________________ सल्लेरखना की विधि . 6) पं. मनोहरलाल शास्त्री इस भव में मरण के समय होनेवाली सल्लेखना को बाह्य और आभ्यन्तर तप के द्वारा शरीर और कषाय को अच्छी तरह कृश (क्षीण) करने को शास्त्रों (भगवती आराधना, मूलाचारादि) में कही हुई विधि के अनुसार चतुर्गति के दुःखों से मुक्त होने वाले जीवों को अवश्य ही धारण करना चाहिए। जिसप्रकार बहुमूल्य और परिश्रम से निर्मित मन्दिर की श्री (शोभा) सुवर्ण कलश बिना शून्य कही जाती है, उसी प्रकार अनेक घोर तपश्चरणों द्वारा साधित व्रतरूप सुवर्ण-मन्दिर पर सल्लेखना रूप रत्नत्रय कलश के आरोहण बिना सब व्यर्थ कही गई है। यहाँ पर सल्लेखना के दो भेद हैं- एक काय सल्लेखना, दूसरी कषाय सल्लेखना। जिसका कोई प्रतिकार नहीं ऐसा उपसर्ग आ जाने पर, दुर्भिक्ष होने पर, जरा (बुढ़ापा) आने पर, रोग हो जाने पर, धर्म की रक्षा के अर्थ शरीर का त्याग करना गणधर देव ने सल्लेखना कही है। पूर्वजन्म-वैरी असुरादि देवकृत, दुष्ट वैरी भील चण्डालादि मनुष्य कृत तथा दुष्ट सिंह व्याघ्र गज सर्पादि तिर्यंच कृत उपसर्ग आने परं अथवा प्राणनाशक घोर वृष्टि, पवन, शीत, उष्ण, अग्नि, पाषाण आदि द्वारा उपसर्ग आने पर, दुष्ट धर्मद्रोही राजा मन्त्री इत्यादि कृत उपसर्ग आने पर, दुर्भिक्ष के समय अन्न-पानादि के मिलने पर, नेत्र-कर्णादि इन्द्रियाँ शिथिल होने पर, वृद्धावस्था में शरीर की शिथिलता होने पर तथा तीव्र असाता कर्म के उदय से ज्वर अतिसार प्यास कास कफ अग्निमन्दता रुधिर-विकार रक्तक्षय आदि प्रबल व्याधियाँ प्रतिदिन वृद्धि को होते देख धैर्य धारण कर चार प्रकार की आराधना के स्वरूप का बार-बार चिन्तवन करते हुए संसार और देह के स्वरूप की अनित्यता पर पूर्ण विचार कर संसार-परिभ्रमण से रक्षा करनेवाला जो रत्नत्रय रूप धर्म वह परलोक पर्यन्त मलिन न हो जाए- ऐसा निश्चय कर देह और भोगों से निर्मम होकर पण्डित-मरण के प्रति सोत्साह प्रयत्न करे। “तिविहं भणियं मरणं बालाणं बालपंडियाणं च। तइयं पंडियमरणं जं केवलिणो अणुमरंति।।" -मूलाचार प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 147