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|ISSNNo. 0971-796 X|
प्राकृत दिया
वर्ष 14, अंक 3,
अक्तुबर-दिसम्बर 2002 ई.
नीरक्षीर-विवेक का प्रतिमान राजहंस
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आवरण पृष्ठ के विषय में
भारतीय परम्परा में हंस को विवेक और वैदुष्य का अप्रतिम - प्रतिमान माना गया है। कोशकारों ने 'हंस' शब्द को 'हस्' धातु से 'अच्' प्रत्यय करके 'पृषोदरादिगण' में वर्णागमपूर्वक निर्मित माना है; और इसके राजहंस, मराल, मुरगाबी, कारंडव, परमात्मा, ब्रह्म, आत्मा, जीवात्मा, एक प्राणवायु, सूर्य, शिव, विष्णु, कामदेव, महत्त्वाकांक्षा - रहित राजा, य - विशेष का सन्यासी, दीक्षा - गुरु, ईर्ष्या एवं द्वेष से रहित व्यक्ति एवं पर्वत आदि अर्थ किये हैं ।
सम्प्रदाय
'मृच्छिकटिक' – (5/6) नामक रूपक के कर्त्ता लिखते हैं- “हंसा: संप्रति पाण्डवा इव वनादज्ञातचर्यां गता: "; तथा महाकवि कालिदास ने लिखा है कि- “न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा” – (रघुवंश महाकाव्य, 3/10 ) । संस्कृत के कवियों ने इसे 'ब्रह्मा जी का वाहन' बताया है, तथा लिखा है कि- 'बारिश के प्रारम्भ में हंस उड़कर मानसरोवर की ओर जाते हैं।' अधिकांश भारतीय मनीषी हंस पक्षी को दूध का दूध और पानी का पानी पृथक् करनेवाली शक्ति- विशेष से सम्पन्न मानते हैं । यथा – “सारं ततो ग्राह्यमपास्य फल्गु हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात्” – (पंचतन्त्र, 1 ) । “नीर-क्षीरविवेके हंसालस्यं त्वमेव तनुषे चेत् । ” – ( भामिनी विलास, 1/13 ) । आचार्य अमृतचन्द्रसूरि भी इस तथ्य का समर्थन करते हुए लिखते हैं
" जानाति हंस इव वाः पयसोर्विशेषं ।” - ( समयसार कलश, 59, पृ. 157) अर्थात् वह ज्ञातापुरुष हंस के दूध और पानी के विवेक के समान परपदार्थों से भिन्न चैतन्यधातु का अविचलरूप से आश्रय करता हुआ उसका ज्ञाता ही रहता है। आचार्य मल्लिषेण-विरचित 'वाग्देवी स्तोत्र' में सरस्वती को एकाधिक बार हंस वाहिनी के रूप में प्ररूपित किया गया है—
“कामार्थदे ! च कलहंस-समाधिरूढे ।.....
हंसस्कन्धसमारूढा वीणा पुस्तकधारिणी । .....
तृतीयं शारदादेवी चतुर्थं हंस - गामिनी । । ” – (वाग्देवी-स्तोत्रम् 1, 10-11) 'परमात्मप्रकाश' के टीकाकार भी 'हंस' शब्द को 'परमात्मा का वाचक' बताते हैं“अनन्तज्ञानादि-निर्मलगुणयोगेन हंस इव हंस परमात्मा ।” अर्थात् अनन्तज्ञानादि निर्मल-गुणों से सहित होने के कारण हंस के समान होने से परमात्मा को भी 'हंस' कहा गया है। - ( परमात्मप्रकाश, अध्याय 2, दोहा 170 की टीका) 'ज्ञानसार’-ग्रन्थ में शुक्लध्यानी आत्मा को 'हंस' कहा गया है— “निश्चिन्तस्तथा हंसः पुरुषः पुनः केवली भवति । ” – (पद्य 47 ) । इसके अतिरिक्त ब्रह्मेन्द्र ('ब्रह्म' स्वर्ग के स्वामी) का विमान भी 'हंसाकृति' माना गया है।
श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय), नई दिल्ली का प्रतीक चिह्न भी 'हंस' हैं । स्वनामधन्य मनीषी डॉ. मण्डन मिश्र जी ने जिस सारस्वतभाव से इस विद्यापीठ की स्थापना की थी, उसी के अनुरूप यह हंस का प्रतीक चिह्न उन्होंने चुना था ।
-सम्पादक
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ISSNNo.0971-796x
लल
।। जयदु सुद-देवदा।।
प्राकृत-विद्या
PRAKRIT VIDYA
Pagad. Vijja
पागद-विज्जा
प्राकृत, अपभ्रंश आदि प्राच्य भारतीय भाषाओं की वर्तमान राष्ट्रभाषा हिन्दी तक की विकास-यात्रा दर्शानेवाली समर्पित त्रैमासिकी शोध-पत्रिका The devoted quarterly research journal develop progress showing of Prakrit Apbhramsha, Ancient Indian Languages & Nation Hindi Language वीरसंवत् 2528 अक्तूबर-दिसम्बर '2002 ई. वर्ष 14 अंक 3 Veersamvat 2528 October-December '2002 Year 14 Issue 3
आचार्य कुन्दकुन्द समाधि-संवत् 2014
मानद प्रधान सम्पादक प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन निदेशक, कुन्दकुन्द भारती जैन शोध संस्थान
Hon. Chief Editor PROF. (DR.) RAJA RAM JAIN Director, K.K.B. Jain Research Institute
मानद सम्पादक Hon. Editor
डॉ. सुदीप जैन DR. SUDEEP JAIN एम.ए. (प्राकृत), पी-एच.डी. M.A. (Prakrit), Ph.D.
Publisher
प्रकाशक श्री सुरेश चन्द्र जैन मंत्री श्री कुन्दकुन्द भारती ट्रस्ट ★ प्रति अंक
SURESH CHANDRA JAIN Secretary Shri Kundkund Bharti Trust
- बीस रुपये (भारत)
2.0 5 (डालर) भारत के बाहर
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परामर्शदाता - श्री पारसदास जैन
सम्पादक-मण्डल डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री . प्रो. (डॉ.) प्रेमसुमन जैन डॉ. उदयचन्द्र जैन - प्रो. (डॉ.) शशिप्रभा जैन
प्रबन्ध सम्पादक डॉ. वीरसागर जैन
: श्री कुन्दकुन्द भारती (प्राकृत भवन) 18-बी, स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110067 फोन (011) 6564510, 6513138
Kundkund Bharti (Prakrit Bhawan)
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परमहंस-कायोत्सर्ग .. . तिर्थक्-प्रसारितभुजौ व्यावृत्तपरिवर्तितौ ।
हंसपंक्षकरौ दण्डपक्षावुक्तौ । दिगम्बरैः ।। अधोमुखतलाविद्धौ किंचित्तिर्यक्-प्रसारितौ। हंसपक्षकरौ स्यातां तौ द्वौ गरुडपक्षको।।।
-(आचार्य पार्श्वदेव, संगीत समयसार', 7/95-96) अर्थ :- दिगम्बर जैन-योगी को योग के समय हंस-पक्षी के पंखों के समान | दोनों बाहों को फैलाकर ध्यान करना चाहिये। वे दोनों हाथ नीचे की ओर लटके हैं; तथा किंचित् थोड़े-से तिरछे और प्रसारित किए हुए हैं, एवं शरीर से अस्पृष्ट हैं। मोहन-जो-दड़ो ___“मोहनजोदरो से उपलब्ध ध्यानस्थ-योगियों की मूर्तियों की प्राप्ति से जैनधर्म की प्राचीनता निर्विवाद सिद्ध होती है।" - (वाचस्पति गैरोला, भारती दर्शन, पृ. 86, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1962) “जैनधर्म का मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धु-सभ्यता तक चला जाता है।"
-(राधाकुमुद मुखर्जी, हिन्दू सभ्यता, पृ. 23) **
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अनुक्रम
क्र. शीर्षक
लेखक
पृष्ठ सं. 01. मंगलाचरण : चउबीस-तित्थयर-थुदि मूल - कवि विबुध श्रीधर
अनुवाद - डॉ. राजाराम जैन 4 02. सम्पादकीय : धर्मं बुधाश्चिन्वते
डॉ. सुदीप जैन
6 03. जगद्गुरु
आचार्य विद्यानन्द मुनिराज 10 • 04. जैनधर्म में राष्ट्रधर्म की क्षमता विद्यमान है सत्यदेव विद्यालंकार 15
05. प्राकृत-अपभ्रंश शब्दों की अर्थवाचकता . डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य 21 • 06. भगवान् महावीर के व्यक्तित्व का दर्पण....... प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन 26 07. प्रेरक व्यक्तित्व : अजातशत्रु भैय्या मिश्रीलाल गंगवाल डॉ. कपूरचंद जैन एवं
डॉ. ज्योति जैन 33 08. रत्नत्रय अष्टक (हिन्दी कविता)
डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया 38 '09. भगवान् महावीर की जन्मस्थली नालंदा . कुण्डलपुर-आगमसम्मत नहीं
डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल 39 10. कातन्त्र और कच्चायन का तुलनात्मक अध्ययन प्रो. जानकीप्रसाद द्विवेदी एवं
डॉ. सुरेन्द्र कुमार 11. रोहतक से प्राप्त अप्रकाशित जैन मूर्तियाँ डॉ. सत देव 12. दर्शन-शास्त्र अन्तर्मुखी बनाता है और ___प्रदर्शन बहिर्मुखी
डॉ. सुषमा सिंघवी 13. ज्ञान और विवेक
डॉ. वीरसागर जैन 14. भगवान् महावीर की जन्मस्थली........ 15. जैन-परम्परा में आचार्यत्व
डॉ. सुदीप जैन 16. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जैनधर्म-दर्शन के . अहिंसा-विचार की प्रासंगिकता
सुनील कुमार सिंह 17. साधक होता द्रष्टा-ज्ञाता
दिलीप धींग 18. महान् वैज्ञानिक और सच्चे देशभक्त डॉ. जगदीश चंद्र बसु
अशोक वशिष्ठ 19. वैदिक और जैन संन्यासी में उल्लिखित समतायें डॉ. रमेशचन्द जैन 20. पर्यावरण-संरक्षण और जैनधर्म
पं. निहालचन्द जैन 21. पुस्तक-समीक्षा
. डॉ. सुदीप जैन 22. अभिमत
100 23. अल्पसंख्यकों को शिक्षा-संस्थान..........
101 24. समाचार-दर्शन
104 25. इस अंक के लेखक-लेखिकाएँ
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चउबीस-तित्ययर-धुदि
-मूल लेखक - कविवर विबुध श्रीधर -अनुवाद - प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन
घत्ता- पूरिय भुअणासहो पाव-पणासहो णिरुवम गुणमणिगण-भरिउ।
तोडिय भवपासहो पणविवि पासहो पुणु पयडमि तासु जि चरिउ ।। जय 'रिसह' परीसह-सहणसील, जय 'अजिय' परज्जिय पर दुसील।। जय 'संभव भव-भंजण समत्थ, जय संवर-णिव-णंदण समत्थ ।। जय ‘सुमई' समज्जिय सुमइ-पोम, जय ‘पउमप्पह' पह-पहय-पोम ।। जय-जय ‘सुपासु' वसु पास णास, जय चंदप्पह-पहणिय स-णास ।। जय ‘सुविहि' सुविहि-पयडण-पवीण, जय ‘सीयल' पर-मय सप्प-वीण ।। जय 'सेयं सेय लच्छी-णिवास, जय 'वासुपुज्ज' परिहरिय-वास।। जय 'विमल' विमल-केवलपयास, जय-जय ‘अणंत' पूरिय-पयास ।। जय 'धम्म' धम्म-मग्गाणुवट्टि, जय 'संति' पाव-महि मइय वट्टि।। जय 'कुंथु' परिक्खिय कुंथु-सत्त, जय 'अर' अरिहंत-महंत सत्त।। जय मल्लि' मल्लि पुज्जिय-पहाण, जय मुणिसुव्वय' सुव्वय-णिहाण।। जय ‘णमि णमियामर-खयरविंद, जय ‘णेमि णयण णिहयारविंद।। जय 'पास' जसाहय हीर-हास, जय जयहि 'वीर' परिहरिय-हास ।। घत्ता- इय णाण-दिवायर गुण-रयणायर वित्थरंतु महु मइ-पवर ।
जिण-कब्बु-कुणंतहो दुरिउ-हणंतहो सुर-कुरंग-मारण-सवर ।। हिन्दी अनुवाद :- भुवन (तीन लोकों के जीवों) की आशा (अभिलाषा) को पूर्ण करने वाले, पापों के प्रणाशक, भव की पाश (मोह) को तोड़नेवाले श्री पार्श्वप्रभु को प्रणाम कर मैं (विबुध श्रीधर) उनके अनुपम गुणरूपी मणिगण (रत्नसमूह) से भरे हुए चरित्र को प्रकट करता हूँ।।
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परीषहों को सहन करने के स्वभाववाले 'ऋषभदेव' की जय हो। दुष्ट स्वभाववाले तथा (संसार की चतुर्गतियों में भ्रमण कराने वाले) पर-(कर्मों) को जीतनेवाले 'अजितनाथ' की जय हो। भव (पंचपरावर्तन के कारणभूत मोह, राग-द्वेष) के चूर्ण करने में समर्थ 'सम्भवनाथ' की जय हो। 'संवर' राजा के समर्थ पुत्र अभिनन्दननाथ' की जय हो।
सुमति (केवलज्ञान) रूपी पद्मा (लक्ष्मी) को अर्जित करनेवाले सुमतिनाथ' की जय हो। (अपनी ) प्रभा से पद्मों (रक्ताभ-कमलों) को प्रहत करनेवाले (नीचा दिखाने वाले) 'पद्मप्रभ' की जय हो। अपनी मृत्यु पर विजय प्राप्त करनेवाले अथवा ज्ञानियों की आशा-पाश का हनन (नष्ट पूर्ण) करनेवाले चन्द्रप्रभ' की जय हो। सुविधि (मोक्षमार्ग की पद्धति) को प्रकट करने में प्रवीण 'सुविधिनाथ' (पुष्पदन्त) की जय हो। परमतरूपी सर्पो को नष्ट करने के लिए गरुड-वीण के समान 'शीतलनाथ' की जय हो। श्रेय (पंचकल्याणक रूपी) लक्ष्मी के निवासस्थान 'श्रेयांसनाथ' की जय हो। वास (परमतरूपी दुर्गन्ध अथवा संसार के निवास) का परिहार (दूर) करनेवाले 'वासुपूज्य' की जय हो।
विमल (द्रव्य-कर्म रूपी मलरहित) केवलज्ञान का प्रकाश करनेवाले विमलनाथ' की जय हो। अनन्त (लोक-अलोक) को प्रकाश (ज्ञान) से पूर्ण करनेवाले अथवा प्रजाजनों की आशा को पूर्ण करनेवाले एवं अपने चरणों से समस्त दिशाओं की आशा को पूर्ण करनेवाले 'अनन्तनाथ' की जय हो। धर्म-मार्ग की अनुवृत्ति करनेवाले (अर्थात् धर्म-मार्गप्रवर्तक) 'धर्मनाथ' की जय हो। पापों की भूमि की वाट को मथनेवाले (मर्दन करनेवाले) 'शान्तिनाथ' की जय हो। ___कुन्थु आदि जीवों की रक्षा करनेवाले (अथवा कुन्थु आदि भी द्वीन्द्रिय जीव हैं, ऐसी परीक्षा करनेवाले) 'कुन्थुनाथ' की जय हो। अरि (मोहनीय कर्म) का नाश करनेवाले महान् सत्त्व (बल) वाले 'अरहनाथ' भगवान् की जय हो। मल्लिका (बला-चमेली) पुष्पों से पूजित प्रधान (श्री) मल्लिनाथ' की जय हो। उत्तम-व्रतों के निधान (खजाने) स्वरूप 'मुनिसुव्रतनाथ' की जय हो। अमर (दव) और खचर (विद्याधर) वृन्द (समूह) से नमस्कृत 'नमिनाथ' की जय हो। अपने नेत्रों से अरविंद (कमल) की शोभा को भी जीत लेनेवाले 'नेमिनाथ' की जय हो। अपने (प्रशस्त) यश के द्वारा हीरा के हास्य (कान्ति) को आहत (नीचा) करनेवाले 'पार्श्वनाथ' की जय हो। हास्य (परनिंदा) को छोड़नेवाले 'वीरनाथ' की जय हो, जय हो। __ऐसे ज्ञान-दिवाकर (सूर्य), गुणरूपी रत्नों के आकर (भंडार), स्मर (कामदेव) रूपी मृगों को मारने के लिए शबर (भिल्ल) के समान तथा पापों को हरनेवाले वे जिनेन्द्रगण प्रस्तुत जिनेन्द्र-काव्य (पासणाहचरिउ) के प्रणयन-हेतु मेरी बुद्धि में प्रवर-विस्तार करें।
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धर्मं बुधाश्चिन्वते
-डॉ. सुदीप जैन आज के वातावरण में 'धर्म' के पक्ष-विपक्ष का ऐसा वातावरण निर्मित हो रहा है कि जनसामान्य को इसके बारे में कुछ आशंका-सी उत्पन्न होने लगी है कि महापुरुषों ने 'धर्म' का प्रतिपादन प्राणिमात्र के हित और सुख के लिए किया था और आज वही अशान्ति एवं आशंका का केन्द्र क्यों बनता जा रहा है? क्या धर्म का स्वरूप आशंक्य है अथवा हम इसे सही समझ और अपना नहीं पा रहे हैं?
