________________ सल्लेखना क्यों? और कब? E डॉ. कपूरचन्द जैन _ 'जातस्य ही ध्रुवो मृत्युर्बुवं जन्म मृतस्य च' तथा 'मरणं प्रकृतिः शरीरीणाम्' अर्थात् जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अवश्य है और जिसकी मृत्यु है उसका जन्म भी अवश्यम्भावी है तथा मृत्यु देहधारियों का स्वभाव है। ऐसी कहावतें भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से चली आ रही हैं। वस्तुतः ये कहावतें न होकर जीवन की सच्चाई को प्रत्यक्ष दिखाने वाले वाक्य हैं। क्या कोई सदा इस पृथ्वी पर रह सका है? सचमुच दुनिया एक रंगमंच है जहाँ जीवरूपी पात्र आता है और अपना अभिनय करके चला जाता है। परन्तु क्या आवागमन/परिभ्रमण की यह सरणि सदा चलती रहेगी, जीव यों ही आता-जाता रहेगा, फिर जन्म, फिर मृत्यु, इस जीवन का कोई अन्त है? इस जीवन से छुटकारा है? सुख-दुःख की इस परम्परा का कोई अन्त है? कोई नाश है, कोई स्थान ऐसा है जहाँ से लौटकर नहीं आना है? शाश्वत/ अविनाशी पद है कोई? यह चिन्तन भी भारतीय और केवल भारतीय रहा है। ___ अन्य धर्मों, दर्शनों ने मृत्यु को भय की संज्ञा दी है, किन्तु जैनदर्शन ने मृत्यु भी एक कला बताई है। उसे भी एक महोत्सव कहा है। सुनने में यह भले ही अटपटा लगे, किन्तु है सत्य / जैसे हम किसी उत्सव की पूर्व से ही तैयारी/योजना में लग जाते हैं, वैसे ही मृत्यु की तैयारी भी यथासमय प्रारम्भ कर देनी चाहिए। मृत्यु महोत्सव और इसकी तैयारी को हम सल्लेखना कह सकते हैं। यह बात भी विचारणीय है कि यदि हम मृत्यु से भय करें, मृत्यु के समय नाना प्रकार के क्रन्दन/रुदन/आक्रोश/अश्रुपात आदि करें तो क्या मृत्यु हमें छोड़ देगी? नहीं, उल्टे परिणाम निरन्तर खोटे होते जायेंगे, भय से भय बढ़ता जायेगा और अशुभ कर्मों का निरन्तर आस्रव / बन्ध होने से आगे की गति बिगड़ जायेगी, फिर क्यों न हम समतापूर्वक देह का विसर्जन करें। जैसे देह का अर्जन - शृंगार किया उसी प्रकार विसर्जन करने में दुःख कैसा? हम एक शरीर पर्याय को छोड़कर दूसरी पर्याय में ही तो जा रहे हैं, और दिगम्बर अवस्था में यदि समाधिमरण हो रहा है तो फिर तो सम्भव है इस जन्म-मरण की परम्परा से ही छुटकारा पा रहे हों। . 122 00 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004