________________ का चित्रण है। संथारग प्रकीर्णक में कहा गया है कि जिस प्रकार पर्वतों में मेरुपर्वत. एवं तारागणों में चन्द्र श्रेष्ठ है, उसी प्रकार सुविहित जनों के लिए संथारा श्रेष्ठ है। इसी में आगे 12 गाथाओं में संस्तारक के स्वरूप का विवेचन है। इस प्रसंग में यह बताया गया है कि कौन व्यक्ति समाधिमरण को ग्रहण कर सकता है। यह ग्रन्थ क्षपक के लाभ एवं सुख की चर्चा करता है। इसमें संथारां ग्रहण करने वाले कुछ व्यक्तियों के उल्लेख हैं। यथा- सुकोशल ऋषि, अवन्ति - सुकुमाल, कार्तिकेय, पाटलीपुत्र के चदकपुत्र ( सम्भवतः चन्द्रगुप्त ) तथा चाणक्य आदि के उल्लेख हैं। समाधिमरण का स्वरूप निरूपण करते संथारग प्रकीर्णक में कहा है कि जिसके मन, वचन और काय रूपी योग शिथिल हो गये हों, जो राग-द्वेष से रहित हो, त्रिगुप्ति से गुप्त हो, त्रिशल्य और मद से रहित हो, चारों कषायों को नष्ट करने वाला हो, चारों प्रकार की विकथाओं से सदैव दूर रहने वाला हो, पाँच महाव्रतों से युक्त हो, पाँच समितियों का पालन करने वाला हो, षनिकाय की हिंसा से विरत रहने वाला हो, सात भयों से रहित हो, आठ मदस्थानों का त्याग करने वाला हो, आठ प्रकार के कर्मो का नाश करने वाला हो, नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य गुप्तियों से गुप्त हो तथा दस प्रकार के श्रमण का पालन करता हो और सदैव अलग रहता हो, यदि वह संस्तारक पर आरूढ़ होता है तो उसका संथारा सुविशुद्ध होता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति अहंकार से मदोन्मत्त हो, गुरु के समक्ष अपने अपराधों की आलोचना नहीं करता हो, दर्शन से मलिन अर्थात् मिथ्यादृष्टि और शिथिल चारित्रवाला हो, फिर भले वह श्रमण जीवन को अंगीकार करके संस्तारक पर आरूढ़ होता हो, तो भी उसका संथारा अविशुद्ध ही होता है। इस ग्रन्थ में आपत्तिकाल में अकस्मात् समाधिमरण ग्रहण करने वाले जिन पन्द्रह व्यक्तियों के दृष्टान्त दिये गये हैं, वे ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। .. धीरता से ही मरना चाहिए "धीरेण वि मरिदव्वं णिद्धीरेण वि अवस्स मरिदव्वं / जदि दोहिं वि मरिदलं वरं हि धीरत्तणेण मरिदव्वं / / " -मूलाचार, गाथा 100 धैर्यवान को भी अवश्य मरना होगा और धैर्यरहित को भी अवश्य मरना होगा। जब दोनों को ही मरना है तो फिर धीरता से ही मरना उचित है। 980 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004