कम्युनिस्ट-विचारधारा के लोगों ने तो 'धर्म' को विभिन्न कारणों से 'दूर से त्यागने योग्य' कह दिया है। सामान्य-जनता यद्यपि मानसिकरूप से उनकी यह बात मानती नहीं है और धर्म के प्रति उसके मन में आदरभाव ऐसे निर्देशों के बाद भी विद्यमान है; फिर भी 'धर्म' के राजनीतिकरण एवं धर्मप्रमुखों के पारस्परिक विपरीत-ध्रुवं बनते जाने के कारण उसके मन में 'धर्म' के वास्तविक स्वरूप एवं प्रयोगविधि के विषय में जिज्ञासा अवश्य उठने लगी है। दैनंदिन के कार्यों में अतिव्यस्तता के कारण धर्म की सूक्ष्म-विवेचना शास्त्रीय-शब्दावलि में सुनने-समझने का अवकाश भले ही उसके पास नहीं है; किन्तु 'धर्म' को केन्द्र बनाकर सामाजिक से राष्ट्रीय स्तर तक जो प्रबल-अन्तर्विरोधों को वह प्रतिदिन स्पष्टरूप से देख एवं अनुभव कर रही है, उससे सामान्यजन के हृदय में धर्म के विश्वहितकारी स्वरूप के विषय में एक जिज्ञासायुक्त-प्रश्नचिह्न अवश्य अंकित हो गया है। जो नि:शंकित-श्रद्धा उसके हृदय में धर्म के प्रति थी, अब वह प्रश्नचिह्नित हो गयी है।
'धर्म' के स्वरूप में विरोध की गुंजाइश ही नहीं है। वह सर्वसमाधानकारक है। वह किसी क्षेत्र और काल-विशेष के लिए भी उपयोग नहीं होता, वह तो सार्वभौमिक और सार्वकालिक मंगलकारी होता है। इसीलिए एक मनीषी धर्मात्मा ने धर्म का स्वरूप निम्नानुसार विवेचित किया है."धनस्य बुद्धेः समयस्य शक्ते:, नियोजनं प्राणिहिते सदैव ।
स्याद् विश्वधर्म: सुखदो सुशान्त्यै, ज्ञात्वेति पूर्वोक्तविधिविधेय: ।।” अर्थात् प्राणिमात्र के हित की भावना से धन का, बुद्धि का, समय का और शक्ति का
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नियोजन (समर्पण) करना ही 'विश्वधर्म' है —ऐसा जानकर श्रेष्ठ-शान्ति के निमित्त इस विधि से (प्राणिमात्र के हित की भावना से धन आदि का नियोजन करने की विधि से) धर्माचरण करना चाहिए।
जैनाचार्यों ने 'धर्म' के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए लिखा है“धम्मो मंगलमुक्किठें, अहिंसा संजमो तवो।
देवा वि तं पणमंति, जस्स धम्मे सया मणो।।" – (जयधवल 1-71, पृ. 82) अर्थात् धर्म का स्वरूप प्राणिमात्र के लिए मंगलमय (मं' अर्थात् पापों को गलाने-दूर करनेवाला अथवा 'मंग' अथवा सच्चे सुख को लानेवाला) है और उत्कृष्ट (पुरुषार्थपूर्वक श्रेष्ठता/अभ्युदय की ओर ले जानेवाला) है। वह धर्म, अहिंसा, संयम और तपस्वरूप है। जिस भव्यात्मा के मन में ऐसा धर्म सदा निवास करता है, उसे देवता भी प्रणाम करते हैं। ____ 'धर्म' के स्वरूप का प्रतिपादन यदि पूर्वाग्रह से या अज्ञानपूर्वक होगा, तो निश्चितरूप से वह परिष्कृत एवं विश्वहितकारी नहीं हो सकेगा। इसीलिए धर्म-प्ररूपकों को पूर्वाग्रहों के उत्पादक राग-द्वेष से रहित (वीतरागी) एवं अज्ञानभावशून्य (सर्वज्ञ) होना अनिवार्य माना गया है। ऐसे महापुरुष जब भी किसी निश्छलहृदय जिज्ञासु को 'धर्म' का ज्ञान देंगे, तो निश्चय ही वह उसे आत्मसात् करके न केवल अपना जीवन मंगलमय बना लेगा; अपितु उसकी सुगंध से सम्पूर्ण-परिवेश को भी नंदनकानन बना देगा।
इस विधि से 'धर्म' को आत्मसात् करना ही प्रबुद्धता है, इसीलिए ज्ञानियों ने कहा है- “बुद्धेः फलमात्महितप्रवृत्ति:" अर्थात् यदि हमें बुद्धि (क्षयोपशम) के द्वारा धर्म का ज्ञान हुआ है, तो वह तभी सफल है, जब उसके द्वारा आत्महितकारी आचरण में व्यक्ति प्रवृत्त हो। जो अपने हित और अहित का विवेक ही नहीं कर सके, उस बुद्धि का क्या लाभ है? बुद्धि या ज्ञान सार्थक तभी है, तब वह अपने हित-अहित का विवेक कर हितकारी मार्ग को अपना में एवं अहितकारी विषयों का परित्याग कर दें। यही ज्ञान की सार्थकता या प्रामाणिकता है"हिताहित-प्राप्ति-परिहारसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत्”—-(परीक्षामुखसूत्र, 1/2) इस तत्त्वज्ञान से जो रहित हैं, वे एकमात्र दु:ख ही भोगते हैं; क्योंकि.
"तत्त्वज्ञान-विहीनानां दुःखमेव हि शाश्वतम्”– (क्षत्रचूड़ामणि, 6/2) धर्म को ऊपर से ओढ़ने की आवश्यकता भी नहीं है; जो ओढ़ा जाएगा, वह कृत्रिम होगा, अस्वाभाविक होगा।इसीलिए किसी वेष या लिंग में धर्म नहीं है और न ही वेषधारण करने से कोई धर्मात्मा बन सकता है। कहा भी है
"न लिंगं मोक्षकारणं ।" – (समयसार कलश, 9/238) "न लिंग धर्मकारणम् ।" – (मनुस्मृति, 6/66) "न वेषधारणं सिद्धेः कारणम् ।” – (हठयोग, 2/66)
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आडम्बरों का त्याग करके वस्तु-स्वभाव और आत्मस्वभाव पहिचानना और उसको पूर्वाग्रहरहित होकर स्वीकारना ही धर्मात्मा बनने की विधि है। इसीलिए आगमग्रन्थों में "वत्थुसहावो धम्मो" कहा गया है अर्थात् 'धर्म' वस्तु का स्वभाव है, समय और साधना से उसमें स्वत: प्रकट होगा, बाहर से नहीं लाना पड़ेगा। अहिंसा, संयम, तप, सत्य आदि आत्मा के स्वभाव हैं; इन्हें अपनाने से जीवन में स्वत: शांति एवं आनंद का वातावरण बनता है। इसके विपरीत हिंसा, झूठ आदि को अपनाने पर न तो आत्मा सुखी होता है
और न ही संयोग में विद्यमान शरीर भी उसे अनुकूल मानता है। शरीर में उच्च-नीच रक्तचाप, तनाव, अनिद्रा आदि अस्वास्थ्यकारी स्थितियों का जन्म हिंसा, झूठ आदि को अपनाने से ही होता है। अहिंसकवृत्ति अपनाने से जीवन में स्वत: सहज सुख-शांति का अनुभव होता है। क्योंकि “अत्ता चेव अहिंसा" अर्थात् है। आत्मा का स्वरूप ही अहिंसक है। साथ ही असत्य बोलने पर शरीर में रक्तचाप बढ़ जाता है, इसी आधार पर तो झूठ-पकड़नेवाली मशीन व्यक्ति के सत्य-असत्य-संभाषण की पहिचान करती है। संसार में कलह का वातावरण तभी निर्मित होता है, जब आत्मसंयम न हो। एक व्यक्ति यदि अपने उद्वेगों को संयमित रखे, तो दूसरे की कषायाग्नि भी अधिक देर तक प्रज्वलित नहीं रह सकती, उसे जलने के लिए हमारे प्रतिवादरूपी घी की आवश्यकता होती है। फिर भी हमारे ही मन में यदि परपदार्थों की इच्छा होगी, तो विवाद भी होगा। मात्र पाँच गाँवों को देने पर संतोष की बात कहनेवाले पांडवों की यदि इच्छा ही नहीं होती, तो क्या 'महाभारत' होता? और जब वे इच्छाओं का निरोध करने तपश्चरण के लिए शत्रुजयगिरि पर ध्यानस्थ थे, तो क्या कोई महाभारत हुआ? उल्टे महाभारत की कषाय से दहकते यवरोधन ने उनके ऊपर अंगीठी जलाकर अपना प्रतिशोध लेना चाहा, तो उन्होंने अपनी . क्षमारूपी जलधारा से उसका शमन कर स्व-पर-कल्याण का पथ प्रशस्त कर दिया था। अत: इच्छाओं को उद्वेग/प्रसार ही कलहोत्पादक है, जबकि 'इच्छानिरोधस्तप:' धर्म का रूप होकर सुख-शांति का प्रसारक है। - ये अहिंसा, संयम, तप आदि आत्मधर्म हैं। इनको अपनाना, जागृत करना ही 'धर्म' है। इसके लिए कहीं जाने की, कोई वेष धारण करने की आवश्यकता नहीं है। मात्र आत्मस्वभाव का आश्रय लेने की अपेक्षा है। - आज जो 'धर्म' को लेकर पारस्परिक वैमनस्य का वातावरण बन रहा है, उसके बारे में मनीषीप्रवर डॉ. नामवरसिंह जी ने हाल ही में एक बहुत सुन्दर निदर्शन प्रस्तुत किया है। 'महाभारत' ग्रंथ का 'धर्म' विषयक वह उद्धरण है
“धर्म यो बाधते धर्म, न च धर्म कुवर्त्म तत् ।
अविरोधात् तु सधर्म, स धर्म सत्यविक्रम: ।।" अर्थात् जो धर्म दूसरे को बाधा पहुँचाये, वह धर्म है ही नहीं, वह तो कुमार्ग (धर्म
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के विपरीत मार्ग) है, अधर्म है। आत्मधर्म से जो अविरोधी हो, वह वास्तविक धर्म है। वही सच्चा पुरुषार्थ है। भला प्रकाश प्रकाश का, अमृत अमृत का विरोधी कभी हो सकता है? कदापि नहीं, विरोध तो प्रकाश और अन्धकार में, अमृत और विष में हो सकता है। इसप्रकार धर्म का विरोधी तो अधर्म हो सकता है। जो विरोध/विसंवाद का पाठ पढ़ाये, वहं धर्म है ही नहीं, वह तो 'अधर्म' है। . परस्पर विरोध की बात जाति, संप्रदाय, वर्ग आदि की संकीर्णता में तो संभव है, 'धर्म' के वैश्विक उदाररूप में विरोध की संभावना ही नहीं है। अत: जो धर्म के नाम पर विरोध और वैमनस्य की बात करते हैं, वे साम्प्रदायिक हो सकते हैं, जातिवादी हो सकते हैं, वर्गविशेष के प्रचारक हो सकते हैं; किन्तु धर्मात्मा कभी नहीं हो सकते हैं। क्योंकि धर्मात्मा तो अहिंसक होता है, संयमी होता है, निरीहवृत्ति का धनी तपस्वी होता है। वर्तमान संदर्भो में 'धर्म' के स्वरूप के इस वैश्वरूप का मनन, चिंतन एवं अंगीकरण अनिवार्यत: अपेक्षित है।
