Book Title: Prakrit Vidya Samadhi Visheshank
Author(s): Kundkund Bharti Trust
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 21
________________ राजवार्तिक में मरण दो प्रकार का बताया है- नित्यमरण और तद्भवमरण / भगवती आराधना में मरण 17 प्रकार के बताये गये हैं- अविचिमरण, अवधिमरण आदि। मरण ___ लोकप्रसिद्ध मरण तद्भव मरण कहलाता है और प्रतिक्षण आयु का क्षीण होना नित्यमरण कहलाता है। यद्यपि संसार में सभी जीव मरणधर्मा है, परन्तु अज्ञानियों की मृत्यु बालमरण और ज्ञानियों की मृत्यु पण्डित मरण है, क्योंकि शरीर द्वारा जीव का त्याग किया जाने से अज्ञानियों की मृत्यु होती है और जीव द्वारा शरीर का त्याग किया जाने से ज्ञानियों की मृत्यु होती है जिसे समाधिमरण कहते हैं। अतिवृद्ध या रोगग्रस्त हो जाने पर जब शरीर उपयोगी नहीं रह जाता तो ज्ञानीजन जैसे चारित्रचक्रवर्ती शान्तिसागर जी महाराज धीरे-धीरे भोजन का त्याग करके इसे कृश करते हुए इसका भी त्याग कर देते हैं। अज्ञानीजन इसे अपमृत्यु समझते हैं, पर वास्तव में कषायों के क्षीण हो जाने पर सम्यग्दृष्टि जागृत हो जाने के कारण यह अपमृत्यु नहीं बल्कि सल्लेखना मरण है जो उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य के भेद से तीन विधियों द्वारा किया जाता है। यद्यपि साधारणतः देखने पर यह पण्डितमरण अकालमरण सरीखा प्रतीत होता है, पर वास्तविक दृष्टि से देखने पर अकालमरण नहीं है। विष खा जाने से, वेदना से, तीव्र भय से, शस्त्रघात से, संक्लेश की अधिकता से, आहार और श्वासोच्छवास के रुक जाने से आयु क्षीण हो जाती है, उसे कदलीघात या अकालमरण कहते हैं। - क्षीणकषाय केवली भगवान पण्डितपण्डितमरण से मरते हैं। विरताविरत जीव के मरण को बालपण्डितमरण कहते हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के मरण को बालमरण कहते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव के मरण को बाल बालमरण कहते हैं। अथवा रत्नत्रय का नाश करके समाधिमरण के बिना मरना बालमरण है। चारित्रवान मुनियों को पण्डित मरण होता है। वह तीन प्रकार का है- भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी व प्रायोपगमन / भोजन का क्रमिक त्याग करके शरीर को कृश करने की अपेक्षा तीनों समान है। अन्तर है शरीर के प्रति उपेक्षा भाव में / अपने और पर के उपकार वैयावृत्य) की अपेक्षा रहित समाधिमरण को प्रायोपगमन विधान कहते हैं। जिस संन्यास में अपने द्वारा किये गये उपकार (वैयावृत्य) की अपेक्षा रहती है, किन्तु दूसरे के द्वारा किये गये वैयावृत्य आदि उपकार की अपेक्षा सर्वथा नहीं रहती, उसे इंगिनी समाधि कहते हैं। जिस संन्यास में अपने और दूसरे दोनों के द्वारा किये गये उपकार की अपेक्षा रहती है, उसे भक्तप्रत्याख्यान संन्यास कहते प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 19

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