Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 89
________________ 12 अनुगृहीत होता है 'कल्पसूत्र' में कहा है कि साधुओं और साध्वियों को रात्रि में अथवा विकाल अर्थात् सान्ध्य - समय में तथा सूर्योदय के पहले विहार नहीं करना चाहिए ।" 'मूलाचार' के अनुसार गिरि कन्दराओं, श्मशानभूमि, शून्यागार, वृक्षमूल आदि वैराग्यवर्द्धक स्थानों में श्रमण ठहरते हैं; 14 क्योंकि कलह, व्यग्रता बढ़ानेवाले शब्द, संक्लेशभाव, मन की व्यग्रता, असंयतजनों का संसर्ग, तेरे-मेरे का भाव, ध्यान तथा अध्ययन आदि में विघ्न – इन दोषों का सद्भाव विविक्त - वसतिकाओं में नहीं होता । 15 अपराजित सूरि ने कहा है कि “वर्षाकाल में स्थावर और जंगम सभी प्रकार के जीवों से यह पृथ्वी व्याप्त रहती है। उस समय भ्रमण करने पर महान् असंयम होता है। वर्षा और शीत - वायु से आत्मा की विराधना होती है । वापी आदि जलाशयों में गिरने का भय रहता है। जलादि में छिपे हुए ठूंठ, कष्टक आदि से अथवा जल, कीचड़ आदि से कष्ट पहुँचता है ।' इन्द्रियसुख से दूरी 116 संन्यासी को ब्रह्मचारी होना चाहिए। सदा ध्यान एवं आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति भक्ति रखनी चाहिए एंव इन्द्रिय-सुख, आनन्दप्रद - वस्तुओं से दूर रहना चाहिए।' 'प्रवचनसार' में कहा है— पाँच समितियुक्त, पाँच इन्द्रियों का संवरवाला, तीन गुप्तियों सहित, कषायों को जीतनेवाला, दर्शन - ज्ञान से परिपूर्ण श्रमण 'संयत' कहा गया है। जो विशुद्धात्मा होता हुआ परम आत्मा का ध्यान करता है, वह साकार या अनाकार मोह-दुर्ग्रन्थि का क्षय करता है । " समताभाव I संन्यासी को बिना जीवों को कष्ट दिये घूमना चाहिये, उसे अपमान के प्रति उदासीन रहना चाहिये, यदि कोई उससे क्रोध प्रकट करे तो क्रोधोवेश में नहीं आना चाहिये । यदि कोई उसका बुरा करे तो भी उसे कल्याणप्रद - शब्दों का उच्चारण करना चाहिए और कभी भी असत्य भाषण नहीं करना चाहिये | 20 जैन-आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है सम-सत्तु-बंधुवग्गो सम-सुह- दुक्खे पसंस - णिदं - समो । समलॉट्ठ-कंचणो पुण जीविद - मरणे समो समणो । । - ( प्रवचनसार, 241 ) जिसे शत्रु और बन्धुवर्ग समान है, सुख और दुःख समान है, प्रशंसा और निन्दा के प्रति जिसको समता है, जिसे लोष्ठ (पत्थर का टुकड़ा) और सुवर्ण समान है तथा जीवन-मरण के प्रति जिसको समता है, वह 'श्रमण' है । आहार के योग्य घर हिन्दू-ग्रन्थों में कहा गया है कि संन्यासी को बिना किसी पूर्व-योजना या चुनाव के प्राकृतविद्या�अक्तूबरर-दिसम्बर 2002 87

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