________________ सल्लेखना आत्मरक्षा है, आत्महत्या नहीं 6) पं. फूलचन्द जैन बरैया यह तो ध्रुव सत्य है कि भारत सदा से आध्यात्मिक विद्या का केन्द्र बिन्दु रहा है। इसका मुख्य हेतु यही है कि यहाँ के मुमुक्षु श्रमण सन्तों ने जीवन के उद्देश्य को विनाशक जग के भोग और उपभोग की विषय-सामग्री में न देखकर इनके त्याग और आत्मसाधना में देखा। इस प्राप्य क्षणभंगुर शरीर को केवल हाड-मांस का पिंजर ही न समझा, किन्तु इसमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के दिव्य प्रकाशमयी करण्ड को प्राप्त किया। ईसी परम्परा में चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शान्तिसागर जी मुनिराज थे जिन्होंने अपनी प्रखर आध्यात्मिक विद्या के बल पर समाधिमरण किया और विश्व के समक्ष एक परम अनुपम आदर्श उपस्थित किया। यह है उनके वास्तविक मूल्य की परख / निःसन्देह पूज्यश्री ने मानव-जीवन के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त किया। यह है उनके स्वात्मानुभूतिपूर्वक सल्लेखना का सुप्रतिफल। ___ यह सैद्धान्तिक सिद्ध है कि मानव पर्याय अमूल्य पर्याय है, इसकी समानता अन्य पर्याय नहीं कर सकतीं, यह महान पुण्यकर्म के उदय से प्राप्त होती है, इसको देवदुर्लभ भी कहें तो कोई अनुचित न होगा। इस पर्याय में ही दुःख की अन्तिम अवस्था की निवृत्ति हो सकती है, अन्य में नहीं- यह है इसकी विशेषता तथा अनुपमता। यों तो जीव सदैव अनेक बार इस संसार में जन्म-मरण करता रहा है और करता ही रहेगा, किन्तु बुद्धि तो इसी में है कि इस महान् दुर्लभ मानव शरीर को पाकर इस मरण के दुःख से छुटकारा हो। मृत्यु कब आ जाये -इसका कोई निश्चित समय नहीं. अतः इस पर्याय को सफल बनाने के लिए सर्वदा कठोर व्रत, तप आदि की ओर सन्मुख होना चाहिए। आगमानुसार मरण के समय सल्लेखनापूर्वक प्राणों का उत्सर्ग करें, यह जीवन के कल्याण और मुक्ति का उत्कृष्ट साधन सिद्धान्त में लिखा है- 'मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता' जब यह भलीप्रकार विदित हो जाये कि मरण-काल आ ही चुका है तो उस समय का यह मुख्य कर्तव्य है कि श्रावक निःशल्य होकर निःकषाय भावों से, मरने-जीने की, मित्र-अनुराग, सुख-प्राप्ति और निदान की कांक्षा रहित होकर प्राणों को छोड़े। प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 151