विश्वधर्म का स्वरूप
शद्धोपयोगसिद्ध्यर्थं विश्वधर्मो विवेच्यते। अर्थ :- शुद्धोपयोग की सिद्धि के लिए गुरु स्वयं विश्वधर्म का निरूपण करते हैं। उत्तर :- धनस्य बुद्धेः समयस्य शक्तेः, नियोजनं प्राणिहिते सदैव ।
स्वाद्विश्वधर्म: सुखदो सुशान्त्यै, ज्ञात्वेति पूर्वोक्तविधिविधेयः ।। 242 ।। यतस्त्रिलोके स्वरसस्य पानं, स्याच्छुद्धचिद्रूपसुखस्य चर्चा ।
आचन्द्रतारार्कमितीह कीर्ति-ग्रह गृहे मंगलगीतवाद्यम् ।। 243 ।। ___ अर्थ :- भव्यजीवों को सदाकाल समस्त प्राणियों के हित के लिए ही अपने धन का, अपनी बुद्धि का, अपने समय का और अपनी शक्ति का उपयोग करना चाहिए। यही समस्त संसार का हित करनेवाला विश्वधर्म है। यही समस्त प्राणियों को सुख देनेवाला है और इसी धर्म को धारण करने से समस्त संसार को शांति प्राप्त होती है। यही समझकर समस्त जीवों को इस विश्वधर्म का पालन करते रहना चाहिये, क्योंकि इस विश्वधर्म का पालन करने से आत्मजन्य अनुपम-सुख की प्राप्ति होती है, चिदानंद-स्वरूप शुद्ध-आत्मा से उत्पन्न होनेवाले सुख की प्राप्ति होती है तथा (इसके परिणामस्वरूप) इस संसार में जब तक तारे और चन्द्रमा व सूर्य विद्यमान हैं, तब तक कीर्ति फैलती रहती है और तब तक ही घर-घर में मंगलगान होते रहते हैं।
-(साभार उद्धृत, 'भावत्रयफलप्रदर्शी', लेखक- स्व. आचार्य शांतिसागर जी के शिष्य स्व. आचार्य कुन्थुसागर जी, पृष्ठ 240-241, हिन्दी अनुवादक- स्व. पण्डित लालाराम शास्त्री)
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जगद्गुरु
-आचार्य विद्यानन्द मुनिराज
लोक में सर्वत्र गुरु की अचिन्त्य-महिमा मानी गई है। मात्र तीर्थंकर परमात्मा ही स्वयंप्रबुद्ध होने के कारण अपने गुरु स्वयं होते हैं, अन्यथा सभी के लिए आत्मिक उत्थान के निमित्त गुरु की अपेक्षा अनिवार्य होती है। यहाँ तक की लौकिक-कला-शिक्षा आदि में निष्णात बनने के लिए भी गुरु की अनिवार्यता मानी गई है। यदि कहीं कोई अपने आप किसी कला या विद्या को सीख भी लेता है, तो भी उसमें वह निखार या परिष्कार नहीं होता, जो कि किसी विशेषज्ञ-गुरु के सान्निध्य में विधिवत् प्रशिक्षण लेने पर आता है। उदाहरणस्वरूप हम मयूर का दृष्टांत ले सकते हैं। मयूर बहुत सुन्दर नृत्य करता है तथा उसके नृत्य को देखकर जनमानस मंत्रमुग्ध हो जाता है, फिर भी गुरु से प्रशिक्षण लिये बिना नृत्य करने के कारण नाचते समय उसका गुह्य-अंग दिखता है। इससे उसकी नृत्यकला उत्कृष्ट होते हुए भी दोषरहित नहीं कही जाती। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए ज्ञान-विज्ञान, कला-विद्या एवं आत्मिक उत्थान आदि सभी क्षेत्रों में योग्य-गुरु की अनिवार्य-अपेक्षा होती है। . 'गुरु' शब्द 'गु' और 'रु' – इन दो वर्गों को मिलाकर बनाया गया है। इस आधार पर नीतिग्रंथ में गुरु को अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करनेवाला माना गया है
गु-शब्दस्त्वन्धकारे च रु-शब्दस्तन्निवर्तकः। .
अन्धकारविनाशित्वाद् गुरुरित्यभिधीयते।। अर्थ :- 'गुरु' शब्द का अर्थ लगानेवालों ने 'गु' और 'रु' दोनों अक्षरों के क्रमश: अज्ञान-अन्धकार और तन्निवर्तक अर्थ करते हुए 'अन्धकार (अज्ञानरूप) के नाशयिता' को 'गुरु' कहा है। लोकप्रसिद्ध इस श्लोक में भी गुरु का यही स्वरूप प्रतिपादित किया गया है
“अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानांजनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:।।”
–(कातंत्र-रूपमाला, मंगलाचरण 5 ) अर्थ :- अज्ञानरूप अन्धकार से अन्धे हुये लोकचक्षुओं को जिन्होंने ज्ञानरूप
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अञ्जन की शलाका से उन्मीलित किया, उन गुरुओं को नमस्कार है।
विशेषत: धर्मसाधना के क्षेत्र में तो गुरु की अनिवार्य आवश्यकता ज्ञानियों ने प्रतिपादित की है
“विना गुरुभ्यो गुणवान्नरोऽपि, धर्मं न जानाति विचक्षणोऽपि ।
आकर्णदीर्घोज्ज्वललोचनोऽपि, दीपं बिना पश्यति नान्धकारे ।।" – (नीतिसार) अर्थ :- तीक्ष्ण-बुद्धिवाला गुणवान पुरुष भी गुरु के बिना उसीप्रकार धर्म का स्वरूप ज्ञात नहीं कर सकता, जिसप्रकार कानों तक लम्बी सुन्दर और निर्दोष आँखों वाला व्यक्ति यदि अन्धकार में आँखों को फाड़-फाड़कर देखे, तो भी बिना दीपक के उसे वस्तु दृष्टिगत नहीं होती। इसी बात को इन छोटे-छोटे वाक्यों में भी स्पष्ट किया गया है
“गुरोरेव प्रसादेन लभ्यते ज्ञानलोचन:।" अर्थ :- गुरु की ही प्रसन्नता (कृपा) से ज्ञानरूपी नेत्र प्राप्त होता है। इसीलिए ज्ञानी-गुरु को संसाररूपी सागर से पार उतारनेवाला कहा गया है
___ "भवाब्धेस्तारको गुरुः।" – (क्षत्रचूड़ामणि, श्लोक, 2/30) अर्थ :- गुरु ही संसार-सागर से तारनेवाला है। ऐसे ज्ञानी-गुरु का स्वरूप इस पद्य में प्रभावी ढंग से निरूपित किया गया है
"गुरव: पान्तु वो नित्यं ज्ञानदर्शन-नायका:।
चारित्रार्णव-गम्भीरा मोक्षमार्गोपदेशका: ।।" – (दशभक्ति, पृष्ठ 160) अर्थ :- जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के नायक होते हैं, गम्भीर चारित्रसमुद्र और मोक्षपथ के उपदेष्टा होते हैं, ऐसे ज्ञानी-गुरु हमें जीवन में प्राप्त हों।
ऐसे गुरु के संसर्ग में समय कब बीत जाता है, पता ही नहीं चलता तथा इनके बिना जीवन भार के समान प्रतीत होता है
योगे वियोगे दिवसे गुरूणां, अणोरणीयान् महतो महीयान् ।” अर्थ :- गुरु के संयोग में दिन छोटे से छोटा होता है और वियोग में बड़े से बड़ा लगता है। ___ गुरु की महिमा बतानेवाले जैन-वाङ्मय में अनेकों उद्धरण प्राप्त होते हैं, जिनमें से . कुछ प्रभावी उद्धरण निम्नानुसार हैं
__ 'गुरु की महिमा वरनी न जाय।
गुरु नाम जपों मन-वचन-काय ।।' – दिव-शास्त्र-गुरु-पूजन) "गुरु दिणयरु गुरु हिमकिरणु गुरु दीवउ गुरु देउ। अप्पहँ परहँ परंपरहँ जो दरिसावइ भेउ ।।"
–(आचार्य योगीन्द्रदेव)
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अर्थ :(सूर्य) हैं, गुरु ही चन्द्रमा है, गुरु दीपक हैं और गुरु ही देव हैं।
गुरु को प्रज्ञाचक्षु प्रदान करनेमें निमित्त बताकर उसे 'माता-पिता से भी श्रेष्ठतर' कहा गया है— “गर्भाधानाक्रियामात्रन्यूनौ हि पितरौ गुरु: । "
जो परम्परा से आत्मा और पर का भेद दशति हैं – ऐसे गुरु दिनकर
- (क्षत्रचूड़ामणि, द्वितीय लम्ब, श्लोक, 59 ) अर्थ :- नौ महीने नौ दिन माँ ने गर्भ में रखा, इसीलिए ही माता-पिता के उपकार हैं, अन्यथा जीवनभर सारे उपकार गुरु के ही हैं।
“गुरुर्विधाता गुरुरेव दाता, गुरु: स्वबन्धुर्गुरुरत्नसिन्धुः । गुरुर्विनेता गुरुरेव तातो, गुरुर्विमोक्षो हतकर्मपक्षः । । "
- ( चारुकीर्ति भट्टारक, गीतवीतराग, 9/5) अर्थ गुरु ही विधाता है, गुरु ही दाता है, गुरु ही स्वबन्धु है, गुरु ही रत्नों ( रत्नत्रय) का सिन्धु है, गुरु ही विनेता (मोक्षमार्गस्य नेतारं ) है, गुरु ही पिता है और क्या कहें गुरुदेव ही कर्मों का नाश करने में निमित्त हैं, इसलिए वे मोक्षस्वरूप हैं ।
अत: ऐसे परम-उपकारी गुरु का जो सम्मान नहीं करते, उनके प्रति महाकवि शूद्रक लिखते हैं
“ये सत्यमेव न गुरून् प्रतिमानयन्ति ।
तेषां कथं नु हृदयं न भिनत्ति लज्जा । । " – (मुद्राराक्षस, 3/33 )
-
अर्थ :यह सच है कि जो लोग गुरुजनों का सम्मान नहीं करते, उनका हृदय लज्जाविदीर्ण क्यों नहीं हो जाता ?
