________________ मित्रानुराग (अभीष्ट जनों के प्रति राग और शत्रुओं के प्रति द्वेष). सुखानुबन्ध (पूर्वभूत सुखों का स्मरण) तथा निदान (अगले जन्म में सल्लेखना से प्राप्तव्य फल की कामना) - इन पाँच बातों का विशेष ध्यान देना चाहिए। इन्हें ही सल्लेखना के पाँच अतिचार (दोष) कहा गया है।" प्रश्न : कर्मों को कृश (क्षीण) करने का प्रयत्न हमेशा करना चाहिए, फिर यह सल्लेखना मृत्युकाल में क्यों महत्त्वपूर्ण है? उत्तर : अन्त समय में धारण की जाने वाली सल्लेखना को मारणान्तिकी सल्लेखना कहा गया है। मृत्यु के समय धारण करने पर इसका एक विशेष महत्त्व है। जैन शास्त्रों की मान्यता है कि मरते समय जीव जिस लेश्या से युक्त होता है वह लेश्या उसके अगले भव में जाती है। सल्लेखनाधारी शुभ लेश्या वाला होता है जिससे उसके अगले भव में शुभ लेश्या होती है। सागारधर्मामृत में भी कहा गया है कि चिरकाल से आराधित धर्माचरण को यदि मरण के समय छोड़ दिया जाता है या उसकी विराधना की जाती है तो वह निष्फल हो जाता है। यदि.मरण के समय उस धर्म की आराधना करता है तो चिरकाल के उपार्जित पापों का विनाश कर देता है।" लोकोक्ति भी है- 'अन्त भला सो सब भला।' .. प्रश्न : तब तो अन्त समय में ही धर्माराधना करनी चाहिए, पहले नहीं? उत्तर : नहीं, सल्लेखना वही धारण कर सकता है जिसने जीवन पर्यन्त सल्लेखना की भावना की हो और धर्माचरण किया हो, अन्यथा मरण-समय में वह सल्लेखना नहीं कर सकता है। निरन्तर अभ्यास करने वाले भी कभीकभी चूक जाते हैं, क्योंकि उस समय शरीर-इन्द्रियाँ आदि शिथिल हो जाती हैं। अपवाद रूप में घुणाक्षर न्याय से अव्रती को भी सल्लेखना प्राप्ति कदाचित् हो सकती है।" प्रश्न : सल्लेखना-धारण करने का अधिकारी कौन है? . उत्तर : महाव्रती साधु और श्रावक (गृहस्थ) दोनों सल्लेखना धारण कर सकते हैं, परन्तु कोई-कोई व्रती ही इसे धारण कर पाते हैं।" प्रश्न : क्या सल्लेखना एक ही प्रकार की है? यदि उसके कई प्रकार हैं तो वे कौन-से हैं और उनकी क्या विधियाँ हैं? उत्तर : कषायों और भोजन का क्रमिक त्याग करते हुए कर्म और शरीर को कृश करना सभी प्रकार की सल्लेखनाओं में समान होते हुए भी अपेक्षाभेद से (स्व और पर के उपकार की अपेक्षा) तीन प्रकार की सल्लेखना है- भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनीमरण और प्रायोपगमन।। 4200 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004