________________ उपर्युक्त शिलालेखों से ज्ञात होता है कि सातवीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी तक सल्लेखना का काफी प्रचार था। सल्लेखनाधारी मुनि, आर्यिका, श्रांवक और श्राविका सभी होते थे। शिलालेखों में साधारण गृहस्थों द्वारा भी सल्लेखना धारण करने के उदाहरण विपुल हैं। मुनि का तो सारा जीवन ही समाधि की साधना में रत रहता है। सल्लेखना के लिए समाधि, सल्लेखना और संन्यसन इन तीन शब्दों का प्रयोग प्रायः हुआ है। कहीं-कहीं व्रत, उपवास व अनशन द्वारा मरण अथवा स्वर्गारोहण कहा है। एक मुनि ने कटवप्र पर 108 वर्ष तक तपश्चरण कर समाधिमरण किया। सल्लेखना सम्बन्धी इन अभिलेखों. में प्राचीन भारतीय इतिहास सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण सामग्री है। इनमें आचार्यों के संघ गण, गच्छ, अन्वय, आम्नाय आदि के उल्लेख हैं। अनेक शिलालेखों में तत्कालीन राजा, सामन्त, सेनापति, महामात्य आदि का उल्लेख हुआ है। कई शिलालेख आचार्यों की परम्परा जानने के लिए उपयोगी हैं। कई में महत्त्वपूर्ण घटनाओं के उल्लेख हैं। इस प्रकार इन अभिलेखों में सल्लेखना के प्रसंग महत्त्वपूर्ण हैं। इनसे जैनधर्म और संस्कृति पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। सन्दर्भ :1. जैन शिलालेख संग्रह, भाग 1, पृष्ठ 4 2. जैन शिलालेख संग्रह, भाग 1, पृष्ठ 54-55 3. जैन शिलालेख संग्रह, भाग 1, (प्रस्तावना, पृष्ठ 61-62) 4. जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2, पृष्ठ 164 5. इस शिलालेख में यापनीय संघ कुमुदिगण का उल्लेख है। 6. यहाँ के तीसरे निषधिलेख में सूरस्थ गण-चित्रकूटान्वय का उल्लेख है। 7. यहाँ के शिलालेख में मूलसंघ सरस्वती गच्छ, बलात्कार गण तथा कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख है। दुनिया एक साधु के पास चार सज्जन आये और उन्हें दुनिया का अनुभव बताया। पहला- अरे दुनिया बड़ी मक्कार है, हरएक किसी-न-किसी तरह के छल से अपना उल्लू सीधा करने में लगा हुआ है। दूसरा- क्या कहें ! आज दुनिया में इतनी अनीति बढ़ गयी है कि किसी का भी विश्वास नहीं किया जा सकता। तीसरा- दुनिया में सब स्वार्थ के सगे हैं। चौथा- इस दुनिया में सुख व समाधान बिलकुल नहीं। सबकी सुनकर साधु बोले- तो चलो, हम सब संन्यास ले लें। ऐसी दुनिया में लगे रहने से क्या फायदा? आगे साधु क्या कहते हैंयह सुनने के लिए चारों में से एक भी नहीं ठहरा। 14200 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004