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जगद्गुरु
-आचार्य विद्यानन्द मुनिराज
लोक में सर्वत्र गुरु की अचिन्त्य-महिमा मानी गई है। मात्र तीर्थंकर परमात्मा ही स्वयंप्रबुद्ध होने के कारण अपने गुरु स्वयं होते हैं, अन्यथा सभी के लिए आत्मिक उत्थान के निमित्त गुरु की अपेक्षा अनिवार्य होती है। यहाँ तक की लौकिक-कला-शिक्षा आदि में निष्णात बनने के लिए भी गुरु की अनिवार्यता मानी गई है। यदि कहीं कोई अपने आप किसी कला या विद्या को सीख भी लेता है, तो भी उसमें वह निखार या परिष्कार नहीं होता, जो कि किसी विशेषज्ञ-गुरु के सान्निध्य में विधिवत् प्रशिक्षण लेने पर आता है। उदाहरणस्वरूप हम मयूर का दृष्टांत ले सकते हैं। मयूर बहुत सुन्दर नृत्य करता है तथा उसके नृत्य को देखकर जनमानस मंत्रमुग्ध हो जाता है, फिर भी गुरु से प्रशिक्षण लिये बिना नृत्य करने के कारण नाचते समय उसका गुह्य-अंग दिखता है। इससे उसकी नृत्यकला उत्कृष्ट होते हुए भी दोषरहित नहीं कही जाती। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए ज्ञान-विज्ञान, कला-विद्या एवं आत्मिक उत्थान आदि सभी क्षेत्रों में योग्य-गुरु की अनिवार्य-अपेक्षा होती है। . 'गुरु' शब्द 'गु' और 'रु' – इन दो वर्गों को मिलाकर बनाया गया है। इस आधार पर नीतिग्रंथ में गुरु को अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करनेवाला माना गया है
गु-शब्दस्त्वन्धकारे च रु-शब्दस्तन्निवर्तकः। .
अन्धकारविनाशित्वाद् गुरुरित्यभिधीयते।। अर्थ :- 'गुरु' शब्द का अर्थ लगानेवालों ने 'गु' और 'रु' दोनों अक्षरों के क्रमश: अज्ञान-अन्धकार और तन्निवर्तक अर्थ करते हुए 'अन्धकार (अज्ञानरूप) के नाशयिता' को 'गुरु' कहा है। लोकप्रसिद्ध इस श्लोक में भी गुरु का यही स्वरूप प्रतिपादित किया गया है
“अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानांजनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:।।”
–(कातंत्र-रूपमाला, मंगलाचरण 5 ) अर्थ :- अज्ञानरूप अन्धकार से अन्धे हुये लोकचक्षुओं को जिन्होंने ज्ञानरूप
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002