Book Title: Prakrit Vidya Samadhi Visheshank
Author(s): Kundkund Bharti Trust
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 151
________________ (सर्वज्ञ) भगवान प्रशंसा करते हैं। जिस तप करनेवाले को तप के फल से अन्त में संन्यास नहीं हुआ वह तप निष्फल कहा गया है। तप, व्रत, संयम करने के फल लोक में अनेक हैं। स्वर्ग में देव-अहमिन्द्रादि, मनुष्यों में चक्रवर्ती नारायण बलभद्गादि विभव सम्पन्न निरोगतादि बहुत हैं, परन्तु अन्त में समाधिमरण बिना सब व्यर्थ है। “आहारं परिहाप्य क्रमशः स्निग्धं विवर्द्धयेत्पानं। स्निग्धं च हापयित्वा खरपानं पूरयेत्क्रमशः।। ... खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या। पंचनमस्कारमनास्तनुं त्यजेत्सर्वयत्नेन।।" ___ क्रम से अपनी आयु का विचार कर देह इन्द्रियों से निर्भय होकर आहारादि के स्वाद से विरक्त होकर चिन्तवन करें। "जइ उप्पज्जइ दुक्खं तो दह्रो समावदो नरके (णिरये)। कदमं मए ण . पत्तं संसारे संसरंतेण।।" -मूलाचार यदि संन्यास के समय क्षुधादिक दुःख उत्पन्न हो तो नरक के स्वरूप का चिन्तवन करना कि जन्म-मरणरूप संसार में भ्रमण करते हुए मैंने कौन से दुःख नहीं भोगे। “संसार चक्कबालम्मि मए सवेपि पोग्गला बहुसो। . आहारिदा य परिणामिदा य ण य मे गदा तित्ती।।" - मूलाचार . संसार-चक्र में भ्रमण करते हुए मैंने दही, गुड़, शक्कर, चावल, जलादि सभी पुद्गल बहुत बार भक्षण क्रिये, तो भी मेरे तृप्ति (सन्तोष) नहीं हुई। * संसार-परिभ्रमण करते हुए इतना आहार किया कि जो एकत्रित किया जाये तो अनेक सुमेरु प्रमाण हो जाये और अनन्त जन्मों में इतना जल पिया कि यदि संग्रह किया जाये तो अगणित समुद्र भर जाये / सोचो, जब इतने अन्न और जल से तृप्ति नहीं हुई तो फिर भला व्रत सम्पन्न निकट मरण के समय थोड़े से अन्न-जल से कैसे तृप्ति हो सकती है? इस संन्यास के शुभ अवसर पर यदि आहारादि की तरफ मन चलायमान किया तो समस्त व्रत संयम धर्म बिगड़ कर संसार का पात्र बनेगा, ऐसा विचार कर धीरे-धीरे कभी उपवास, कभी.बेला, कभी तेला, कभी एक बार, कभी आहार लेता हुआ, कभी नीरस, कभी ऊनोदर; इसंप्रकार क्रम से अपनी शक्ति और आयु की स्थिति अनुसार आहार को कम करके दुग्धादि पान करे फिर दुग्धादि को छोड़कर छाछ और गरम जल को ग्रहण करे। अन्त में जलादि समस्त आहारों का त्याग कर उसकी शान्ति के लिए परम वीतराग का शरण ग्रहण कर बल और उत्साह * को प्रगट करते हुए असाता कर्म के उदय से उत्पन्न होनेवाली वेदना (क्षुधा तृषा-रोगादि) को सावधानी से आत्मा के सम्यक् स्वभाव का चिन्तवन करे। * पूर्वकाल में महावीर धीर-वीर परम तपस्वी साधुओं के ऊपर कैसे-कैसे तीव्र प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 40 149

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