________________ अवधारणा तो अनुभवगम्य है ही, परन्तु उस जन्म या पर्याय को किस प्रकार ऊर्ध्वगामी दिशा प्रदान की जाय, जिससे जीव जो तत्त्वतः अविनाशी-ध्रुव और चैतन्य स्वरूप है वह जीवन-मरण से मुक्त हो जाय, यही जैनधर्म-दर्शन का प्रतिपाद्य और जीवन की चर्या बन गई, जिसका निरूपण श्रावकाचार और श्रमणाचार में पग-पग पर दृष्टिगोचर होता है। श्रावक के प्रथम कर्त्तव्य देवपूजा में नित्यप्रति यह भावना भायी जाती है। बोहिलाहो सुगईगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं। इसी प्रकार मुनिचर्या का परम ध्येय भी बोधिलाभ एवं समाधिमरण है। भगवती आराधना में मुख्यतः पाँच प्रकार के मरण का उल्लेख है- 1. पण्डितपण्डित मरण 2. पण्डित मरण 3. बालपण्डित मरण 4. बालमरण 5. बालबालमरण। उत्तरभेद के रूप में बालमरण के चार भेद तथा बालबालमरण के पाँच भेदों का निरूपण है। इसीप्रकार जहाँ पण्डित मरण प्रायोपगमन, भक्त प्रत्याख्यान और इंगिनीमरण के रूप में विभक्त है तो भक्त प्रत्याख्यान मरण - सविचार और अविचार के रूप में व्याख्यायित है। अविचार भक्तप्रत्याख्यान को भी निरुद्ध, निरुद्धतर और परमनिरुद्ध रूप में विभक्त किया है। निरुद्धाविचार भक्त प्रत्याख्यान प्रकाश रूप तथा अप्रकाश रूप से उल्लेखित हैं। * पण्डित पण्डित मरण - क्षीण कषाय केवली भगवान् का मरण पण्डित-पण्डित मरण कहा गया है। * पण्डित मरण - चारित्रवान् मुनियों का मरण पण्डित मरण कहलाता है। * बाल पण्डित मरण - संयमासंयमी (विरताविरत) जीव के मरण को बालपण्डित मरण संज्ञा से अभिहित किया गया है। * बालमरण - अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के मरण को बालमरण कहते हैं अथवा रत्नत्रय रहित समाधिमरण के बिना मरण होना बाल मरण है। . बाल-बालमरण - मिथ्यादृष्टि का मरण बाल-बालमरण है। श्रमण-परम्परा में मरण के भेदोपभेद का कथन करने का यही अभिप्राय है कि दुर्लभ मनुष्य पर्याय को कैसे सार्थक बनाया जाय। सिद्धान्त एवं अध्यात्म ग्रन्थों, चारों अनुयोगों का प्रतिपाद्य विषय आत्मकल्याण की ओर जीव की प्रवृत्ति को . उत्प्रेरित करना रहा है। रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र) का कथन इसी परिप्रेक्ष्य में है। मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत तत्त्वार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहा है, परन्तु इसके विपरीत जीव और शरीराश्रित मन, वचन आदि की एकरूपता का श्रद्धान मिथ्यादर्शन अथवा बहिरात्मा रूप से जाना जाता है। शरीर जो जड़ एवं पुदगल वर्गणाओं का समूह है और अचेतन धर्मी होने के कारण प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 119