गुरु की गम्भीरता का यशोगान इस पद्य में अत्यंत प्रभावी रीति से किया गया है— “देवीं वाचमुपासते हि बहवः सारं तु सारस्वतं । जानीते नितरामसौ गुरुकुलक्लिष्टो मुरारिः कविः । । अब्धिर्लंघित एव वानरभटैः किन्त्वस्य गम्भीरतां । आपाताल - निमग्न- पीवरतनुर्जानाति मन्दराचल: ।।”
- ( आचार्य हेमचन्द्र सूरि )
अर्थ :- पल्लवग्राही पुस्तकी विद्या से अब तक अनेकों ने वाग्देवी की उपासना की है। सारस्वत-सार को मात्र गुरुकुल - वास में निवास करके आक्लिष्ट हुआ मुरारी कवि ही जानता है। कपिभटों ने समुद्र का लंघन तो किया, लेकिन क्या उसकी गहराई को जाना? नहीं जाना। उसकी गहराई को पाताल तक डूबा हुआ महान् मन्दराचल ही जानता है।
आचार्य योगीन्द्रदेव ने ‘अमृताशीति' ग्रंथ में समस्त तत्त्वज्ञान को 'गुरु-परम्परा से प्राप्त' कहकर गुरु की महिमा बताई है—
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वक्ष्यामि ते गुरुपरम्परया प्रयातम् ।। 34।।
गुरुसमय-नियोगात् प्रत्ययस्यापि हेतोः ।। 53 ।। गुरु की कृपा से ही अविनाशी ध्रुव. आत्मतत्त्व का ज्ञान और अनुभूति हो सकती है। ऐसा प्रतिपादन आचार्य योगीन्द्रदेव ने 'अमृताशीति' ग्रंथ के निम्नलिखित तीन पद्यों में किया है- ज्वर-जनन-जराणां वेदना यत्र नास्ति,
परिभवति न मृत्यु गतिर्नोगतिर्वा । तदतिविशदचित्तै: लभ्यतेगेऽपि तत्त्वम्,
गुरुगुण-गुरुपादाम्भोज-सेवाप्रसादात् ।। 56।। __अर्थ :- जो (तत्त्व) अकारादि स्वरों के समूह, विसर्ग, 'क' आदि व्यंजनाक्षरों आदि से रहित है; अहितकारी विभाव-परिणामों से रहित है, अविनाशी/नित्य है, संख्यातीत/अनन्त है; रस, अन्धकार, रूप, स्पर्श, गन्ध, जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि, अणुता-स्थूलता, दिशाओं के समूह (अर्थात् पूर्व-पश्चिम आदि क्षेत्र-भेद) से जो रहित है, (तथा) जहाँ ज्वर, जन्म, वृद्धावस्था की, वेदना नहीं है, (जहाँ) मृत्यु का प्रभाव नहीं है, गति-आगति-दोनों का जहाँ अभाव है; उस तत्त्व को श्रेष्ठ गुणोंवाले गुरुजनों के चरण-कमलों की सेवा के प्रसाद से अत्यन्त निर्मल मनवालों (साधकों) को (अपने) शरीर में भी प्राप्त हो जाता है।
गिरि-गहनगुहाद्यारण्य-शून्यप्रदेश, स्थितिकरणनिरोध-ध्यान-तीर्थोपसेवाप्रपठन-जप-होमैर्ब्रह्मणो नास्ति सिद्धि:,
मगय तदपरं त्वं भो ! प्रकारं गुरुभ्य: ।। 57 ।। अर्थ :-- पर्वतों, उनकी गहन गुफाओं एवं जंगल आदि के निर्जन-प्रदेशों में कायोत्सर्ग (स्थिति), इन्द्रियनिरोध, ध्यान (सरागी देवताओं का), तीर्थों के सेवन, (स्तोत्रादि के) पठन, जप, होम-इनसे; ब्रह्म (शुद्धात्म तत्त्व) की सिद्धि नहीं होती है; इसलिए हे शिष्य ! गुरुओं के पास रहकर दूसरे तरीके की खोज करो।
दृगवगमनलक्ष्म स्वस्य तत्त्वं समन्ताद्, गतमपि निजदेहे देहिभिर्नोपलक्ष्यम् । तदपि गुरुवचोभिर्बोध्यते तेन देव:,
गुरुरधिगततत्त्वस्तत्त्वत: पूजनीय: ।। 58।। अर्थ :- दर्शन व ज्ञान चिह्नवाले, निज परमात्मतत्त्व को, अपने शरीर में, शरीरधारी प्राणियों द्वारा, दृष्टिगोचर/अनुभूतिगम्य नहीं हो पाता है। वह (परमात्मतत्त्व) भी सद्गुरु के उपदेशों से ज्ञात हो जाता है। इस कारण से तत्त्वज्ञानी सद्गुरुदेव यथार्थत: पूजनीय हैं।
साक्षात् गुरु की महिमा तो अचिन्त्य है ही, स्थापना-निक्षेप के अंतर्गत निर्मापित गुरु की प्रतिमा आदि भी कार्यसाधक होती हैं, ऐसे दृष्टांत भारतीय सांस्कृतिक ग्रन्थों में
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अनेकत्र प्राप्त होते हैं। जैसे भिल्लराज एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसे ही साक्षात् गुरु मानकर धनुर्वेद-विद्या-साधन करता था, उसे इस मृत्तिकामय गुरुप्रसाद से विद्याएँ सिद्ध हो गई थीं—
"गुरुप्रदिष्टं नियम, सर्वकार्याणि साधयेत् ।
यथा च मृत्तिकाद्रोण: विद्यादानपरो भवेत् ।।" (व्रततिथिनिर्णय) अर्थ :- गुरु के द्वारा दिया गया नियम सभी कार्यों की सिद्धि कराता है। जैसेकि मिट्टी के बने हुए द्रोणाचार्य भी (एकलव्य को) विद्या-दान में समर्थ हुए थे। विशेषत: आत्मा का गुरु आत्मा ही अध्यात्मग्रन्थों में प्रतिपादित किया गया है—
"स्वयं हितप्रयोक्तृत्वात्, आत्मैव गुरुरात्मनः।" – (इष्टोपदेश, 34)। अर्थ :- निश्चयनय से आत्मा ही आत्मा का गुरु है, क्योंकि वह स्वयं ही स्वयं का हित कर सकता है। क्योंकि
_ 'यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किम् ।' अर्थात् जिसे स्वयं प्रबुद्धपना नहीं हो, शास्त्र या शिक्षक के द्वारा उसे ज्ञान नहीं दिया जा सकता।
“आत्मनो गुरुरात्मैव पुरुषस्य विशेषत: ।
यत् प्रत्यक्षानुमानाभ्यां श्रेयोऽसावनुविन्दते ।।"- (भागवत, 11/7/20) अर्थ :- इस संसार में प्राणियों का गुरु उनका अपना आत्मा ही है, विशेषरूप से पुरुष (मनुष्य) का। क्योंकि वह प्रत्यक्ष तथा अनुमान द्वारा अपने श्रेय को पहचान लेता है, प्राप्त कर लेता है। वास्तव में ऐसे आत्मगुरु तीर्थकरदेव होते हैं, इसीलिये उन्हें 'जगद्गुरु' कहा गया
“जगद्गुरु: जगतां जगति जगद्गुरुः।"
-(जिनसहस्रनाम की पं. आशाधरसूरिकृत टीका, 3/44, पृ. 163) अर्थ :- जगत् में रहनेवाले प्राणी-वर्ग के गुरु महान् धर्मोपदेशक को 'जगद्गुरु' कहते हैं।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि शिष्य कहे कि ये मेरे गुरु हैं', यह शोभनीय है; किंतु यह मेरा शिष्य है', —ऐसा कहना 'अधम गुरु' का लक्षण है।
'शेडवाल' में आचार्य शांतिसागर जी को किसी क्षुल्लक जी ने 'जगद्गुरु' एवं 'योगीन्द्रतिलक' विशेषण प्रयोग किये, तो आचार्यश्री ने तुरन्त टोक दिया कि ये विशेषण तीर्थंकर परमात्मा के हैं, हम जैसे सामान्य यतियों के लिए नहीं। हमारा तो तीन कम नौ करोड़ मुनियों के अंत में भी नम्बर लग जाये, तो भी मैं अपना सौभाग्य समझूगा। ___ आज की विशेषणप्रिय-परम्परा के लोग क्या इस घटना की गंभीरता को समझ पायेंगे?
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जैनधर्म में राष्ट्रधर्म की क्षमता विद्यमान है
-सत्यदेव विद्यालंकार
धर्म का सांस्कृतिक रूप
जैनधर्म दार्शनिक-सिद्धांतों की इतनी अपेक्षा नहीं रखता, जितनी अपेक्षा उसको अपने उस सांस्कृतिकरूप की है, जो लोकजीवन के व्यवहार के माध्यम से प्रकट होता है। उसके इस सांस्कृतिकरूप का निखार मानव-जीवन के युगों-युगों के प्रयोगात्मक-परिष्कार का परिणाम है। परिष्कार की इस प्रक्रिया का सूत्रपात सृष्टि के प्रारम्भकाल में हुआ और भगवान् महावीर तक वह प्रक्रिया निरन्तर व सतत चलती रही। प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने लोकव्यवहार की जो मर्यादा स्थिर की, उसमें परिवर्धन निरन्तर होते गये। इसीलिये तो उनके बाद से भगवान् महावीर के समय तक कुल 24 तीर्थंकरों का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है और सब लोकव्यवहार की मर्यादा का निरन्तर परिष्कार करते रहे हैं। भगवान् ऋषभदेव ने मानव-जीवन के नियमन और नियंत्रण के लिए साम्य-भावना को विशेष महत्त्व दिया। साम्य-भावना को ही गीता में आत्मोपम्य-दृष्टि कहा गया है और गीता का समत्व-योग' भी साम्य-भावना का ही समर्थक है। साम्य-भावना के बिना मानव-जीवन का व्यवहार निभ ही नहीं सकता। ___ परन्तु साम्य भावना को सब कुछ मानकर उससे सन्तुष्ट हो सकना भी सम्भव न हो सका। इस साम्य-भावना में से अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह आदि तत्त्वों का क्रमश: विकास हुआ और उनको विकसित करने का श्रेय है विभिन्न-समयों में प्रकट होने वाले तीर्थंकरों को। ये सब भावनात्मक-तत्त्व एक-दूसरे के पूरक हैं और उनकी पूर्णता से ही मानव-जीवन के लोकव्यवहार का पूर्णता को प्राप्त होना सम्भव हो सका है। साम्यमूलक-भावना को परिपूर्ण करने के लिए अहिंसा की आवश्यकता अनुभव की गई। अहिंसा-भावना के लिए 'सत्य' का आश्रय लेना आवश्यक हो गया। सत्य की प्रतिष्ठा के लिए 'अस्तेय' का सहारा आवश्यक हो गया। अस्तेय भावना की पूर्णता के लिए 'ब्रह्मचर्य' के रूप में इन्द्रिय-निग्रह आवश्यक समझा गया और इन्द्रिय-निग्रह अथवा ब्रह्मचर्य के लिए ही 'अपरिग्रह' का पालन अनिवार्य बन गया। इस प्रकार ये पाँचों व्रत मानव-जीवन के लोक-व्यवहार की पूर्णता के लिए आधारभूत-तत्त्व बन गए और उसकी परिपूर्णता के लिए
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उनको महाव्रतों का नाम दिया गया। महाव्रतों का पालन करनेवाले यति मुनि अथवा साधु के जीवन को मानव-जीवन की पूर्णता का यहाँ तक प्रतीक माना गया कि उसको ‘भगवान्' मानकर पूजा जाने लगा। यह पूजा वस्तुत: आत्मसाधना की पूर्णता की ही पूजा है। मानवजीवन के व्यवहार में इन तत्त्वों का समावेश जिस प्रक्रिया से हुआ, उसी से उस धर्म का परिष्कार अथवा निखार हुआ, जिसको जैनधर्म' कहा जाता है। इसप्रकार जैनधर्म को ऐसा धर्म मानना चाहिए, जो सदा ही परिवर्धनशील होने के कारण विकासोन्मुख रहा है। . सिद्धान्त और जीवन-व्यवहार
इसीलिये हमारी मान्यता यह है कि जैनधर्म अपने विशुद्धरूप में संस्कृतिप्रधान धर्म है। उसको उन धर्मों की तरह सिद्धान्त-प्रधान नहीं कहना चाहिए, जो लोक-व्यवहार से उदासीन रहकर केवल सिद्धान्तों की दार्शनिक-मीमांसा की भूल-भुलैया में भटकते रहते हैं और साधारणबुद्धि-मानव के लिए गूढ-पहेली बनकर रह जाते हैं। इसीकारण जैनधर्म मुख्यतया न तो शास्त्रपरक है, न व्यक्तिपरक है, न चमत्कारपरक है और न कालपरक है। ____ अन्य धर्मों की स्थिति ऐसी नहीं है। वे अधिकतर शास्त्रपरक हैं। उदाहरण के लिए वैदिक-धर्म के मूल-आधार वेद' हैं। इसीप्रकार ईसाई-धर्म का मूल-आधार 'बाइबिल', इस्लाम का कुरानशरीफ' और पारसी-धर्म का 'जिन्दावेस्ता' है। जैनधर्म किसी एक शास्त्र अथवा आगम तक सीमित नहीं है। व्यक्तिपरक से अभिप्राय यह है कि अन्य अधिकतर धर्म व्यक्तिविशेष की वाणी से आदेश या उपदेश के रूप में प्रकट हुए हैं। उदाहरण के लिए बौद्ध-धर्म का प्रादुर्भाव भगवान् बुद्ध से, ईसाई-धर्म का ईसा मसीह से, इस्लाम का हजरत मुहम्मद साहब से और पारसी-धर्म का 'जरथुस्त' से हुआ।
जैनधर्म की स्थिति यह नहीं है। वह किसी एक ही व्यक्तिविशेष की वाणी से प्रकट हुआ आदेश या उपदेश नहीं है। चमत्कारपरक से तात्पर्य यह है कि अनेक धर्म अपने अनुयायियों को चमत्कारों के चक्र में उलझाये रखते हैं। उनमें सिद्ध-पुरुषों की चमत्कारपूर्ण मोहमाया का जंजाल कुछ ऐसा फैला हुआ है कि साधारणबुद्धि-मानव उसमें उलझ जाता है और जादू-टोने तथा तंत्र-मंत्र आदि में ही धर्म की इतिश्री मान बैठता है। जैनधर्म में ऐसे जंजाल का कोई स्थान नहीं है। वह एकमात्र लोक-व्यवहार पर निर्भर है। वैदिक-धर्म की परिणति जब ब्राह्मण-धर्म के रूप में हुई, तब वह उस कर्मकाण्ड पर निर्भर रह गया, जिसका रूप अन्त में चमत्कारपरक ही बन गया। पुत्रैषणा, वित्तैषणा तथा लोकैषणा आदि सब की पूर्ति के लिए यज्ञपरक-कर्मकाण्ड का सहारा लिया जाने लगा। ब्राह्मणों के विविध प्रकार के यज्ञानुष्ठानों में उन दैवी-शक्तियों की कल्पना की गई, जिसके कारण उनको मानव की समस्त आकांक्षाओं की पूर्ति का साधन मान लिया गया। इसी कारण 'गीता' में श्रीकृष्ण ने भोगैश्वर्यप्रधान-कर्मकाण्ड का भयानकरूप में निषेध किया और उन्होंने वेदों को उस कर्मकाण्ड का मूल मानकर उनका प्रतिवाद करने में तनिक-भी संकोच नहीं किया।
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जैनधर्म में ऐसे कर्मकाण्ड का कोई स्थान नहीं है। कालपरक से अभिप्राय यह है कि अधिकतर धर्मों का प्रादुर्भाव कालविशेष तथा परिस्थितिविशेष में हुआ है। उनका महत्त्व भी कालविशेष तथा परिस्थितिविशेष तक ही सीमित है। वे कालातीत नहीं हैं और त्रिकाल की आवश्यकताओं की समानरूप से पूर्ति की उनमें क्षमता भी नहीं है। उनको एककालिक कहा जा सकता है, वे त्रिकालिक नहीं हैं।
