________________ सम्पूर्ण आलोचना किये बिना समाधि ठीक नहीं होती इसलिये आलोचना करने के पूर्व निर्यापकाचार्य क्षपक को समझाते हैं कि जैसे पैर आदि में लगा हुआ काँटा मनुष्य को दुःख देता है और काँटे के निकल जाने पर सुख का अनुभव होता है, वैसे ही व्रतसंयम आदि में लगे हुए दोषों को दूर न करने वाला साधक माया, मिथ्या और निदान रूपी शल्य के कारण दुःखी होता है और इनकी आलोचना कर सुखी होता है। दूसरों की वञ्चना करने का नाम माया, विपरीताभिनिवेश का नाम मिथ्या और संसार के भोगों की इच्छा का नाम निदान शल्य है। ये तीनों शल्य संसार निमित्तक हैं। अतः आपको परीषहों की सेना को अंगीकार करते हुए समाधि धारण करनी चाहिए। पाँच इन्द्रियों के विषय पर विजय प्राप्त करनी चाहिए और क्रोधादि चारों कषायों का क्षमा आदि के द्वारा निग्रह करना चाहिए। सम्पूर्ण जीवन में किए गए तप, व्रत और संयम आदि का अन्तिम, फल सल्लेखना है और सल्लेखना की सफलता निर्दोष आलोचना पर निर्भर है, अतः आपको सर्व दोषों का परिहार करते हुए निर्दोष आलोचना करनी चाहिए। तत्पश्चात् निर्यापकाचार्य की हितकारी शिक्षा को ग्रहण कर साधक को अरिहन्त सिद्ध परमेष्ठियों की प्रतिमाओं के समक्ष अथवा इनके मन्दिरों में, पर्वतादिकों पर समुद्र के समीप, कमल युक्त सरोवरों के समीप, क्षीर वृक्षों एवं पत्र-पुष्प और फलों से युक्त वृक्षों के समीप, उद्यान, वन, बागों से स्थित प्रशस्त एवं सुन्दर स्थानों पर मन-वचन-काय की सरलतापूर्वक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र, पाँच महाव्रत आदि 28 मूलगुणों व उत्तर गुणों में लगे हुए अतिचारों की आलोचना करके अपने हृदय को निर्मल बना लेना चाहिए। तत्पश्चात् निर्यापकाचार्य साधक को सम्बोधित करते हुए समझाते हैं कि मोक्षमार्ग में पग रखने के इच्छुक सर्वप्रथम मिथ्यात्व का ही त्याग करते हैं, किन्तु 'अविद्याभ्याससंस्कारैर्वशं क्षिप्यते मनः' अर्थात् अनादिकाल से अविद्यामिथ्यात्व आदि के (अभ्यास के) संस्कारों द्वारा मन अवश होता हुआ चंचल बना रहता है। जैसे चिरकाल से बिल में निवास करने वाला सर्प निवारण करने पर भी बिल में ही प्रवेश करता है, रोकने पर भी नहीं रुकता, उसी प्रकार संसारी जीवों के हृदय रूपी बिल में अनादि काल से निवास करने वाला मिथ्यात्व रूपी सर्प बारम्बार रोकने पर भी नहीं रुकता, प्रवेश कर ही जाता है, अतः अव्रती हो या व्रती श्रावक हो या मुनीश्वर हो अथवा क्षपक हो, सभी को मिथ्यात्व के अभाव की ओर सम्यक्त्व की दृढ़ता की भावना निरन्तर करनी चाहिए। ___ तीनों लोकों में और तीनों कालों में मिथ्यात्व रूपी महाशत्रु के द्वारा जो दुःख दिया जाता है, वैसा दुःख अग्नि, विष एवं कृष्ण सर्प आदि किसी के द्वारा भी नहीं दिया जाता, क्योंकि अग्नि आदि पदार्थ तो एक ही भव में दुःख देते हैं, जबकि 17411 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004