________________ चाहिए। भारतीय संस्कृति में जो अन्तक्रिया पर इतना महत्त्व दिया गया है, उसमें वैज्ञानिक रहस्य है। इससे भारतीय महर्षियों के आत्म तत्त्वज्ञान की पराकाष्ठा जानी जाती है। मृत्यु के समय अगर आत्मा कषायों से सचिक्कण (चीकनी) नहीं होती तो अनायास शरीर त्याग कर देती है और उसे मारणांतिक संक्लेश भी विशेष नहीं होता, उसका मानसिक सन्तुलन ठीक रहता है जिससे स्वेच्छानुसार सद्गति प्राप्त करने में वह समर्थ होती है, और जब सद्गति प्राप्त हो जाती है तो पूर्वोपार्जित दुष्कर्म भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाते, और अगर अन्त समय में परिणाम कलुषित हो जाते हैं तो दुर्गति प्राप्त होती है जिसमें पूर्वोपार्जित शुभ कर्मों को भोगने का अवसर ही नहीं मिलता। इसतरह सारा काता-पींदा कपास हो जाता है और दुर्गति की परम्परा बढ़ जाती है। इससे जाना जा सकता है कि समाधिमरण की जीवन में कितनी महत्ता है। तपे हुए तप; पालन किए हुए व्रत और पढ़े हुए शास्त्रों का फल समाधिमरण में ही है- बिना समाधिमरण ये वृथा हैं। यहाँ यह शंका नहीं करनी चाहिए कि जब समाधि-मरण से सब कुछ होता है तो क्यों जप-तप-चारित्र की आफत मोल ली जाय, मरण-समय समाधि ग्रहण कर लेंगे परन्तु ऐसा विचारना ठीक नहीं, क्योंकि सारी जिन्दगी तप और चारित्र काय तथा कषाय के कृश करने का अभ्यास इसीलिए किया जाता है कि अन्त समय में परिणाम निर्मल रहें और समाधि ग्रहण करने में सहूलियत रहे। सम्भवतः इसीलिए कुन्दकुन्द आचार्य ने सल्लेखना को शिक्षाव्रत में स्थान देने की दूरदर्शिता की है। समाधिमरण और तपःचारित्र में परस्पर कार्य-कारण रूपता है। जब उपसर्ग और अकाल मृत्यु का अवसर आ उपस्थित हो; यथा- सिंहादि क्रूर जन्तुओं का अचानक आक्रमण, सोते हुए घर में भयंकर अग्नि लग जाना, महावन में रास्ता भूल जाना, बीच समुद्र में तूफान से नाव डूबना, विषधर सर्प का काट खाना आदि, तब पूर्वकृत चारित्र का अभ्यास ही काम आता है। सारी जिन्दगी चारित्र में बितानेवाला अगर अन्त समय में असावधान होकर अपने आत्मधर्म से विमुख हो जाये तो उसका दोष तपः चारित्र पर नहीं है। यह तो उसके पुरुषार्थ की हीनता और अभ्यास की कमी है या बुद्धि विकार है। इसे ही तो ‘विनाशकाले विपरीतबुद्धिः' कहते हैं। ___ समाधिमरण का इच्छुक मृत्यु से भयभीत नहीं होता। वह अच्छी तरह समझता हैं कि मरण आत्मा का नाश नहीं है, मरण तो दूसरा जन्म धारण करने को कहते हैं। वह मृत्यु को महोत्सव समझता है। इसे आत्मा का शरीर के साथ विवाह समझता है। शरीर का शरीर के साथ विवाह तो लौकिक है, वह इसे अलौकिक विवाह समझता है और इसतरह मृत्यु का सहर्ष आलिंगन करता है। तेलहीन दीप, दग्ध रज्जु तथा वृक्ष के सूखे हुए पत्ते की तरह जीर्ण और शिथिल शरीररूपी नौकर को जब वह प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 10 145