इसी प्रसंग में एक और दृष्टि से भी विचार करना अनुचित न होगा। ब्राह्मण और श्रमण-संस्कृतियों में धार्मिक- दृष्टि से जो बड़ा अन्तर है और जिसको महाभाष्यकार ने 'शाश्वत-विरोध' कहा है, वह उनके नाम से भी स्पष्ट है। 'ब्राह्मण' शब्द का अभिप्राय ब्रह्मपरक-कर्मकाण्ड पर निर्भर व्यवस्था से है और 'श्रमण' शब्द श्रमपरक अथवा श्रम-प्रधान-व्यवस्था का बोधक है। श्रमण-संस्कृति हर व्यक्ति के अपने जीवन-व्यवहार पर निर्भर है, जब कि ब्राह्मण-संस्कृति की सम्पूर्ण-व्यवस्था व्यक्ति के अपने श्रम पर निर्भर न रहकर दूसरे के श्रम पर निर्भर होने से पराश्रित कही जा सकती है।
ब्राह्मण-संस्कृति के अनुसार ब्राह्मण द्वारा किया गया कर्मकाण्ड दूसरे के लिए भी फलदायक हो सकता है। पुरोहित की व्यवस्था यजमान के लिए इसी हेतु से की गई है कि वह उसके लिए धर्म-कर्म का यथाविधि अनुष्ठान करता है। ब्राह्मण धर्म-कर्म के लिए इसप्रकार दूसरों का एजेण्ट बन गया और दान-दक्षिणा आदि लेकर दूसरों के लिए धर्म-कर्म करने में लग गया। इसीकारण ब्राह्मण का धर्म-कर्म धार्मिक अनुष्ठान की अपेक्षा धार्मिक व्यवसाय अधिक बन गया। ब्राह्मण को दी गई दान-दक्षिणा और मन्दिरों आदि पर चढ़ावे आदि के अनुपात से धर्म-कर्म का पुण्य प्राप्त होने की भावना बद्धमूल हो गई। ब्राह्मण ने धर्म-कर्म के अनुष्ठान की सारी जिम्मेवारी अपने पर लेकर शेष-समाज को उससे विमुख कर दिया और स्वयं भी दान-दक्षिणा आदि पर निर्भर होने के कारण निठल्ला बन गया। यह निठल्लापन तब चरमसीमा पर पहुँच गया, जब धार्मिक व सामाजिक-व्यवस्था का मूल-आधार जन्म की आकस्मिक-घटना को मान लिया गया। 'ब्राह्मणत्व' की प्राप्ति के लिए जब ब्राह्मण के घर में पैदा होना पर्याप्त समझ लिया गया, तब उसके सम्पादन करने के लिए किसी भी प्रकार का श्रम करने की आवश्यकता नहीं रही। शूद्र के घर में पैदा होने वाले के लिए कितना भी श्रम करने पर शूद्रत्व से छुटकारा पाना सम्भव न रहा। सारांश यह है कि ब्राह्मण-धर्म की व्यवस्था में श्रम का महत्त्व नहीं रहा। ___ इसके विपरीत श्रमण-संस्कृति का मूल आधार वह श्रम है, जिसके द्वारा आत्मविकास में संलग्न-व्यक्ति अणुव्रतों और महाव्रतों का पालन करते हुए इसी जन्म में इसी तन के साथ भगवान् पद की प्राप्ति कर सकता है। उसके लिए तन को त्यागने के बाद ही मोक्ष-प्राप्ति की अनिवार्यता नहीं है। लोकभाषा में यह कहा जा सकता है कि जैनधर्म की मान्यता यह है कि 'जैसा करोगे, वैसा भरोगे'। अपने श्रम के अनुसार हर व्यक्ति को उसका परिणाम भोगना ही
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होगा। किसी भी कर्मकाण्ड द्वारा इस व्यवस्था को बदला नहीं जा सकता। हर व्यक्ति की आत्मसाधना उसके अपने श्रम पर निर्भर है। उसके लिए वह किसी दूसरे को दान-दक्षिणा देकर कमीशन-एजेण्ट अथवा ठेकेदार नहीं बना सकता। यह दोनों संस्कृतियों में मूलभूत-अन्तर है और इसी को महाभाष्यकार पतंजलि की परिभाषा में शाश्वत-विरोध कहा गया है। जैनधर्म की आत्मसाधना . इस भावना को दूसरे शब्दों में इसप्रकार व्यक्त किया जा सकता है कि जैनधर्म आत्मसाधना-प्रधान है। जिस 'जिन' शब्द से जैन शब्द का प्रादुर्भाव हुआ है उसका अर्थ है 'जितेन्द्रियता' अथवा 'ब्रह्मचर्य', जो इन्द्रियजन्य विषय-वासना के अपरिग्रह की पराकाष्ठा है। 'गीता' ने भी स्वीकार किया है कि “विषयाग्निर्न वर्द्धन्ते निराहारस्य देहिनः” अर्थात् आहार-व्यवहार में नियन्त्रण रखनेवाला ही इन्द्रियों के विषयों से मुक्त हो सकता है। आहार-व्यवहार के इस नियन्त्रण को 'गीता' में 'निराहार' कहा गया है। सब खान-पान तथा व्यवहार छोड़कर सर्वथा-एकांत में सिर्फ हवा पर तो निर्भर नहीं रहा जा सकता, किन्तु जैनधर्म अथवा श्रमण-संस्कृति के अनुसार महाव्रतों का पालन करते हुये अपरिग्रह की स्थिति तो मानव के लिये असंभव नहीं है। अणुव्रतों द्वारा इस आत्मसाधना का उपक्रम शुरू होता है और अन्त में महाव्रतों के माध्यम से वह चरम सीमा पर पहुँच सकता है। अपने को इस साधना में संलग्न करना ही जैनधर्म का व्यावहारिक रूप है और वही मानव के लिये अपने जीवन में ग्राह्य अथवा उपादेय है। . भगवान् महावीर के समकालीन जितेन्द्रियता के लिए अपरिग्रह का महत्त्व समझने वाले अन्य भी 'जिन' हुए हैं। परन्तु महावीर की बारह वर्ष की अटूट-तपस्या परम-साधना का उच्चतम-आदर्श उपस्थित करती है। इसीकारण उनको 'भगवान्' मानकर पूजा गया और यह भ्रान्त-धारणा सामान्य जनता में घर कर गई कि जैनधर्म के प्रवर्तक भगवान् महावीर हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आत्मसाधना का उच्चतम अनुकरणीय-आदर्श उपस्थित करके भगवान् महावीर ने श्रमण-संस्कृति के परिष्कार की प्रक्रिया को चरम सीमा पर पहुँचा दिया और उनकी उत्कृष्ट-जितेन्द्रियता अथवा अपरिग्रह की इस परम-साधना के ही कारण धर्म के लिए जैन' शब्द का व्यवहार प्रारम्भ हुआ। उनके काल में धर्म के इस नामकरण का अभिप्राय यह नहीं कि वे उसके प्रवर्तक हैं। वे तो इस परम्परा के 24वें तीर्थंकर ही हैं। उनके पूर्ववर्ती 23 तीर्थंकरों द्वारा भी धर्म-व्यवहार के परिष्कार की इस सांस्कृतिक-प्रक्रिया को निरन्तर प्रश्रय मिलता रहा है। ऐतिहासिक-सच्चाई और वास्तविक स्थिति यह है कि परिष्कार की यह प्रक्रिया जैनधर्म में भगवान् महावीर के बाद भी निरन्तर चालू रही है और उससे जैनधर्म का निरन्तर जो निखार होता रहा, उसी के कारण वह दूसरों के घोर-विरोध में भी टिका रहा और बौद्ध-धर्म की तरह अपने देश में नामशेष नहीं हुआ। जैनधर्म और बौद्धधर्म का यह तुलनात्मक-अध्ययन बड़ा ही उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है कि हमारे देश में
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इतने प्रबल-वेग से चारों ओर फैलनेवाला बौद्धधर्म अशोक, कनिष्क तथा हर्ष सरीखे प्रतापी सम्राटों का प्रश्रय पाकर भी क्यों नामशेष हो गया? और जैनधर्म की स्थिति क्यों यथावत् बनी रही? __ संक्षेप में यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होना चाहिए कि जैनधर्म का रूप व्यावहारिक-दृष्टि से निरन्तर साधनाप्रधान बना रहा और उसके इस रूप का भगवान् महावीर के बाद भी निरन्तर निखार होता रहा। 24 तीर्थंकरों द्वारा प्रश्रय-प्राप्त उत्क्रान्तिमूलक-परम्परा जैनधर्म में निरन्तर बनी रही और वह उसका निखार व परिष्कार करती रही। परन्तु बौद्धधर्म की स्थिति इससे सर्वथा विपरीत रही। उसमें हीनयान, महायान, मंत्रयान और वज्रयान आदि शाखाओं का प्रादुर्भाव उसके व्यावहारिकरूप को निरन्तर विकृत ही करता गया। परिणाम यह हुआ कि लोक-व्यवहार साधना-प्रधान न रहकर विषयवासना-प्रधान बन गया और वैसे ही बौद्धधर्म को ले डूबा, जैसे कि ब्राह्मणधर्म को भोगैश्वर्य-प्रधान कर्मकाण्ड ले डूबा। इस प्रकार जैनधर्म के अस्तित्व का मुख्य-आधार उसका साधनाप्रधान जीवन-व्यवहार है। सांस्कृतिक प्रयोगों का सार ____ अंत में संक्षेप में इतना कहना ही अभीष्ट है कि जैनधर्म का वर्तमानरूप मानव-जीवन में युगों तक किये गये सांस्कृतिक-प्रयोगों का सार अथवा निचोड़ है। उसको बिना किसी संकोच के परिवर्धनशील और इसीलिए परिवर्तनशील भी कहा जा सकता है। यह एक मत से स्वीकार किया गया है कि जिस धर्म को भगवान् महावीर के काल में 'जैन' नाम दिया गया, वह उनसे पूर्व भी विद्यमान था और उसको अन्य नामों से पुकारा जाता था। भगवान् नेमिनाथ और भगवान् पार्श्वनाथ के काल में उसको 'निर्ग्रन्थ' नाम से पुकारा जाता था। उनके काल में निर्ग्रन्थ-धर्म में अहिंसा के साथ-साथ तप और त्याग की भावना को अपरिहार्य-महत्त्व प्राप्त हुआ। बाहरी त्याग और तपस्या को आत्मशुद्धि तथा आत्मौपम्य साम्य-भावना की दृष्टि से जब पर्याप्त न समझा गया, तब आन्तरिक-वृत्तियों पर विजय पाने की आध्यात्मिक-भावना प्रबल हुई। भगवान् महावीर ने इस आध्यात्मिक-भावना को जीवन की साधना का प्रमुख-अंग बना दिया और मानव की आन्तरिक-प्रवृत्तियों पर पूर्ण-विजय प्राप्त करने के आदर्श को मूर्तरूप दे दिया। व्रतों तथा महाव्रतों की दृष्टि से जिस धर्म को केवल चार व्रत तथा महाव्रत होने के कारण से भी चातुर्याम' कहा जाता था, उसमें इस अध्यात्म-भावना के कारण पाँचवें व्रत तथा महाव्रत का समावेश हुआ और ये पाँचों व्रत तथा महाव्रत उसके मूलभूत-आधार बन गए। इसलिए यह स्वीकार करना होगा कि धर्म के विकासक्रम में वे भावनाएँ समाविष्ट होती रहती हैं, जो उत्तरोत्तर प्रकट होती हैं और मूलभूत-भावनाओं का विरोध न कर उनको प्रबल तथा सम्पुष्ट बनाने का ही काम करती है। धर्म-विकास का सम्पूर्ण इतिहास इसका साक्षी है और जिनधर्म का विकास-क्रम भी
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उसका समर्थक है । इस विकास क्रम को उस पेड़ से उपमा दी जा सकती है, जो ही अपने फूलों व फलों के विकास से उपयोगी एवं महत्त्वशाली बनता है
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इतिहास की चेतावनी और चुनौती
इस दृष्टि से यदि विचार किया जा सके, तो जैनधर्म के मूलभूत तत्त्वों की व्याख्या इस रूप में अवश्य ही की जानी चाहिए कि वे वर्तमानकालीन राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय- समस्याओं का सर्वसम्मत-हल उपस्थित कर सकें। जो धर्म अपने मौलिक तत्त्वों द्वारा वर्तमान युग की माँग अथवा •आवश्यकता की पूर्ति की सामर्थ्य खो बैठता है, उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। अन्य अनेक धर्मों का अस्तित्व इसीकारण खतरे में पड़ गया और इतिहास में वे नामशेष रह गये । इतिहास की यह एक चेतावनी अथवा चुनौती है । बौद्धधर्म तथा ब्राह्मणधर्म की तरह जैनधर्म पतनोन्मुखी न होकर सदैव उत्क्रान्तिमूलक रहा है और उसका अस्तित्व युग-युगान्तरों की विनाशकारी - परिस्थितियों में भी बना रहा है । इसीकारण इसको इतिहास की इस चेतावनी अथवा चुनौती पर समय रहते ध्यान देना ही चाहिये ।
स्पष्ट शब्दों में यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि जब समाज में धर्म से निराश होकर धर्मनिरपेक्ष-भावना प्रबल हो रही है, तब जैनधर्म के अनुयायियों को यह सिद्ध कर देना चाहिये कि उनका धर्म विकासोन्मुखी होने के कारण सदा ही विकासशील रहा है, हर युग की माँग तथा आवश्यकता की उसने पूर्ति की है और आज भी उसमें 'राष्ट्रधर्म' की आवश्यकता की पूर्ति करने की क्षमता विद्यमान है ।
समता व क्षमा, अहिंसा और स्याद्वाद् आदि आधारभूत सिद्धान्तों के सम्बन्ध में प्रस्तुत - - लेख में विचार नहीं किया गया है। सामायिक, साम्य - भावना अथवा समाजवाद का अत्यन्त उत्कृष्ट एवं शाश्वत आध्यात्मिकरूप है। जैनधर्म का साम्यभाव या समाजवाद केवल मानव-समाज तक सीमित नहीं है, प्राणिमात्र उसकी परिधि में समा जाते हैं । ब्राह्मणधर्म “नान्यः पन्था विद्यते अयनाय” अथवा “मामैकम् शरणं व्रज" के रूप में एकान्तवादी है, जबकि जैनधर्म उसके सर्वथा विपरीत है । वह विपक्षी के लिए भी अपने ही समान गुंजाइश रखता है। यदि दूसरे के लिए गुंजाइश रखकर जीवन - व्यवहार किया जाये, तो संघर्ष की संभावना नहीं रहती। एक नियत - दिवस पर ज्ञात-अज्ञात भूलों अथवा अवज्ञाओं के लिए हार्दिक क्षमा-याचना, विश्वबन्धुत्व तथा विश्वशांति की नींव बन सकती है।
इसप्रकार व्यावहारिकरूप में जैनधर्म की क्षमता असीम है। दुर्भाग्य यह है कि जैनधर्म के अभिमानी - लोगों में ही विश्वास, श्रद्धा तथा निष्ठा की कमी उसकी क्षमता के लिए घातक सिद्ध हो रही है। भारतीय - जीवन - महानद के दोनों किनारों को पुष्ट करने के बजाय हम उनको कमजोर करने में लगे हैं। इस वस्तुस्थिति को जितनी जल्दी समझा जा सकेगा, उतना ही हमारा कल्याण सुनिश्चित और सुरक्षित है।
- (साभार उद्धृत — 'बाबू छोटेलाल जैन स्मृति - ग्रन्थ', कलकत्ता, 1967 ई.)
