________________ आदि क्रियायें करता रहेगा। क्रोध, मोह, लालच, भय, ईर्ष्या, निन्दा, घात, अपघात, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि राग-द्वेष की ही सन्तान हैं। इनके सद्भाव में नियम से हिंसा ही है। स्व और पर की आत्मा में विकृतभावों का उत्पाद होना ही हिंसा है। जहाँ हिंसा है वहाँ धर्म, ज्ञान, चारित्र, तप, वैराग्य कदापि नहीं हो सकता। ___रागादि के त्याग में ही अहिंसा, धर्म और व्रत होते हैं। जब सम्पूर्ण रागादि के अभाव में ही सल्लेखना होती है तो सल्लेखना अपघात, अधर्म कैसा? 'मरणस्यानिष्टत्वात्' यथा कोई वणिक स्वघर में अग्नि लगते देखकर कि अब मेरा घर न बच सकेगा तो वह प्रयत्नशील होकर घर में रखी हुई. अमूल्य वस्तुओं की रक्षा करने में सन्नद्ध हो जाता है। बस इसी प्रकार जब व्रती को पूर्णरूपेण यह विदित हो जाता है कि अब मेरा शरीर अधिक जीर्ण-शीर्ण हो चुका है और शीघ्र नष्ट हो जानेवाला है तो वह अपने इस क्षणिक शरीर की चिन्ता न कर अमूल्य आत्मिक गुण दर्शन-ज्ञान-चारित्र की रक्षा के लिए राग-द्वेष-मोहादि को नाश करते हैं तथा अन्तकाल के समय का मूल्य समझकर समाधिमरण लेकर चिर शान्ति प्राप्त करते हैं। ‘उभयानभिसंधानात्' / जिसप्रकार एक सन्त रागादि भाव को छोड़ता हुआ आत्मचिन्तवन में लीन होता है, वह घोर तपश्चर्या करता है, वह तो स्वयं दुःखों का आह्वान करता है। शीत, उष्ण आदि के घोर उपसर्ग उपस्थित होते हैं, किन्तु वह अप्रमत्त है। वह तो शुद्धात्म तत्त्व का अडिग खोजक सदैव अपने शुद्ध परिणामों की सम्भाल करता है। क्षणिक शरीर में उसका तनिक भी मोह नहीं होता है। यह है एक सन्त की वीतरागता में अडिग श्रद्धा -- इसप्रकार अप्रमत्त होता हुआ निर्दोष समाधिमरण करता है जो सर्वथा आत्मोपकारी है। ‘स्वंसमयविरोधात्' / जो अनात्मवादी हैं उनके मत में आत्मा का कोई अस्तित्व ही नहीं है। वे सल्लेखना को अपघात कहते हैं। यह दोष उनका स्ववचन-विरोधी है क्योंकि जब आत्मा तत्त्व का कोई अस्तित्व ही नहीं तो अपघात किसका, पर्याय परिवर्तन किसका? अन्य दर्शन वाले आत्मा को निष्क्रिय मानें और सल्लेखना को अपघात का दोष दें तो उनका कथन भी मिथ्या ही है। अपने माने हुए सिद्धान्त का विरोध करना ही है। जो आत्मा क्रिया रहित है तो फिर उसका वध कैसा, क्रिया रहित आत्मा का वंध तो होता ही नहीं। निष्क्रिय आत्मा में वध का दोष देना अनुचित है। आत्मा का वध मानने में आत्मा को सक्रिय मानना होता है। ऐसी स्वीकारता में निष्क्रिय प्रतिज्ञा भंग होती है, अतः उनके निष्क्रिय सिद्धान्त से सल्लेखना में अपघात का उपालंभ निर्दोष ठहरता है। उक्त दर्शन ने पदार्थों की व्यवस्था इसप्रकार मान रखी है जिससे उनका विरोध उनके सिद्धान्त का घातक होता है; अतः यह ध्रुव सत्य है कि सल्लेखना (समाधिमरण) आत्मरक्षा ही है, आत्महत्या नहीं। . . ** 15401 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004