कर प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 165

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