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प्राकृत-अपभ्रंश शब्दों की अर्थवाचकता
___-डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य
__ भाषाई पूर्वाग्रह के कारण एवं सांप्रदायिक-विद्वेष की प्रबलता से इस देश में भाषा के आधार पर वर्गभेद किये गये, तथा ऊँच-नीच की भावना को बढ़ावा दिया गया। अपनी बात बड़ी करने के लिए अनेक प्रकार के कल्पित-तों का सहारा लिया गया। इतना ही नहीं, अपनी भाषा को दैवीय-शक्तिसम्पन्न एवं अन्य लोगों की भाषा को तुच्छ बताया गया। भाषिक-विकास की परम्परा में जबकि ऐसी किसी परिकल्पना को स्थान ही नहीं है, फिर भी अपने को श्रेष्ठ एवं दूसरे को हीन' बताने की संकुचित मानसिकता के कारण ऐसे प्रयत्न कई शताब्दियों तक चलते रहे।
खेद की बात तो यह है कि आज के वैज्ञानिक-युग में भी तथाकथित पढ़े-लिखे लोगों के द्वारा भी ऐसी चर्चा की जाती है। प्रतीत होता है कि संत एकनाथ ने इसी भाषाई वर्गभेद की पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहा था कि संस्कृत वाणी देवे केली, प्राकृत काय चारो पासुनि झाली।' तो प्राकृत आदि जनभाषाएँ क्या चोरों के द्वारा बनायी गई हैं?" अर्थात् ये भाषाएँ भी तो उन्हीं वर्णों और मात्राओं से निर्मित हैं, और इनसे भी अर्थबोध होता है, तब इन्हें समान-सम्मान क्यों नहीं दिया जाता है? भाषाओं के साम्प्रदायिकीकरण का यह दृष्टिकोण समाज और राष्ट्र की अस्मिता के लिए तो घातक है ही, भाषाविज्ञान एवं व्याकरण की दृष्टि से भी नितान्त अनुचित है। ___ एक निष्पक्ष मनीषी एवं भारतीय न्यायशास्त्र के अधिकारी प्रकाण्ड विद्वान् की सारस्वत-लेखनी से प्रसूत यह आलेख प्रत्येक व्यक्ति को गम्भीरतापूर्वक पठनीय एवं मननीय तो है ही; अपने | और समाज के दृष्टिकोण का अध्ययनकर अनुकरणीय भी है।
—सम्पादक 'शब्द अर्थ के वाचक हैं। यह सामान्यत: सिद्ध होने पर भी मीमांसक और वैयाकरणों का यह.आग्रह' है कि “सभी शब्दों में वाचकशक्ति नहीं है, किन्तु संस्कृत-शब्द ही साधु है
और उन्हीं में वाचकशक्ति है। प्राकृत, अपभ्रंश आदि शब्द असाधु हैं, उनमें अर्थप्रतिपादन की शक्ति नहीं है। जहाँ-कहीं प्राकृत या अपभ्रंश-शब्दों के द्वारा अर्थप्रतीति देखी जाती है, वहाँ वह शक्ति-भ्रम से ही होती है , या उन प्राकृतादि असाधु-शब्दों को सुनकर प्रथम ही संस्कृत-साधु-शब्दों का स्मरण आता है और फिर उनसे अर्थबोध होता है।" ___इसतरह शब्दराशि के एक बड़े भाग को वाचकशक्ति से शून्य' कहनेवाले इस मत में एक विचित्र साम्प्रदायिक-भावना कार्य कर रही है। ये संस्कृत-शब्दों को 'साधु' कहकर
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और इनमें ही वाचकशक्ति मानकर ही चुप नहीं हो जाते, किन्तु साधु-शब्द के उच्चारण को 'धर्म' और 'पुण्य' मानते हैं और उसे ही कर्त्तव्य-विधि में शामिल करते हैं तथा 'असाधु' अपभ्रंश-शब्दों के उच्चारण को शक्ति-शून्य' ही नहीं, ‘पाप का कारण' भी कहते हैं। इसका मूलकारण है संस्कृत में रचे गये वेद को 'धर्म्य' और 'प्रमाण' मानना तथा प्राकृत, पालि आदि भाषाओं में रचे गये जैन, बौद्ध आदि आगमों को 'अधर्म्य' और 'अप्रमाण' घोषित करना। स्त्री और शूद्रों को धर्म के अधिकारों से वंचित करने के अभिप्राय से उनके लिये संस्कृत-शब्दों का उच्चारण ही निषिद्ध कर दिया गया। नाटकों में स्त्री और शूद्र पात्रों के मुख से प्राकृत का ही उच्चारण कराया गया है। 'ब्राह्मण को साधु शब्द बोलना चाहिये, अपभ्रंश या म्लेच्छ-शब्दों का व्यवहार नहीं करना चाहिए' आदि विधिवाक्यों की सृष्टि का एक ही अभिप्राय है कि धर्म में वेद और वेदोपजीवी-वर्ग का अबाध-अधिकार कायम रहे। अधिकार के हथियाने की इस भावना ने वस्तु के स्वरूप में ही विपर्यास उत्पन्न कर देने का चक्र चलाया और एकमात्र संकेत के बल पर अर्थबाध करनेवाले शब्दों में भी जातिभेद उत्पन्न कर दिया गया। इतना ही नहीं, 'असाधु दुष्ट-शब्दों का उच्चारण वज्र बनकर इन्द्र की तरह जिह्वा को छेद देगा' —यह भी दिखाया गया। तात्पर्य यह कि वर्गभेद के विशेषाधिकारों का कुचक्र भाषा के क्षेत्र में भी अबाध-गति से चला। ___ वाक्यपदीय' (1-27) में शिष्ट-पुरुषों के द्वारा जिन शब्दों का उच्चारण हुआ है, ऐसे आगमसिद्ध-शब्दों को साधु' और 'धर्म का साधन' माना है। यद्यपि अपभ्रंश आदि शब्दों के द्वारा अर्थप्रतीति होती है, पर चूँकि उनका प्रयोग शिष्टजन आगमों में नहीं करते हैं; इसलिए वे 'असाधु' हैं।
तन्त्रवार्तिक' (पृ. 278) आदि में भी व्याकरणसिद्ध-शब्दों को साधु' और 'वाचकशक्तियुक्त' कहा है और साधुत्व का आधार वृत्तिमत्त्व (संकेत से अर्थबोध करना) को न मानकर व्याकरण-निष्पन्नत्व को ही अर्थबोध और साधुत्व का आधार माना गया है। इसतरह जब अर्थबोधक-शक्ति संस्कृत-शब्दों में ही मानी गई, तब यह प्रश्न स्वाभाविक था कि 'प्राकृत और अपभ्रंश आदि शब्दों से जो अर्थबोध होता है, वह कैसे?' इसका समाधान-द्राविड़ी प्राणायाम के ढंग से किया है। उनका कहना है कि 'प्राकृत आदि शब्दों को सुनकर पहले संस्कृत-शब्दों का स्मरण होता है और पीछे उनसे अर्थबोध होता है। जिन लोगों को संस्कृत-शब्दों का ज्ञान नहीं है, उन्हें प्रकरण, अर्थाध्याहार आदि के द्वारा लक्षणा से अर्थबोध होता है। जैसेकि बालक 'अम्मा अम्मा' आदि रूप से अस्पष्ट उच्चारण करता है, पर सुननेवालों को तद्वाचक मूल 'अम्ब' शब्द का स्मरण होकर ही अर्थप्रतीति होती है, उसीतरह प्राकृत आदि शब्दों से भी संस्कृत शब्दों का स्मरण करके ही अर्थबोध होता है। तात्पर्य यह कि कहीं पर साधु-शब्द के स्मरण के द्वारा, कहीं वाचकशक्ति के भ्रम से, कहीं प्रकरण और अविनाभावी-अर्थ का ज्ञान आदि निमित्त से
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होनेवाली लक्षणा से अर्थबोध का निर्वाह हो जाता है। इसतरह एक विचित्र साम्प्रदायिकभावना के वश होकर शब्दों में साधुत्व' और 'असाधुत्व' की जाति कायम की गई है। ___ 'किन्तु जब 'अन्वय' और 'व्यतिरेक' द्वारा संस्कृत-शब्दों की तरह प्राकृत और अपभ्रंश-शब्दों से स्वतन्त्रभाव से अर्थप्रतीति और लोकव्यवहार देखा जाता है, तब केवल संस्कृत-शब्दों को 'साधु' और 'वाचकशक्तिवाला' बताना पक्षमोह का ही परिणाम है। जिन लोगों ने संस्कृत-शब्दों को स्वप्न में भी नहीं सुना है, वे निर्बाधरूप से प्राकृत आदि भाषा-शब्दों से ही सीधा व्यवहार करते हैं। अत: उनमें वाचकशक्ति स्वत:सिद्ध ही माननी चाहिये। जिनकी वाचकशक्ति का उन्हें भान ही नहीं है, उन शब्दों का स्मरण मानकर अर्थबोध की बात करना व्यवहार-विरुद्ध तो है ही, कल्पनासंगत भी नहीं है। प्रमाद और अशक्ति से प्राकृत-शब्दों का उच्चारण उन लोगों का तो माना जा सकता है, जो संस्कृत-शब्दों को धर्म मानते हैं, पर जिन असंख्य व्यवहारी लोगों की भाषा ही प्राकृत और अपभ्रंशरूप लोकभाषा है और यावज्जीवन वे उसी से अपनी लोकयात्रा चलाते हैं, उनके लिए प्रमाद और अशक्ति से भाषाव्यवहार की कल्पना अनुभव-विरुद्ध है। बल्कि कहीं-कहीं तो जब बालकों को संस्कृत पढ़ाई जाती है, तब वृक्ष अग्नि' आदि संस्कृत शब्दों का अर्थबोध रूख आगी' आदि अपभ्रंश-शब्दों से ही कराया जाता है। ___ अनादि-प्रयोग, विशिष्टपुरुष-प्रणीतता, बाधा-रहितता, विशिष्टार्थ-वाचकता और प्रमाणान्तर-संवाद आदि धर्म संस्कृत की तरह प्राकृतादि के शब्दों में भी पाये जाते हैं। यदि संस्कृत-शब्द के उच्चारण से ही धर्म होता हो; तो अन्य व्रत, उपवास आदि धर्मानुष्ठान व्यर्थ हो जाते हैं। 'प्राकृत' शब्द स्वयं अपनी स्वाभाविकता और सर्वव्यवहार-मूलकता को कह रहा है। संस्कृत' का अर्थ है 'संस्कार किया हुआ' और 'प्राकृत' का अर्थ है 'स्वाभाविक' । किसी विद्यमान वस्तु में कोई विशेषता लाना ही 'संस्कार' कहलाता है। और वह इस अर्थ में कृत्रिम ही है। ___ "प्रकृति: संस्कृतम्, तत्र भवं तत आगतं प्राकृतम्" प्राकृत की यह "व्युत्पत्ति व्याकरण की दृष्टि से है। पहले संस्कृत के व्याकरण बने हैं और पीछे प्राकृत के व्याकरण। अत: व्याकरण-रचना में संस्कृत-शब्दों को प्रकृति मानकर वर्णविकार, वर्णागम आदि से प्राकृतं और अपभ्रंश के व्याकरण की रचनाएँ हुई हैं। किन्तु प्रयोग की दृष्टि से तो "प्राकृत-शब्द ही स्वाभाविक और जन्मसिद्ध हैं। जैसे कि मेघ का जल स्वभावत: एकरूप होकर भी नीम, गन्ना आदि विशेष-आधारों में संस्कार को पाकर अनेकरूप में परिणत हो जाता है, उसीतरह स्वाभाविक सबकी बोली प्राकृतभाषा पाणिनि आदि के व्याकरणों से संस्कार को पाकर उत्तरकाल में संस्कृत आदि नामों को पा लेती है। पर इतने मात्र से वह अपने मूलभूत प्राकृतशब्दों की अर्थबोधक-शक्ति को नहीं छीन सकती।
अर्थबोध के लिए संकेत ही मुख्य-आधार है। जिस शब्द का, जिस अर्थ में, जिन लोगों
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ने संकेत-ग्रहण कर लिया है, उन शब्दों से उन लोगों को उस अर्थ का बोध हो जाता है' यह एक साधारण-नियम है। यदि ऐसा न होता, तो संसार में देश-भेद से सैकड़ों प्रकार की भाषाएँ न बनतीं। एक ही पुस्तकरूप अर्थ का 'ग्रन्थ, किताब, पोथी' आदि अनेक देशीय-शब्दों से व्यवहार होता है और अनादिकाल से उन शब्दों के वाचकव्यवहार में जब कोई बाधा या असंगति नहीं आई, तब केवल संस्कृत-शब्द में ही वाचक-शक्ति मानने का दुराग्रह और उसीके उच्चारण से धर्म मानने की कल्पना तथा स्त्री और शूद्रों को संस्कृत-शब्दों के उच्चारण का निषेध आदि वर्ग-स्वार्थ की भीषण-प्रवृत्ति के ही दुष्परिणाम हैं। धर्म और अधर्म के साधन किसी जाति और वर्ग के लिए जुदे नहीं होते। जो ब्राह्मणं यज्ञ आदि के समय संस्कृत-शब्दों का उच्चारण करते हैं, वे ही व्यवहारकाल में प्राकृत और अपभ्रंश-शब्दों से ही अपना समस्त जीवन-व्यवहार चलाते हैं। बल्कि हिसाब लगाया जाये, तो चौबीस घंटों में संस्कृत-शब्दों का व्यवहार पाँच प्रतिशत से अधिक नहीं होता होगा। व्याकरण के बन्धनों में भाषा को बाँधकर उसे परिष्कृत और संस्कृति बनाने में हमें कोई आपत्ति नहीं है। और इसतरह वह कुछ विशिष्ट वाग-विलासियों की ज्ञान और विनोद की सामग्री भले ही हो जाये, पर इससे शब्दों की सर्वसाधारण वाचकशक्तिरूप-सम्पत्ति पर एकाधिकार नहीं किया जा सकता। 'संकेत के अनुसार संस्कृत भी अपने क्षेत्र में वाचकशक्ति की अधिकारिणी हो, और शेष-भाषाएँ भी अपने-अपने क्षेत्र में संकेताधीन वाचकशक्ति की समान अधिकारिणी रहें' —यही एक तर्कसंगत और व्यवहारी-मार्ग है। ___ शब्द की साधुता का नियामक है – 'अवितथ अर्थात् सत्य अर्थ का बोधक होना', न कि उसका संस्कृत होना । जिसप्रकार संस्कृत शब्द 'यति' अवितथ अर्थात् सत्य अर्थ का बोधक होने से 'साधु' हो सकता है, तो उसी तरह प्राकृत और अपभ्रंश भाषाएँ. भी सत्यार्थ का प्रतिपादन करने से 'साधु' बन सकती हैं। ___ जैन-परम्परा जन्मगत-जातिभेद और तन्मूलक विशेष-अधिकारों को स्वीकार नहीं करती। इसीलिए वह वस्तुविचार के समय इन वर्गस्वार्थ और पक्षमोह के रंगीन-चश्मों को दृष्टि पर नहीं चढ़ने देती और इसीलिए अन्य-क्षेत्रों की तरह भाषा के क्षेत्र में भी उसने अपनी निर्मल-दृष्टि से अनुभव-मूलक सत्य-पद्धति को ही अपनाया है। __ शब्दोच्चारण के लिए जिह्वा, तालु और कंठ आदि की शक्ति और पूर्णता अपेक्षित होती है और सुनने के लिए श्रोत्र-इन्द्रिय का परिपूर्ण होना। ये दोनों इन्द्रियाँ जिस व्यक्ति के भी होंगी, वह बिना किसी जातिभेद के सभी शब्दों का उच्चारण कर सकता है और सुन सकता है और जिन्हें जिन-जिन शब्दों का संकेत गृहीत है, उन्हें उन-उन शब्दों को सुनकर अर्थबोध भी बराबर होता है। स्त्री और शूद्र संस्कृत न पढ़ें तथा द्विज ही पढ़ें - इसप्रकार के विधि-निषेध केवल वर्गस्वार्थ की भित्ति पर आधारित हैं। वस्तुस्वरूप-विचार में इनका कोई उपयोग नहीं है, बल्कि ये वस्तु-स्वरूप को विकृत ही कर देते हैं।
