________________ जैनेतर दर्शनों में सल्लेखना E डॉ. भागचन्द भास्कर मृत्यु तीन प्रकार की हो सकती है- शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक। आध्यात्मिक मृत्यु को ही जैनधर्म में सल्लेखना कहा गया है। सल्लेखना श्रावक की तृतीय अवस्था है। यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते वह विषय-वासनाओं से अनासक्त होकर शरीर को भी बन्धन रूप समझने लगता है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के समन्वित आंचरण से उसका मन संसार से विरक्त हो जाता है। उस स्थिति में यदि शरीर और इन्द्रियाँ अपना काम करना बन्द कर देती हैं तो सम्यक आचरण में बाधा उत्पन्न होती है और पराधीनता बढ़ती चली जाती है। इसलिए उससे मुक्त होने के लिए साधु अथवा श्रावक सल्लेखना (समाधिमरण) धारण करता है। आत्म साक्षात्कार के माध्यम से ही उसे प्राप्त किया जा सकता है। लगभग सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में आध्यात्मिक मृत्यु को स्वीकार किया गया है वैदिक, जैन, बौद्ध, चीनी, तिब्बती और जापानी पूर्वीय दर्शनों में उसका मूल उद्देश्य आत्मानुभूति या आत्मज्ञान प्राप्त करना रहा है और पाश्चात्य दर्शनों में आत्मा से मुक्ति प्राप्त करना अथवा पुनर्जन्म प्राप्त करना रहा है। सल्लेखना और समाधिमरण पर्यार्थक शब्द हैं। सल्लेखना का उददेश्य यही है कि साधक संसार परम्परा को दूर कर शाश्वत अभ्युदय और निःश्रेयस् की प्राप्ति करे। सल्लेखना जैसा कोई शब्द वैदिक संस्कृति में नहीं है। जैनधर्म में तो निर्विकारी साधु अथवा श्रावक के मरण को मृत्यु महोत्सव का रूप दिया गया है, जबकि अन्यत्र ऐसा कोई प्रसंग नहीं आता वस्तुतः समाधिमरण अन्तिम समय में आध्यात्मिक और पारलौकिक क्षेत्र में अपनी आत्मा को विशुद्धतम बनाने के लिए एक सुन्दर साधन है। वैदिक संस्कृति में प्रायोपवेशन, प्रायोपगमन जैसे कतिपय शब्द सल्लेखना के समानार्थक अवश्य मिलते हैं परन्तु उनमें वह विशुद्धता तथा सूक्ष्मता नहीं दिखाई देती। अधिक सम्भव यह है कि उस पर जैन संस्कृति का प्रभाव पड़ा होगा। बौद्ध संस्कृति में भी सल्लेखना से मिलता-जुलता कोई व्रत देखने में नहीं मिलता। 11200 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004