________________ जैन पुराणों में प्रतिपादित सल्लेवना Ey डॉ. कस्तूरचन्द्र 'सुमन' सल्लेखना को शिक्षाव्रतों में चौथा शिक्षाव्रत बनाकर कहा गया है कि आयु का क्षय उपस्थित होने पर सल्लेखना धारण कर लेनी चाहिए।' गृहस्थ यदि अपने धर्मों का निर्वहन करते हुए सल्लेखना धारण कर लेता है तो वह मरकर उत्तम देव होता है और वहाँ से च्युत होकर उत्तम मनुष्यत्व प्राप्त करता है। यह भी कहा गया है कि ऐसा जीव अधिक से अधिक आठ भवों में रत्नत्रय का पालन कर अन्त में निर्ग्रन्थ होकर सिद्धपद पाता है। इसके लिए अन्तरंग में कषाएँ कृश की जाती हैं और बहिरंग में देह / कषाएँ जन्मती हैं राग और द्वेष से / यदि राग-द्वेष कृश होते गये तो कषाएँ भी कृश होती चली जाती हैं। देह से भी राग नहीं रह जाता। जब देह से राग नहीं रहेगा तो उसका कृश होना भी अवश्यम्भावी है। सल्लेखना का स्वरूप पुराणों में वैसा ही प्राप्त होता है जैसा जैन दार्शनिक ग्रन्थों में वह निरूपित है। पुराणों में बहिरंग में शरीर और अन्तरंग में कषायों के अच्छी तरह कृश करने को सल्लेखना कहा है। व्रती मनुष्य को भरणान्तकाल में यह अवश्य करना चाहिए। जव अन्त अर्थात् मरण का किसी प्रकार परिहार न किया जा सके, तव रागादि की अनुत्पत्ति के लिए आगमोक्त मार्ग में सल्लेखना धारण करना उचित माना गया है। इन उल्लेखों में प्रयुक्त 'मारणान्तिकीं' शब्द तत्त्वार्थसूत्र की देन ज्ञात होता है। पुराणों में दर्शाये गये सल्लेखना स्वरूप में तत्त्वार्थसूत्रकार और आचार्य समन्तभद्र की अपेक्षा चिन्तन की अधिक गइराई दिखाई देती है। .. पुराणकार ने वहिरन्तर्हि लेखना कहकर सल्लेखना के स्वरूप को स्पष्ट कर दिया है। उन्होंने मरणकाल में भली प्रकार से देह कृश करने को बाह्य सल्लेखना और कषायों के कृश करने को आन्तरिक-सल्लेखना कहा है। इसप्रकार सल्लेखना के दो भेद करके पुराणकार ने यह स्पष्ट संकेत कर दिया है कि व्रती मरणकाल में सल्लेखना धारण करके अपनी देह कितनी ही कृश क्यों न कर ले, यदि कषाय कृश नहीं हो सकी तो देह कृश करने का कोई लाभ नहीं है; क्योंकि कपायों के बने रहने से जीव कर्मबन्ध से मुक्त नहीं हो पाता और कर्मवन्धन से मुक्त हुए बिना प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 10 99