________________ ___ आज पंचमकाल में उत्तम संहनन नहीं होते, अतः इंगिनी और प्रायोपगमन संन्यास की प्राप्ति अति दुर्लभ है, मात्र भक्तप्रत्याख्यान साध्य है। आचार्यों ने इसका उत्कृष्ट काल 12 वर्ष और जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है। मध्यमकाल के अनेक भेद हैं। इस प्रकार उक्त कारण कदाचित् उपस्थित हो जायें तो शक्त्यनुसार यम या नियम सल्लेखना धारण करना चाहिए। आचार्य दुर्गदेव ने अरिष्टसमुच्चय ग्रन्थ में निमित्त ज्ञान से अपनी अल्पायु का ज्ञान होने पर भी सल्लेखना धारण करने की बात कही है। मानव की मृत्यु से पूर्व उसके शरीर में कुछ ऐसे लक्षण प्रकट होते हैं, जिन पर ध्यान देने से आयु का निर्णय किया जा सकता है। . “पिण्डत्थं च पयत्थं रूवत्थं होई तं पि तिवि अप्पं / जीवस्स मरण काले रिटुं णत्थि त्ति संदेहो।।" अर्थात् इसमें सन्देह नहीं कि मरण समय में पिण्डस्थ (शारीरिक) पदस्थ (सूर्य, चन्द्र आदि आकाशीय ग्रहों के दर्शनों में विकृति) और रूपस्थ (निजच्छाया, परच्छाया आदि अंगविहीन दर्शन) इन तीन प्रकार के अरिष्टों का आविर्भाव होता है। इन अरिष्टों का विस्तार से वर्णन रिष्टसमुच्चय में किया गया है। इन अरिष्टों से अपनी आयु का परिज्ञान कर भव्यात्माओं को अवश्य सल्लेखना धारण करनी चाहिए। एक बात और कुछ लोग सल्लेखना को आत्मघात जैसे दूषित शब्दों से लांछित करते हैं। सल्लेखना आत्मघात नहीं है। दोनों में महान् अन्तर है। आत्मघात जब भी किया जाता है, वह तीव्र क्रोध के कारण ही किया जाता है, जबकि सल्लेखना में कषायों का अभाव विशेषतः सर्वप्रथम क्रोध-कषाय का ही अभाव किया जाता है क्योंकि क्रोध तो कषायों का सेनापति है। आत्मघात घनीभूत दुःख या पीड़ा में किया जाता है, जबकि सल्लेखना स्वयं इच्छा से सुखपूर्वक ली जाती है। वैदिक/अन्य धर्मों में भी इसका विधान किया गया है और वहाँ सल्लेखना को इच्छामरण कहा गया है। आत्मघात में एक बार में ही देह का घात किया जाता है, जबकि सल्लेखना में धीरे-धीरे देह को कृश किया जाता है। आत्मघात पाप है जबकि सल्लेखना एक धार्मिक क्रिया। आत्मघात अनन्त संसार का कारण है जबकि सल्लेखना सीधे या परम्परया मोक्ष का कारण है। आत्मघात कभी भी किया जा सकता है, जबकि सल्लेखना उपसर्ग आदि कारणों के उपस्थित होने पर ली जाती है। सल्लेखना लेने वाला क्षपक क्रोधादि कषायों का शमन करता हुआ भावना भाता है कि “सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् / माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ! / / " . आइए, हम भी ऐसी भावना आज से ही भायें और कषायों को कृश कर आत्मकल्याण की ओर अग्रसर हों। प्राकृतविद्या+जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 125