________________ करनेवालों को पुण्य होता है, तो साक्षात् क्षपक की वन्दना एवं दर्शन करनेवाले पुरुष को प्रचुर पुण्य का संचय क्यों नहीं होगा? अर्थात अवश्य होगा। जो तीव्र भक्तिसहित आराधक की सदा सेवा –वैयावृत्य करता है उस पुरुष की आराधना निर्विघ्न सम्पन्न होती है, अर्थात् वह भी समाधिपूर्वक मरण कर उत्तम गति को प्राप्त होता है। सल्लेखना आत्मघात नहीं है : ___ सल्लेखना आत्मघात नहीं है क्योंकि आत्मघात तीव्र क्रोधादि के आवेश में आकर या अज्ञानतावश शस्त्र-प्रयोग, विष-भक्षण, अग्नि-प्रवेश, जल-प्रवेश, गिरिपात आदि घातक क्रियाओं से किया जाता है, जबकि इंन क्रियाओं का और क्रोधादिक के आवेश का सल्लेखना में अभाव है। सल्लेखना योजनानुसार शान्तिपूर्वक मरण है, जो जीवन-सम्बन्धी सुयोजना का एक अंग है। क्या जैनेतर दर्शनों में यह सल्लेखना है? __सल्लेखना का वर्णन जैनदर्शन के सिवा अन्य दर्शनों में उपलब्ध नहीं होता। योगसूत्र आदि में ध्यानार्थक समाधि का विस्तृत कथन अवश्य पाया जाता है, पर उसका अन्तःक्रिया से कोई सम्बन्ध नहीं है। उसका प्रयोजन केवल सिद्धियों के प्राप्त करने अथवा आत्म-साक्षात्कार से है। वैदिक साहित्य में वर्णित सोलह संस्कारों में एक ‘अन्त्येष्टि-संस्कार' आता है", जिसे ऐहिक जीवन के अन्तिम अध्याय की समाप्ति कहा गया है और जिसका दूसरा नाम ‘मृत्यु-संस्कार' है। तथा इस संस्कार का अन्तःक्रिया के साथ सम्बन्ध हो सकता था, किन्तु मृत्यु-संस्कार सामाजिकों अथवा सामान्य लोगों का किया जाता है, सिद्ध-महात्माओं, संन्यासियों या भिक्षुओं का नहीं, क्योंकि उनका परिवार से कोई सम्बन्ध नहीं रहता और इसलिए उन्हें अन्त्येष्टि-क्रिया की आवश्यकता नहीं रहती। उनका तो जल-निखात या भूनिखात किया जाता है / यह भी ध्यान देने योग्य है कि हिन्दूधर्म में अन्त्येष्टि की सम्पूर्ण क्रियाओं में मृत व्यक्ति के विषय-भोग तथा सुख-सुविधाओं के लिए ही प्रार्थनाएँ की जाती हैं। हमें उसके आध्यात्मिक लाभ अथवा मोक्ष के लिए इच्छा का बहुत कम संकेत मिलता है। जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाने के लिए कोई प्रार्थना नहीं की जाती, पर जैन-सल्लेखना में पूर्णतया आध्यात्मिक लाभ तथा मोक्ष-प्राप्ति की भावना स्पष्ट सन्निहित रहती है, लौकिक एषणाओं की उसमें कामना नहीं होती। इतना यहाँ ज्ञातव्य है कि निर्णय-सिन्धुकार ने ब्रह्मचारी, गृहस्थ और वानप्रस्थ के अतिरिक्त आतुर अर्थात् मुमूर्षु (मरणाभिलाषी) और दुःखित अर्थात् चौर-व्याघ्रादि से भयभीत व्यक्ति के लिए भी संन्यास का विधान करनेवाले कतिपय मतों का उल्लेख किया है। उनमें कहा गया है कि संन्यास लेनेवाला आतुर अथवा दुःखित यह संकल्प करता है- मैंने जो अज्ञान, प्रमाद या आलस्य दोष से बुरा कर्म किया उसे 32 00 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004