________________ मरण अनन्त जन्मों का कारण है। आगम की भाषा में उसे बाल-बालमरण कहा गया है। यद्यपि असंयत सम्यग्दृष्टि का संसार अनन्त-पुद्गल परावर्तन रूप सीमित हो जाता है, किन्तु वह भी अनन्त है। इसलिए सम्यग्दर्शन के साथ व्रत-चारित्र हुए बिना कोई भी जीव संन्यासमरण व पण्डितमरण का अधिकारी नहीं होता। जिसका संयोग मिला है, उसका वियोग अवश्य होता है। संयोग और संयोगी भावों में आसक्त होकर प्राणी यह भूल जाता है कि घर-द्वार की भाँति एक दिन शरीर भी छूटने वाला है। भला यही है कि सहसा, बलात् वियुक्त होने के पूर्व स्वेच्छा से संन्यासपूर्वक देह का भी त्याग कर दिया जाए। जो अपना नहीं है, उसमें अपनत्व-ममत्व बुद्धि करके इतना समय बिताया, यही भूल-चूक हुई है। इस भूल को सुधारने के लिए ही आत्म-साधनापूर्वक संन्यासमरण करना ही सम्पूर्ण . जीवन की आलोचना के साथ निर्दोष होने का अमोघ उपाय है। साधुओं के लिए तो यह अनिवार्य है, किन्तु गृहस्थ भी इस विधि को अपना कर अपना जीवन सुधार सकता है। इतना अवश्य है कि घर-गृहस्थी में आज के वातावरण में समाधिमरण दुःशक्य है, क्योंकि घर ममता का स्थान है। समाधि के इच्छुक के लिए मोह-ममता छोड़कर शुद्धात्मस्वभाव की लौ लगाना ही सर्वप्रथम एवं अनिवार्य आवश्यक कहा गया है। गृहस्थ को भी सल्लेखनापूर्वक मरण का उपदेश दिया गया है। सल्लेखना का अर्थ है -सम्यक् प्रकार से काय और कषायों को कृश करना। अन्तरंग और बहिरंग के भेद से यह दो प्रकार की है। निज शुद्धात्म स्वभाव में स्थिर हो जाना . अन्तरंग सल्लेखना है तथा शरीर व कषायों को कृश करना बहिरंग सल्लेखना है। सल्लेखना अहिंसा धर्म है। इससे अहिंसा की सिद्धि होती है। आचार्य . अमृतचन्द्र के शब्दों में "नीयन्तेऽत्र कषाया हिंसाया हेतवो यतस्तनुताम्। सल्लेखनामपि ततः प्राहुरहिंसाप्रसिद्ध्यर्थम् / / " -पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 179 क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति-अरति आदि कषाय भाव हैं। इनके वश में होकर प्राणी सब तरह की हिंसा करता है। हिंसा का मूल स्थायी भाव राग-द्वेष है। अतः मूल में मिथ्यात्व और कषाय ही हिंसा का अन्तरंग कारण है। सल्लेखना में कषाय को क्षीण किया जाता है। अतः इससे अहिंसाव्रत की सिद्धि व शुद्धि होती है। इसकारण सल्लेखना को अहिंसा के अन्तर्गत ग्रहण किया जाता है। यह जीवन की पूर्ण शुद्धि का एकमात्र उपाय है। सन्दर्भ :1. मरणकण्डिका, 1/20 2. भगवती आराधना, गाथा 5 3. वही, गाथा 6 4. मरणकण्डिका, श्लोक 21 38 00 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004