________________ मूलाचार में मरण के तीन भेद बतलाये गये हैं- 1. बाल मरण 2. बालपण्डित मरण 3. पण्डित मरण / अन्य ग्रन्थों में बालबाल मरण, पण्डितपण्डित मरण के भेद से पाँच प्रकार के भी मरण कहे गये हैं। उनमें से बालबाल मरण मिथ्यादृष्टि के होता है। असंयमी सम्यग्दृष्टि के बाल मरण, संयतासंयत के बालपण्डित मरण, पण्डित मरण संयमी मुनि के और पण्डितपण्डित मरण केवली के होता है। “भत्तपइण्णा इंगिणि पाउवग्गणाणि जाणि मरणाणि। __ अण्णेवि एवमादी बोधव्वा णिरवकखाणि / / " -मूलाचार मरण पर्यन्त चार प्रकार के आहार का त्याग करना निराकांक्ष अनशन तप है। उसके मुख्य तीन भेद हैं :- 1. भक्त प्रतिज्ञा 2. इंगिनी मरण 3. प्रायोपंगमन मरण। जिसमें दो से लेकर 48 तक निर्यापक मुनि, जिसकी शरीर-सेवा (वैयावृत्ति) करें तथा आप भी अपने अंगों से शरीर की टहल करे- ऐसे मुनि के आहार का त्याग यह भक्तप्रतिज्ञा है। जिसमें पर के उपकार की इच्छा न हो वह इंगिनी मरण है और जिसमें अपने और पर दोनों की अपेक्षा न हो अर्थात् जो न दूसरों से शरीर सेवा (वैयावृत्ति) करावे और न स्वयं करे वह प्रायोपगमन मरण है। कुछ लोगों का मानना है कि सल्लेखना में आत्मघात का पाप है क्योंकि भूखप्यास आदि द्वारा आत्मा को क्लेशित किया जाता है, परन्त आचार्य कहते हैं नहीं, अप्रमत्तत्वात् प्रमादाभाव (कषाय का सर्वथा अभाव) होने से / प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसेत्युक्तम् / न चास्य प्रमादयोगोऽस्ति, कुतः रागाद्यभावात् / रागद्वेषमोहादिविष्टस्य हि विषशस्त्राद्युपकरण-योगवशादात्मानं नतः स्वघातो भवति, न सल्लेखनां प्रतिपन्नस्य रागादयः सन्ति ततो न आत्मवधदोषः / प्रमाद (कषाय) के योग से दश प्रकार के प्राणों का वियोग (घात) करना हिंसा कही गई है, सो सल्लेखना में तो कषाय रंचमात्र भी नहीं है; क्योंकि सर्वथा उसमें राग-द्वेष-मोहादि का अभाव है। जो रागद्वेष-मोहादि-युक्त आत्मा (जीव) है सो विष-भक्षण, शस्त्रादि उपकरणों से स्वघात करता है। इसलिए सल्लेखना धारण करनेवाले के रागद्वेषादि न होने से आत्मघात का सर्वथा अभाव ही है। “सहगामी कृतं येन धर्मसर्वस्वमात्मनः। समाधिमरणं येन भवविध्वंसि साधितम् / / " जिसने संसार को समूल नाश करनेवाले रत्नत्रय की एकाग्रतापूर्वक प्राण त्याग करने रूप समाधिमरण को धारण किया, उसने व्यवहार और निश्चय रत्नत्रय को दूसरे भव में साथ ले जाने के लिए साथ-साथ चलनेवाला अपना सहयोगी बनाया। “अन्तक्रियाधिकरणं तपःफलं सकलदर्शिनः स्तुवते। तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यं / / " अन्तक्रिया (संन्यासमरण) जिसका आधार है उस तप के फल की सकलदर्शी 14800 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004