Book Title: Prakrit Vidya Samadhi Visheshank
Author(s): Kundkund Bharti Trust
Publisher: Kundkund Bharti Trust

Previous | Next

Page 148
________________ अपने चारित्र-साधन के लिए अयोग्य समझता है तो उसे पेंशन देकर दूसरे योग्य नौकर (शरीर) का प्रबन्ध करता है। इतनी उदात्त भूमिका पर स्थित साधक कभी 'कायर नहीं हो सकता, वह तो परम शूर, आत्मविजयी मृत्युंजयी है। आत्मघात (विष खाकर, तालाब कुएँ आदि में डूबकर, स्वयं फाँसी लगाकर या शस्त्रास्त्र से अपनी जीवन-लीला समाप्त करना), सती-प्रथा (मृत पति के साथ चिता में जल जाना), आमरण अनशन (अपनी किसी माँग की पूर्ति के लिए आहार त्याग करना मरण पर्यंत) आदि समाधिमरण की कोटि में नहीं आ सकते। समाधिमरण और आत्मघात में आकाश-पाताल, कांच-हीरा. प्रकाश-अन्धकार, दिन. रात और 3-6 के अंक की तरह महान् अन्तर है। ये कषायों की तीव्रता से, स्वार्थ की भावना से कलुषित हृदय से किए जाते हैं, जबकि समाधिमरण शान्त परिणामों से विवेकपूर्वक बिना किसी वांछा के किया जाता है। - रे मन समुन्दर में लहरें न उतनी .... अरे मन समुन्दर में लहरें न उतनी, तेरे मन में जितनी उठी कामनाएँ। भला कामनाओं का क्या है ठिकाना, कभी एक जाए कभी चार आएँ।। नई चाह जब-जब कभी द्वार आयी, भली आदतों के चरण डगमगाए। ये आँधी-सी बन साथ तूफान लायी, अगर जाती बरसाती बोझिल घटाएँ।। ये ठगिया है नागिन-सी विष की भरी हैं, डसा इसका पानी भी न माँग पाए। अरे मन समुन्दर में लहरें न उतनी, तेरे मन में जितनी उठी कामनाएँ।। कहाँ दौड़ते हो, तनिक तो विचारो, क्या छाया भी हाथों किसी के है आयी। जितना पकड़ने को दौड़ोगे इसको, ये उतनी ही दूरी पे देगी दिखाई।। हविश छोड़ इसकी तनिक मुँह तो मोड़ो, ये पीछे चलेगी बिना ही बुलाए। अरे मन समुन्दर में लहरें न उतनी, तेरे मन में जितनी उठी कामनाएँ।। न जाने कहाँ मन चले कारवाँ का, कहाँ दिन उगेगा कहाँ शाम होगी। इसके फरेबों में हरगिज़ न आना, तेरी हस्ति सचमुच ही बदनाम होगी। इसी राह से इसकी दुनिया मिटेगी, जहाँ ये कहे तू वहाँ पै न जाए। अरे मन समुन्दर में लहरें न उतनी, तेरे मन में जितनी उठी कामनाएँ।। अरे तू प्रभु था, न साथी ये होतीं, कि पतझड़ में तूने बहारें लुटा दीं। तू अनमोल हीरा लगी इतनी कालिख, कि अनजान बन के कीमत घटा दी।। घिसटता रहा बनके पंगु अभी तक, तुझे पाँव अपने हिलाने न आए। अरे मन समुन्दर में लहरें न उतनी, तेरे मन में जितनी उठी कामनाएँ।। 146 00 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004

Loading...

Page Navigation
1 ... 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224