________________ भी उसे पूरी तरह वैधानिक रूप नहीं मिल सका। ब्रिटेन में फरवरी 14, 2003 को षड्वर्षीय Cloned Sheep Dolly को फेफड़ों में खराबी आ जाने के कारण * Euthanized Death से समाप्त कर दिया गया। इसका तात्पर्य यही है कि अब असहनीय और ला-इलाज हो जाने पर करुणा के आधार पर प्राणी को मृत्यु का वरण कराया जा सकता है। महात्मा गांधी ने भी एक बछड़े को इसी आधार पर मारने की आज्ञा दी थी जिसकी काफी आलोचना की गई थी। आत्महत्या (Suicide) को वैधानिक स्वीकृति न मिलने की पृष्ठभूमि में मूल भावना यह है कि व्यक्ति का समाज के प्रति एक विशिष्ट कर्त्तव्य हुआ करता है जो आत्महत्या से पतित हो जाता है। व्यक्ति पर समाज का अधिकार होता है। वह व्यक्ति को मारने में सहयोग नहीं दे सकती। इसके अतिरिक्त धार्मिक क्षेत्र में आत्महत्या को ईश्वर के विपरीत माना गया। किन्हीं विशेष परिस्थितियों में उसे स्वीकारा जा सकता है, पर वैधानिकता नहीं दी जा सकती। इनके अतिरिक्त आत्म स्वातन्त्रय; कारुणिक मृत्यु, चिकित्सक की सहायता से प्राप्त मृत्यु आदि तर्कों ने भी जीवन की गुणवत्ता को कम नहीं किया। उसे अपराध की श्रेणी से मुक्त नहीं किया जा सका। नैतिकता की दृष्टि से भी इसे उचित नहीं कहा जा सका। ईसाई, इस्लाम, वैदिक, जैन, बौद्ध आदि कोई भी धर्म आत्महत्या की स्वीकृति नहीं देता। भारतीय संविधान में भी आत्महत्या को किसी भी स्थिति में वैधानिक नहीं माना गया। उसका Article 21 और Section 309 स्पष्ट रूप से आत्महत्या को गैरकानूनी मानता है। धारा 14 और 306 भी इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है। इसके बावजूद सती प्रथा सदियों से प्रचलित रही ही है। वैदिक धर्म यद्यपि आत्महत्या के पक्ष में नही है, फिर भी जहाँ कहीं वह उदारता के पक्ष में भी दिखाई देता है। जैनधर्म में इस उदारता को सल्लेखना का रूप दिया गया है। शारीरिक अक्षमता और रोग की गम्भीरता जब गहरी हो जाती है तो पूर्ण निरासक्त होकर, अहिंसक भाव से धार्मिक आराधना करते हुए व्यक्ति को जीवन-मुक्त होने को वैधानिक मानता है जैन धर्म / संविधान में भी इस प्रकार की धार्मिक मृत्यु को असंवैधानिक नहीं बताया गया। अमर उजाला, आगरा, अंक 2 अगस्त 2004 में श्री गुलाबचन्द के प्रकरण का सन्दर्भ प्रकाशित हुआ था और उस समय भी इस विषय पर काफी मन्थन हुआ। समान अधिकार और जीने का अधिकार के सन्दर्भ में 1974 में सर्वोच्च न्यायालय ने मरने के अधिकार को भी स्वीकार किया पर इस परिधि से आत्महत्या जैसा जघन्य अपराध बाहर रहा। इससे स्पष्ट है कि सल्लेखना एक आध्यात्मिक मृत्यु का वरण है, जबकि इच्छा मृत्यु या आत्महत्या एक अपराध है। 11600 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004