________________ उन्होंने दिया। यह अलौकिक कार्य कोई महावीर पुरुष ही कर सकता है। सल्लेखनाधारी मुनि का यह जीवनपूर्ण आविष्कार वीरता का सन्देश देता है। निर्भयतापूर्वक जीना सीखो और निर्भयतापूर्वक मरना सीखो। यही सन्देश मुनिजीवन से मिलता है। मेरे स्मरण में आचार्यश्री शान्तिसागर जी का यह वीरमरण दृढ़ होकर बैठा है। सर्वसाधारण लोग ऐसी दिव्य मृत्यु का कभी अनुभव नहीं कर सकेंगे, उनका जीवित रहना भी नगण्य और मरण भी मूल्यहीन किन्तु सल्लेखना वीरमरण है, एक उज्ज्वल तरीका है। केवल भव्यजीव ही इस राह से चल सकते हैं। प्रसन्न जीवन और प्रशान्त मृत्यु की कामना होनी चाहिए। इसीलिए धर्म का मार्ग ही सर्वथा श्रेयस्कर है। मेरे जैसा साधारण मनुष्य प्रार्थना करेगा हे मुनिवर ! हे मृत्युंजयी आचार्य ! हे धर्म का प्रतिपादन करनेवाले ज्ञानर्षि ! हम जैसे साधारण लोगों को ऊपर उठाइये। आपका जीवन और आपका मरण हमें स्फुरणदायक हो। आप जैसी वीर सल्लेखना हम नहीं धारण कर सकते किन्तु जब मृत्यु हमारा द्वार खटखटायेगी तब निराकुल होकर उसका स्वागत करने की शक्ति आप ही हमें दे सकते हैं। आपका जीवन भी प्रमुदित करता है और आपका वीरमरण भी हमें रोमहर्षित करता है। सल्लेखना का महत्त्व और मौलिकता का अभ्यास हमें भी प्रेरित करे- यही एकमात्र प्रार्थना है। कब निज गुण चन्दन महकेगा? “कब निज रूप सजा पाऊँगा, कब निज गुण चन्दन महकेगा। कब जागेगा भेद-ज्ञान, कब समकित का सावन बरसेगा।। मोह महामद की अनजाने, जाने कब पी आया प्याली। अपनाया मिथ्यात्व-मोह को, उजली चादर कर ली काली।। चिन्तामणि-सा रत्न पास है, लेकिन मेरी झोली खाली / समता के रस में अपना विष, घोल रही विषयों की व्याली / / वीतराग-विज्ञान ज्योति से, कब मेरा आँगन दमकेगा। कब निज रूप सजा पाऊँगा, कब निज गुण चन्दन महकेगा।। छ: द्रव्यों से भरे विश्व में, मैंने बस संसार बढ़ाया। पुण्य-पाप की परिभाषा में, ऐसा उलझा निकल न पाया।। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित, शिव-मारग का पुरुषार्थ न आया / गृहीत और अगृहीत पाप ने तत्त्वज्ञान से विमुख बनाया / / कब निर्ग्रन्थ मुनीश्वर बन कर मेरा ये तन मन विचरेगा। कब निज रूप सजा पाऊँगा, कब निज गुण चन्दन महकेगा।।" . 10600 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004