________________ वीर मरण : कुछ विचार ___ डॉ. निर्मलकुमार फडकुले संसार अनित्य है- यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं। यहाँ की हर वस्तु नष्ट होने वाली है। चक्रवर्ती बलवन्तों का बल और युवकों का यौवन यह सब काल के विशाल उदर में लुप्त होता है। जीवन को मृत्यु ने घेर लिया है इसीलिए कवि कालिदास ने लिखा है- मरणं प्रकृतिः शरीरिणाम् विकृतिर्जीवितमुच्यते बुधैः / जीवन को विकृति कहना यद्यपि अनुचित लगता है परन्तु यह उचित है। एक ऐसा क्षण प्रत्येक प्राणी के जीवन में अवश्य आता है कि वह क्षण उसको मृत्यु के सान्निध्य में ले जाता है। उसको रोकने की क्षमता किसी भी शक्तिमान व्यक्ति में नहीं होती। काल एवं मृत्यु सर्वजयी होती है। भर्तृहरि का यह श्लोक वैराग्यशतक, 34 सर्वप्रसिद्ध है “सा रम्या नगरी महान् स नृपतिः सामन्तचक्रं च तत्। पार्वे तस्य च सा विदग्धपरिषत्ताश्चन्द्रबिंबाननाः।। उन्मत्तः स च राजपुत्रनिवहस्ते बंदिनस्ताः कथाः। सर्वं यस्य वशादगात्स्मृतिपथं कालाय तस्मै नमः / / " .. कवि ने सर्वसमर्थ काल को अगतिक होकर वन्दन किया है। इस काल को जीतने की विद्या अथवा तत्त्वदृष्टि जैनदर्शन में है। सारा संसार मृत्यु से घबराता है। उससे दूर-दूर भागने की हरसम्भव कोशिश करता है, परन्तु जैन तत्त्वज्ञान में इस काल को पराभूत करने की रीति अन्तर्भूत है। जैनशास्त्रों का कथन है कि मृत्यु शरीर की होती है, न कि आत्मा की। आत्मतत्त्व अक्षय, अखण्ड है। प्रत्येक मनुष्य को यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि मैं शरीर नहीं हूँ। शरीर तो मिट्टी है, कालप्रवाह में बह जाता है। मेरे भीतर एक जगमगाती आत्मज्योति है, यह कभी नहीं बुझती, इस ज्योति का प्रकाश अमर है, यह ज्योति उज्ज्वल करना मेरा धर्म है। चाहे मृत्यु मेरा शरीर ले जावे, मैं तो आत्मस्वरूप में अखण्ड आनन्द का अनुभव लेता रहूँगा। जैनदर्शन की यह दृष्टि अत्यन्त समुचित और वास्तव है। साक्षात् कालपुरुष को निर्भीक वृत्ति से ललकारना सुलभ नहीं है, परन्तु जैनधर्म की यह विशेषता है कि इसका तत्त्वज्ञान जन्म और मृत्यु को जीतनेवाला है। जन्म-मरण प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 103