________________ इस अवस्था में साधक सावधानी और खुशी के साथ मृत्यु का स्वागत करता है। शरीर नश्वर है और उसका सूखी पत्तियों के समान नष्ट होते जाना अटल बात है। वैसे देखें तो जन्म जितना सत्य है उतनी ही मृत्यु भी सत्य है। भोगासक्त बहिर्मुखी जीव जन्म का स्वागत मिठाइयाँ बाँटकर करते हैं परन्तु मृत्यु का नाम सुनते ही डर जाते हैं। यह जीव की अज्ञानता नहीं तो और क्या है? वस्तुतः जन्म, वृद्धि, परिपुष्टता और अन्त में नाश यह जीवसृष्टि के प्राणों की प्रकृति है। जीवन का अर्थ क्या है? इस देह का भरोसा कौन दे सकता है? फिर भी अज्ञानी जीवों द्वारा नित्य संकल्प-विकल्पों के बारे में सोचना जारी है, परन्तु इस चक्र को किसी एक जगह पर रोकना आवश्यक होता है। ___ 'आत्तसारेक्षुदाहेऽपि न हि शोचन्ति मानवाः।' रस निकाले ईख की खोई जलाने पर कोई शोक नहीं करता है। एक बार वस्तु तत्त्व का आत्मसाक्षात्कार होने पर संकल्पों का परित्याग होता है। आत्मस्वरूप में स्थिरत्व आता है। ऐसा होने पर धीरे-धीरे विधिपूर्वक भोजन का त्याग करते हुए देह का विसर्जन होता है। इसी का आचार धर्म में सल्लेखना नाम है। अर्थात् इन सब प्रक्रियाओं में केवल देह-त्याग का महत्त्व नहीं है और प्रमुखता भी नहीं है। आत्मस्वरूप में अकंप (भयभीत हुए बिना) स्थिरत्व ही सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। सल्लेखना की सार्वकालिकता और सार्वजनिकता सल्लेखना के सन्दर्भ में गहराई से सोचें और सार रूप में उसके अर्थ को स्पष्ट करें तो उसे सार्वकालिक और सार्वजनिकता की कसौटी पर आँका जाना उचित है। यह विचार प्राचीनकाल या किसी विशिष्ट धर्म को मानकर अस्वीकार करना विचार की हानि है। सल्लेखना का भूत, वर्तमान, भविष्य में महत्त्व रहेगा। दूसरी बात- इसकी पुष्टि वैदिक ग्रन्थों तथा अन्य धर्मीय ग्रन्थों से भी होती है, अर्थात् यह सार्वजनिक भी है। आत्मा अमर है और देह नश्वर है। नैतिकता, मानवता, सच्चा ज्ञान और आत्मसाक्षात्कार को यह तत्त्वज्ञान पुष्टि प्रदान करता है। सर्वधर्मसमभाव के धरातल पर उतरनेवाली यह सल्लेखना संकल्पना पंथ-धर्म को भूलने की बात करती है। इसकी सार्वकालिकता और व्यापकता अबाधित है। आचार्य विनोबा भावे ने इसी सल्लेखना (मृत्यु महोत्सव) से आत्मसाक्षात्कार किया है। सल्लेखना सनातन विचार है जिसे बीसवीं सदी के मध्य में आचार्यश्री शान्तिसागरजी ने सैद्धान्तिक आचार-धर्म-क्षेत्र में प्रभावी रूप से समाज में प्रस्थापित किया। प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 111