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पाद-टिप्पणी1. “गवादय एव साधवो न गाव्यादयः इति साधुत्वरूपनियमः।" - (शास्त्रदी. 1/3/27) 2. 'न चापभ्रंशानामवाचकतया कथमर्थावबोध इति वाच्यम्, शक्तिभ्रमवतां बाधकाभावात् ।
विशेषदर्शिनस्तु द्विविधा:-तत्तद्वाचकसंस्कृतविशेषज्ञानवंत: तद्विकलाश्च। तत्र आद्यानां
साधुस्मरणद्वारा अर्थबोध: ।' -(शब्दकौस्तुभ, पृ. 32) 3. 'इत्थं च संस्कृत एव शक्तिसिद्धौ शक्यसम्बन्धस्वरूपवृत्तेरपि तत्रैव भावातत्त्वं साधुत्वम् ।'
-वैयाकरणभूषण, पृ. 249) 4. 'शिष्टेभ्य आगमात् सिद्धा: साधवो धर्मसाधनम्।' – (वाक्यपदीय, 1/27) 5. 'तस्माद् ब्राह्मणेन न म्लेच्छित वै नापभाषित वै, म्लेच्छो ह वा एष अपशब्द: ।'
-(पातंजल महाभाष्य, पस्पशाह्निक) 6. 'स वाग्वज्री यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रु: स्वरतोऽपराधात् ।' - (पातंजल महाभाष्य, पस्पशाह्निक) 7. देखो, न्यायकुमुदचन्द्र, पृ. 762 । 8. म्लेच्छादीनां साधुशब्दपरिज्ञानाभावात् कथं । तद्विषया स्मृति:, तदभावे न गोऽर्थप्रतिपत्ति:
स्यात् ।' -(तत्त्वोपप्लवसिन्धु, पृ. 124) 9. 'विपर्ययदर्शनाच्च ।' – (वादन्यायटीका, पृ. 105) 10. देखो, हेम. प्र. प्राकृतसर्वस्व, प्राकृतचन्द्रिका वाग्भट्टा. टी. 2/2 । . नाट्यशास्त्र 17/2। त्रिविक्रम प्राकृत, पृष्ठ ।। 11. 'प्राकृतेति-सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कार: सहजो वचनव्यवहारः प्रकृति:,
तत्र भवं सैव वा प्राकृतम् । ‘आरिसवयणसिद्धदेवाणं अद्धमग्गहा वाणी' इत्यादिवचनाद्वा प्राक् पूर्वं प्राक्कृतम्, बालमहिलादिसकलभाषानिबन्धनभूतं वचनमुच्यते मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदेव च देशविशेषात् संस्कारकरणाञ्च समासादितविशेषं सत् संस्कृताद्युत्तरविभेदानाप्नोति । अंत एवं शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निर्दिष्टं तदनु संस्कृतादीनि । पाणिन्यादिव्याकरणोदितशब्दलक्षणेन संस्करणात् संस्कृतमुच्यते ।' – (काव्यालंकार रुद्रट, नमिसाधु 2/22) -- (जैनदर्शन', प्रकाशक-श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला 2, 7, पृ. 373-379 ) **
गर्भवती महिलाओं को पालतू जानवरों को पास रखने की मनाही ___म्यूनिख : गर्भवती महिलाओं को अपने पालतू पशु-पक्षियों का आलिंगन करने से बचना चाहिए। उन्हें इन पालतू पशु-पक्षियों के चमड़े और पंखों को खासकर मुँह के आसपास नहीं लगाना चाहिए। एपोथेकेन उम्सशाऊ पत्रिका ने कहा है कि कुत्तों, बिल्लियों, चूहों और घास पर फुदकने वाली चिड़ियों से मनुष्यों में लगभग साठ प्रकार की बीमारियों का संक्रमण हो सकता है। पत्रिका के अनुसार यही सबसे बड़ा कारण है कि ऐसे पालतू पशु-पक्षियों को बिछावन से दूर रखा जाता है। रिपोर्ट में बताया गया है कि यदि किसी घर में पालतू पशु-पक्षी रखे गए हैं, तो उस घर की गर्भवती महिला को वृद्धजनों के स्वास्थ्य के प्रति विशेष ध्यान देना चाहिए।
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भगवान् महावीर के व्यक्तित्व का दर्पण: _ 'वड्हमाण-चरित'
-प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन परम्परा और सोत
पुरातन-काल से ही श्रमण-महावीर का पावन-चरित कवियों के लिए एक सरस एवं लोकप्रिय-विषय रहा है। तिलोयपण्णत्ती' प्रभृति शौरसेनी-आगम-साहित्य के बीज-सूत्रों के आधार पर दिगम्बर-कवियों एवं 'आचारांग' आदि अर्धमागधी-आगम-ग्रन्थों के आधार पर श्वेताम्बर-कवियों ने समय-समय पर विविध-भाषाओं में महावीर-चरितों का प्रणयन किया है।
दिगम्बर महावीर-चरितों में संस्कृत-भाषा में आचार्य गुणभद्रकृत उत्तरपुराणान्तर्गत 'महावीरचरित' (10वीं सदी), महाकवि असगकृत वर्धमानचरित्र' (11वीं सदी), पण्डित आशाधरकृत त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्रम्' के अन्तर्गत महावीर-पुराण, (13वीं सदी), आचार्य दामनन्दीकृत पुराणसारसंग्रह (11वीं सदी) के अन्तर्गत महावीरपुराण, भट्टारक सकलकीर्ति कृत वर्धमानचरित' (16वीं सदी) एवं पद्मनन्दीकृत वर्धमानचरित (अप्रकाशित, सम्भवत: 15वीं सदी) प्रमुख हैं। ___ दाक्षिणात्य'-कवियों में केशव, पद्म, आचण्ण एवं वाणीवल्लभकृत ‘महावीरचरित' उल्लेखनीय हैं।
अपभ्रंश-भाषा में आचार्य पुष्पदन्तकृत महापुराणान्तर्गत वड्ढमाणचरिउ (10वीं सदी), विबुधश्रीधरकृत वड्ढमाणचरिउ (वि.सं. 1190), महाकवि रइधूकृत महापुराणान्तर्गत महावीरचरिउ एवं स्वतन्त्ररूप से लिखित सम्मइजिणचरिउ" (15वीं सदी), जयमित्रहलकृत वड्ढमाणकव्व (अप्रकाशित, 14-15वीं सदी के आसपास), तथा कवि नरसेनकृत वड्ढमाणकहा" (16वीं सदी) प्रमुख हैं। ___ जूनी-गुजराती में महाकवि पदमकृत महावीर-रास' (प्रकाशित, 17वीं सदी) तथा बुन्देली-हिन्दी में नवलशाहकृतवर्धमानपुराण' (19वीं सदी) प्रमुख हैं। ___श्वेताम्बर-परम्परा में अर्धमागधी-प्राकृतागमों में उपलब्ध महावीर-चरितों के अतिरिक्त स्वतन्त्ररूप में प्राकृतभाषा में लिखित श्री देवेन्द्रगणिकृत 'महावीरचरियं" (10वीं सदी),
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श्री सुमतिवाचक के शिष्य गुणचन्द्रकृत महावीरचरियं (10-11वीं सदी) तथा देवभद्रसूरिकृत 'महावीरचरियं' तथा शीलांकाचार्यकृत चउप्पन्नमहापुरिसचरियं के अन्तर्गत वड्ढमाणचरियं (वि.सं. 925) प्रमुख हैं। अपभ्रंश-भाषा में जिनेश्वरसूरि के शिष्य द्वारा विरचित महावीरचरिउ" महत्त्वपूर्ण रचना है।
संस्कृत-भाषा में जिनरत्नसूरि के शिष्य अमरसूरिकृत 'चतुर्विंशतिजिनचरित्रान्तर्गत' 'महावीरचरितम् (13वीं सदी), हेमचन्द्राचार्यकृत त्रिषष्टिशलाकापुरुष-चरितान्तर्गत महावीरचरित (13वीं सदी) तथा मेरुतुंगकृत महापुराण' के अन्तर्गत महावीरचरितम्" (14वीं सदी) उच्चकोटि की रचनाएँ हैं। ___ उक्त वर्धमानचरितों में से प्रस्तुत 'वड्ढमाणचरिउ' की कथा का मूलस्रोत आचार्य गुणभद्रकृत उत्तरपुराण' के 74वें पर्व में ग्रथित 'महावीरचरित्र' एवं महाकवि असगकृत 'वर्धमानचरित्र' है। यद्यपि विबुध श्रीधर ने इन स्रोत-ग्रन्थों का उल्लेख 'वड्ढमाणचरिउ' में नहीं किया है, किन्तु तुलनात्मक अध्ययन करने से यह स्पष्ट है कि उसने उक्त वर्धमानचरित्रों से मूल-कथानक ग्रहण किया है। इतना अवश्य है कि कवि श्रीधर ने उक्त स्रोत-ग्रन्थों से घटनाएँ लेकर आवश्यकतानुसार उनमें कुछ कतर-ब्यौंत कर मूलकथा को सर्वपृथक् स्वतन्त्र, अपभ्रंश-काव्योचित बनाया है। ___ गुणभद्र ने मधुवन-निवासी भिल्लराज पुरुरवा के भवान्तर-वर्णनों से अपना ग्रन्थारम्भ किया है। गुणभद्र द्वारा वर्णित सती चन्दनाचरित", राजा श्रेणिकचरित" एवं अभयकुमारचरित", राजा चेटक एवं रानी चेलनाचरित', जीवन्धरचरित", राजा श्वेतवाहन”, जम्बूस्वामी, प्रीतिंकर मुनि", कल्किपुत्र अजितंजय तथा आगामी तीर्थंकर आदि शलाकापुरुषों के चरितों के वर्णन" कवि असग की भाँति ही विबुध श्रीधर ने भी अनावश्यक समझकर छोड़ दिये हैं । गुणभद्र ने मध्य एवं अन्त में दार्शनिक, आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक एवं आचारमूलक विस्तृत-विवेचन किया है।
किन्तु विबुध श्रीधर ने ग्रन्थ के मध्य में तो उपर्युक्त विषयों से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक-नामोल्लेख मात्र करके ही काम चला लिया है तथा अन्त में भी सैद्धान्तिक एवं दार्शनिक विषयों को संक्षिप्तरूप में प्रस्तुत किया है। भवावलियों को भी उसने संक्षिप्तरूप में उपस्थित किया है। इसकारण कथानक अपेक्षाकृत अधिक सरस एवं सहज-ग्राह्य बन गया है। ___ कवि श्रीधर ने कथावस्तु के गठन में यह पूर्ण-प्रयास किया है कि प्रस्तुत पौराणिक-सम्बन्ध-स्थापन तथा अन्तर्कथाओं का यथास्थान-संयोजन कुशलतापूर्वक किया जाय । विविध पात्रों के माध्यम से लोक-जीवन के विविध-पक्षों की सुन्दर-व्याख्या प्रस्तुत की गयी है। कथावस्तु के रूप-गठन में कवि ने योग्यता, अवसर, सत्कार्यता एवं रूपाकृति नामक तत्त्वों का पूर्ण ध्यान रखा है।
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कुछ ऐतिहासिक तथ्य ____ विबुध श्रीधर साहित्यकार होने के साथ-साथ इतिहासवेत्ता भी प्रतीत होते हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में कुछ ऐसे ऐतिहासिक तथ्य प्रस्तुत किये हैं, जो गम्भीर रूप से विचारणीय हैं। उनमें से कुछ तथ्य निम्नप्रकार हैं(1) ‘इल' गोत्र एवं मुनिराज श्रुतसागर।' (2) त्रिपृष्ठ एवं हयग्रीव के युद्ध-प्रसंगों में मृतक योद्धाओं की बन्दीजनों (चारण-भाटों)
द्वारा सूचियों का निर्माण। (3) दिल्ली के प्राचीन नाम—'ढिल्ली' का उल्लेख । (4) तोमरवंशी राजा अनंगपाल एवं हम्मीर वीर का उल्लेख।
