________________
| अंतिम-आवरण-पष्ठ पर मुद्रित चित्र के बारे में
युनान में निर्ग्रन्य-परम्परा का प्रभाव
अंतिम आवरण-पृष्ठ पर मुद्रित-मूर्तिशिल्प यूनान के एथेंस नगर में प्राप्त हुई है। तथा वहाँ यह 'अमृतशिला' की प्रतिमा के रूप में विख्यात है। 'जर्मन प्राच्य वस्तुशाला' के अनुसंधान कार्यक्रम के अन्तर्गत प्राप्त इस प्रतिमा का कालनिर्णय मनीषियों ने ईसापूर्व छठवी-सातवीं शताब्दी किया है। इसप्रकार यह मूर्तिशिल्प महावीरयुगीन या उससे भी पूर्ववर्ती प्रमाणित होता है। यह निर्ग्रन्थ-मुद्रा का मूर्तिशिल्प है, जो एक नग्न योगी की कायोत्सर्ग-ध्यानमुद्रा को दर्शाता है। कला-शैली का यूनानी-प्रभाव होते हुए भी भारतीय अध्यात्म की झलक इसमें स्पष्ट है। ___ यूनान में निर्ग्रन्थ-संतों एवं दार्शनिकों की ईसापूर्वकाल से उपस्थिति अनेकों गवेषी विद्वानों ने अनेकत्र स्वीकार की है। इससे वहाँ निर्ग्रन्थ-परम्परा एवं विचारधारा का चिरन्तन-प्रभाव सूचित होता है। इतिहासप्रसिद्ध तथ्य है कि सिकन्दर के अनुरोध पर कल्याणमुनि यूनान गये थे और एथेंस नगर में ही 'सेंट कौलानस' के नाम से उनकी समाधि आज भी विद्यमान है। किंतु यह मूर्तिशिल्प इनसे भी कई शताब्दी पहिले से निर्ग्रन्थ-परम्परा का यूनान में व्यापक-प्रभाव प्रमाणित करता है।
- ईसापूर्व में यूनान में निर्ग्रन्थ-परम्परा के अस्तित्व एवं प्रभाव के बारे में डॉ. बी.एन. पाण्डे के विचार मननीय हैं- "यूनानी इतिहास से पता चलता है कि ईसा से कम से कम चार सौ वर्ष पूर्व ये दिगम्बर भारतीय तत्ववेत्ता पश्चिमी एशिया में पहुंच चुके थे।
पोप के पुस्तकालय के एक लातीनी आलेख से, जिसका हाल में अनुवाद हुआ है, पता चलता है कि ईसा की जन्म की शताब्दी तक इन दिगम्बर भारतीय दार्शनिकों की एक बहुत बड़ी संख्या इथियोपिया (अफ्रीका) के वनों में रहती थी और अनेक यूनानी विद्वान् वहीं जाकर उनके दर्शन करते थे और उनसे शिक्षा लेते थे।
यूनान के दर्शन और अध्यात्म पर इन दिगम्बर महात्माओं का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि चौथी सदी ई.पू. में प्रसिद्ध यूनानी विद्वान पिरो ने भारत आकर उनके ग्रंथों और सिद्धांतों का यानि भारतीय अध्यातम और भारतीय दर्शर का विशेष अध्ययन किया और फिर यूनान लौटकर एलिस नगर में एक यूनानी दर्शन पद्धति की स्थापना की। इस नई पद्धति का मुख्य सिद्धांत था कि इंद्रियों द्वारा वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति असंभव है, वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति केवल अंत:करण की शुद्धि द्वारा ही संभव है और उसके लिये मनुष्य को सरल से सरल जीवन व्यतीत करके आत्मसंयम और योग द्वारा अपने अंतर में धंसना चाहिए। भारत से लौटने के बाद पिरो दिगम्बर रहता था। उसका जीवन इतना सरल और संयमी था कि यूनान के लोग उसे बड़ी भक्ति की दृष्टि से देखते थे। वह योगाभ्यास करता था और निर्विकल्प समाधि में विश्वास करता था।" । - (साभार उद्धृत— भारत और मानव संस्कृति, खण्ड II, लेखक- बिशम्बरनाथ पाण्डे, पृ. 128,
प्रकाशक- प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, सन् 1996)