________________ जैनसंघ में सल्लेखना का इतिवृत्त 2 डॉ. कामताप्रसाद जैन जैनधर्म मानव को जीवन का सच्चा मार्ग बताता है। यह वह आत्मविज्ञाम है जो मानव को सफल जीवन बिताने का मार्ग सुझाता है। मानव अपना हित साधे और सबको आत्महित साधने में सहायक हो, जैन का यह मार्ग है। जीव परस्पर एक दूसरे का उपकार करे, यह उनका नैसर्गिक कर्त्तव्य है। और सच्चा उपकार साथी को सम्यकदृष्टि प्रदान करना है। श्रद्धा को सच्चे ज्ञान से रंग देना है। तब मानव सब प्राणियों में अपने ही समान आत्मा को देखता है और उनके साथ प्रेम का व्यवहार करता है। नश्वर शरीर की सुविधा के लिए वह किसी को कष्ट नहीं देता। स्वयं आत्मोत्थान में लीन रहकर जीवन सफल बनाता है- जो अपने आत्मज्ञान को विकसित करके अलौकिक आध्यात्मिक शक्तिं को जागृत करता है, उसको ऐहिक ऐश्वर्य तो ब्याज में मिल जाता है। उसके चहुँ ओर प्राणी सुख से जीते और आनन्द भोगते हैं। ___ इसप्रकार का सफल जीवन जो बिता लेता है उसके जीवन की अन्तिम घड़ियाँ भी स्वर्णिम होती हैं। वह जीना जानता है तो मरना भी। मरना तो हर एक को है, कातर की तरह रो-रोकर वह मरते हैं जो अपने आत्मस्वरूप-से बेसुध हैं; परन्तु जो अन्तर्द्रष्टा हैं वे एक वीर योद्धा की तरह मौत के पिशाच से जूझते और विजयी होकर महाप्रयाण करते हैं। इस वीर-मरण अथवा पण्डित-मरण का नाम सल्लेखना है। मृत्यु के सम्मुख आ उपस्थित होने पर एक वीर की मौत मरने का पाठ सल्लेखना पढ़ाता है। यही उसकी विशेषता है। जैन संघ में वीरों की यह वृत्ति बहुत पुरानी है, वृषभदेव ने इसका पहला पाठ लोक को सिखाया था। सल्लेखना का ज्वलन्त उदाहरण __ आज इस कलिकाल में सल्लेखना का साक्षात् रूप लोक ने तपोनिधि सम्यक्त्वनिलय योगिराट् चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर जी महाराज के ज्वलन्त जीवन में देखा। आचार्यश्री शान्ति के सिन्धु थे। उनकी सल्लेखना महान् थी। उन्होंने संघ की परम्परा को मूर्तमान बना दिया। 126 00 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004