________________ 12000 का शासन कर रहे थे- नागरखण्ड सत्तर के नाल गावुण्ड के पद को धारण करने वाले सत्तरस नागार्जुन के मर जाने पर राजा ने जक्कियब्वे को आवुतवूर और नांगरखण्ड सत्तर दे दिया। जक्कियव्वे ने भी जक्कालि में मन्दिर के लिए 4 मत्तल चावल की भूमि दी। एक बीमारी के समय उसने शक सं. 840 बहुधान्यवर्ष में पूर्ण श्रद्धा से बसदि में आकर समाधिमरण ले लिया / ___गोणी वीडु परगना के अन्तर्गत अंगडि में बसदि के पास के पाषाण पर उत्कीर्ण लेख में कहा गया है कि द्रविलसंघ, कोण्डकुन्दान्वय तथा पुस्तकगच्छ के त्रिकालमौनि-भट्टारक के शिष्य श्रीमद् ईखि वेडेडंग के गुरु विमलचन्द्र पण्डित देव ने संन्यासविधि से मरण कर मुक्ति प्राप्त की। विमलचन्द्र पण्डित देव की गृहस्थ शिष्या हवुम्बे की छोटी बहिन शान्तियब्बे ने अपने गुरु के स्वर्गवास के उपलक्ष्य में स्मारक खड़ा किया। नल्लूर हितुगट्टनाड) में तीतरमाड के घर के पास सर्वे (Survey} 117 नं. के तालाब के बाँध पर एक पाषाण-लेख अंकित है, जिसमें कहा गया है कि भय के साथ यह सुनकर कि दायतिमगति परलोक की इच्छा से मृत्यु को प्राप्त हुई तथा इस बात को न सहन कर अपने सम्बन्धियों की सम्मति लेकर जक्कियव्वे ने जो चन्दियव्वे-गावुण्डिकी मन्त्रकि और कस्तूरी भट्टार की श्राविका थी, संन्यसन विधि की और स्वर्गगत हुई। उसका पति श्रावक एडय्य था। __कणवे में कल्लु बसदि में एक समाधि पाषाण पर अंकित लेख (वर्ष शुक्ल 1190 ई.} में जिनशासन की प्रशंसा करते हुए कहा है कि प्रधान मन्त्री होय्सल देव के खजांची चन्दिमय्य की पत्नी बोप्पव्वे ने उक्त तिथि को} संन्यसन करते हुए समाधिपूर्वक स्वर्ग प्राप्त किया। - कणवे में एक दूसरे समाधि-पाषाण पर लेख उत्कीर्ण है, जिसके अनुसार देशयगण और पुस्तक गच्छ, -लोकियब्बे बसदि की तलताल बसदि के मलधारिदेव थे, कठोर तप से उनका सारा शरीर धूल-धूसरित हो रहा था, लोहे के समान बहुत समय तक उस पर जंग-सी चढ़ी हुई थी और वल्मीक के समान हो गया था। उनके शिष्य शुभचन्द्र देव ने समाधि के बल से स्वर्ग प्राप्त किया। हुम्मच की पंचबसदि के प्रांगण में दक्षिण की ओर के एक पाषाण पर सम्भवतः 1098 ई. के एक शिलालेख में पार्श्वसेन भट्टारक के समाधिविधि द्वारा स्वर्गप्राप्ति का उल्लेख है। मत्तावार में पार्श्वनाथ बसदि के प्रांगण में एक पाषाण पर लेख है, जिसमें कहा गया है कि शक 1038 {1116 ई.} में मायन का पुत्र और मावण्ण का शिष्य संन्यसन धारण कर मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसका यह स्मारक-है। . 136 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004