1. कवि श्रीधर ने राजा नन्दन के मुख से मुनिराज श्रुतसागर को सम्बोधित कराते हुए उन्हें 'इल-परमेश्वर' कहलवाया है।" यह इल' अथवा 'इल-गोत्र' क्या था, और इस परम्परा में कौन-कौन से महापुरुष हुए हैं, कवि ने इसकी कोई सूचना नहीं दी। किन्तु हमारा अनुमान है कि कवि का संकेत उस वंश-परम्परा की ओर है, जिसमें कलिंग-सम्राट् खारवेल (ई.पू. द्वितीय सदी) हुआ था। खारवेल ने हाथीगुम्फा-शिलालेख में अपने को ऐर' अथवा 'ऐल' वंश का कहा है। यह वंश शौर्य-वीर्य एवं पराक्रम में अद्वितीय माना जाता रहा है। राजस्थान की परमार-वंशावलियों में भी कलिंग-वंश का उल्लेख मिलता है। प्रतीत होता है कि परिस्थितिविशेष के कारण आगे-पीछे कभी खारवेल का वंश पर्याप्त-विस्तृत होता रहा तथा उसका ऐर' अथवा ऐल' गोत्र भी देश, काल एवं परिस्थितिवश परिवर्तित होता गया। गोइल्ल, चांदिल्ल, गोहिल्य, गोविल, गोयल, गुहिलोत, भारिल्ल, कासिल, वासल, मित्तल, जिन्दल, तायल, बुन्देल, बाघेल, रुहेल, खेर . आदि गोत्रों अथवा जातियों में प्रयुक्त इल्ल, इल, यल, अल, एल तथा एर या ऐर उक्त इल अथवा एल के ही विविध रूपान्तर प्रतीत होते हैं। सम्भवत: खार+व+एल इस नाम से भी विदित होता है। जो कुछ भी हो, यह निश्चित है कि 'इल' अथवा 'एल' वंश पर्याप्त प्रतिष्ठित एवं प्रभावशाली रहा है। 11वीं 12वीं सदी में भी वह पर्याप्त प्रसिद्धि प्राप्त रहा होगा, इसीलिए कवि ने सम्भवत: उसी वंश के मुनिराज श्रुतसागर के 'इल' गोत्र का विशेषरूप से उल्लेख किया है। ___ 2. विबुध श्रीधर उस प्रदेश का निवासी था, जो सदैव ही वीरों की भूमि बनी रही और उसके आसपास निरन्तर युद्ध चलते रहे। कोई असम्भव नहीं, यदि उसने अपनी आँखों से कुछ युद्धों को देखा भी हो, क्योंकि 'वड्ढमाणचरिउ' में त्रिपृष्ठ एवं हयग्रीव के बीच हुए युद्ध", उनमें प्रयुक्त विविध प्रकार के शस्त्रास्त्र", मन्त्रि-मण्डल के बीच में "साम, दाम, दण्ड और "भेद-नीतियों के समर्थन एवं विरोध में प्रस्तुत किये गये विभिन्न प्रकार के तर्क, "रणनीति, संव्यूह-रचना" आदि से यह स्पष्ट विदित होता है।
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'वडढमाणचरिउ' में कवि ने लिखा है कि-"चिरकाल तक रण की धुरी को धारण करनेवाले मृतक हुए तेजस्वी नरनाथों की सूची तैयार करने हेतु बन्दीजनों (चारण-भाटों) ने उनका संक्षेप में कुल एवं नाम पूछना प्रारम्भ कर दिया।
कवि की यह उक्ति उसकी मानसिक-कल्पना की उपज नहीं है। उसने प्रचलित परम्परा को ध्यान में रखकर ही उसका कथन किया है। बन्दीजनों अथवा चारण-भाटों के कर्तव्यों में एक कर्तव्य यह भी था कि वे वीर-पुरुषों (मृतक अथवा जीवित) की वंश-परम्परा तथा उनके कार्यों का विवरण रखा करें। राजस्थान में यह परम्परा अभी भी प्रचलित है। वहाँ के चारण-भाटों के यहाँ वीर-पुरुषों की वंशावलियाँ, उनके प्रमुख-कार्य तथा तत्कालीन महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ-सामग्रियाँ भरी पड़ी हैं। मुहणोत नैणसी (वि.सं. 1667-1727) नामक एक जैन-इतिहासकार ने उक्त कुछ सामग्री का संकलन-सम्पादन किया था जो 'मुहणोत नैणसी री ख्यात'' के नाम से प्रसिद्ध एवं प्रकाशित है। राजस्थान तथा उत्तर एवं मध्यभारत के इतिहास की दृष्टि से यह संकलन अद्वितीय है। कर्नल टॉड ने इस सामग्री का अच्छा सदुपयोग किया और राजस्थान का इतिहास लिखा। किन्तु उक्त ख्यातों में जितनी सामग्री संकलित है, उसकी सहस्रगुनी सामग्री भी अप्रकाशित ही है। उसके प्रकाशन से अनेक नवीन ऐतिहासिक तथ्य उभरेंगे। इतिहास-लेखन के क्षेत्र में इन चारण-भाटों का अमूल्य-योगदान विस्मृत करना समाज की सबसे बड़ी कृतघ्नता होगी। विबुध श्रीधर ने समकालीन चारण-भाटों के उक्त-कार्य का विशेषरूप से उल्लेख कर उनके प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की है। ___3. विबुध श्रीधर ने अपना परिचय देते हुए लिखा है कि वह यमुना नदी पार करके हरयाणा से दिल्ली आया था। 'दिल्ली' नाम पढ़ते-पढ़ते अब 'ढिल्ली' यह नाम अटपटा-जैसा लगने लगा है। किन्तु यथार्थ में ही दिल्ली का पुराना नाम ढिल्ली' एवं उसके पूर्व उसका नाम 'किल्ली' था। 'पृथ्वीराजरासो' के अनुसार पृथ्वीराज चौहान की माँ तथा तोमरवंशी राजा अनंगपाल की पुत्री ने पृथ्वीराज को किल्ली—ढिल्ली का इतिहास इसप्रकार सुनाया है—“मेरे पिता अनंगपाल के पुरखा राजा कल्हण (अपरनाम अनंगपाल), जो कि हस्तिनापुर में राज्य करते थे, एक समय अपने शूर-सामन्तों के साथ शिकार खेलने निकले। वे जब एक विशेष-स्थान पर पहुँचे, (जहाँ कि अब दिल्ली नगर बसा है), तो वहाँ देखते हैं कि एक खरगोश उनके शिकारी कुत्ते पर आक्रमण कर रहा है। राजा कल्हण (अनंगपाल) ने आश्चर्यचकित होकर तथा उस भूमि को वीरभूमि समझकर वहाँ लोहे की एक कीली गाड़ दी तथा उस स्थान का नाम 'किल्ली' अथवा 'कल्हणपुर' रखा। इसी कल्हन अथवा अनंगपाल की अनेक पीढ़ियों के बाद मेरे पिता अनंगपाल (तोमर) हुए। उनकी इच्छा एक गढ़ बनवाने की हुई। अत: व्यास ने मूहूर्त शोधन कर वास्तु-शास्त्र के अनुसार उसका शिलान्यास किया और कहा कि “हे राजन्,
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यह जो कीली गाड़ी जा रही है, उसे पाँच घड़ी तक कोई भी न छुए", —यह कहकर व्यास ने 60 अंगुल की एक कील वहाँ गाड़ दी और बताया कि वह कील शेषनाग के मस्तक से सट गयी है; उसे न उखाड़ने से आपके तोमर-वंश का राज्य संसार में अचल रहेगा। व्यास के चले जाने पर अनंगपाल ने जिज्ञासावश वह कील उखड़वा डाली। उसके उखड़ते ही रुधिर की धारा निकल पड़ी और उस. कील का कुछ अंश भी रुधिर से सना था। यह देख व्यास बड़ा दु:खी हुआ तथा उसने अनंगपाल से कहा
अनंगपाल छक्क वै बुद्धि जोइसी उक्किल्लिय। भयौ तुंअर मतिहीन करी किल्ली तें ढिल्लिय ।। कहै व्यास जगज्योति निगम-आगम हौं जानौ । तुंवर ते चौहान अनत है है तुरकानौ।। हूँ गड्डि गयौ किल्लो सज्जीव हल्लाय करी ढिल्ली सईव।
फिरि व्यास कहै सुनि अनंगराइ भवितव्य बात मेटी न जाइ।। उक्त कथन से निम्न तथ्य सम्मुख आते हैं
1. अनंगपाल प्रथम (कल्हन) ने जिस स्थान पर किल्ली गाड़ी थी, उसका नाम 'किल्ली' अथवा 'कल्हनपुर' पड़ा। ___2. अनंगपाल द्वितीय (तोमर) के व्यास ने जिस स्थान पर किल्ली गाड़ी थी, उसे अनंगपाल ने ढीला कर निकलवा दिया। अत: तभी से उस स्थान का नाम ढिल्ली' पड़ गया।
3. जिस स्थान पर किल्ली ढीली होने के कारण इस नगर का नाम 'ढिल्ली' पड़ा, उसी स्थान पर पृथिवीराज का राजमहल बना था।48 'पृथिवीराजरासो' में इस ढिल्ली शब्द का प्रयोग अनेक-स्थलों पर हुआ है। प्राचीन हस्तलिखित-ग्रन्थों में भी उसका यही नामोल्लेख मिलता है। विबुध श्रीधर ने भी उसका प्रयोग तत्कालीन प्रचलित-परम्परा के अनुसार किया है। अत: इसमें सन्देह नहीं कि दिल्ली का प्राचीन नाम ढिल्ली' था। श्रीधर के उल्लेखानुसार उक्त ढिल्ली नगर 'हरयाणा' प्रदेश में था।50
4. भारतीय इतिहास में दो अनंगपालों के उल्लेख मिलते हैं। एक पाण्डुवंशी अनंगपाल (अपरनाम कल्हन) और दूसरा, तोमरवंशी अनंगपाल। इन दोनों की चर्चा ऊपर की जा चुकी है। ‘पासणाहचरिउ' में दूसरे अनंगपाल" की चर्चा है, जो अपने दौहित्र पृथिवीराज चौहान को राज्य सौंपकर 'बदरिकाश्रम चला गया था। उसके वंशज मालवा की ओर आ गये थे, तथा उन्होंने गोपाचल को अपनी राजधानी बनाया था, और जो गोपाचल-शाखा के तोमरवंशी केनाम से प्रसिद्ध हैं।
ढिल्ली-नरेश अनंगपाल तोमर के पराक्रम के विषय में कवि ने कहा है कि उसने हम्मीर-वीर को भी दल-बल विहीन अर्थात् पराजित कर दिया था। यह हम्मीर-वीर
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कौन था और कहाँ का था, कवि ने इसका कोई उल्लेख नहीं किया, किन्तु ऐसा विदित होता है कि यह कांगड़ा का नरेश हाहुलिराव हम्मीर रहा होगा, जो 'हाँ' कहकर अरिदल में घुस पड़ता था और उसे मथ डालता था, इसीलिए उसे 'हाहुलिराव' हम्मीर कहा जाता था। यथा- हाँ कहते ढीलन करिय हलकारिय अरि मथ्थ।
ताथें विरद हमीर को हाहुलिराव सुकथ्थ ।। अनंगपाल के बदरिकाश्रम चले जाने के बाद यह हम्मीर पृथिवीराज चौहान का सामन्त बन गया था, किन्तु गोरी ने उसे पंजाब का आधा राज्य देने का प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लिया। इसीकारण यह चालीस सहस्र पैदल-सेना और पाँच सहस्र अश्वारोही-सेना लेकर गोरी से जा मिला। हम्मीर को समझा-बुझाकर दिल्ली लाने के लिए कवि चन्दवरदाई पृथिवीराज की आज्ञा से कांगड़ा गये थे। चन्दवरदाई ने उसे भली-भाँति समझाया और बहुत कुछ ऊँच-नीच सुनाया; किन्तु वह दुष्ट पंजाब का आधा राज्य पाने के लोभ से गोरी के साथ ही रह गया। इतना ही नहीं, जाते समय वह चन्दवरदाई को जालन्धरी देवी के मन्दिर में बन्द कर गया। जिसका फल यह हुआ कि वह गोरी एवं चौहान की अन्तिम-लड़ाई के समय दिल्ली में उपस्थित न रह सका। चौहान तो हार ही गया, किन्तु हम्मीर को भी प्राणों से हाथ धोना पड़ा। गौरी ने उसे लालची एवं विश्वासघाती समझकर पंजाब का आधा राज्य देने के स्थानपर उसकी गर्दन ही काट डाली।
. उक्त उपलब्धियों एवं अनुपलब्धियों अथवा गुण-दोषों के आलोक में कोई भी निष्पक्ष आलोचक विबुध श्रीधर का सहज ही मूल्यांकन कर सकता है। कवि ने विविध-विषयक 6 स्वतन्त्र एवं विशाल ग्रन्थ लिखकर अपभ्रंश-साहित्य को गौरवान्वित किया है। निस्सन्देह ही वे भाषा एवं साहित्य की दृष्टि से महाकवियों की उच्च श्रेणी में अपना प्रमुख-स्थान रखते हैं। सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची 1. जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर (1943, 53 ई.) से दो खण्डों में प्रकाशित, सम्पादक : प्रो. ए. एन. उपाध्ये तथा डॉ. हीरालाल जैन। 2. भारतीय ज्ञानपीठ, काशी (1954 ई.) से प्रकाशित । 3. रावजी सखाराम दोशी, शोलापुर से (1931 ई.) प्रकाशित। 4. माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला, बम्बई (1937 ई.) से प्रकाशित। 5. भारतीय ज्ञानपीठ, काशी (1954-55) से दो भागों में प्रकाशित। 6. भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली (1975 ई.) से प्रकाशित। 7. भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाश्यमान। 8. माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला, बम्बई (1937-47) से प्रकाशित। 9. भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली (1975 ई.) से प्रकाशित (सम्पादक डॉ. राजाराम जैन)। 10. भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाश्यमान, (सम्पादक—डॉ. राजाराम जैन)। 11. रइधू ग्रन्थावली के अन्तर्गत जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर से शीघ्र ही प्रकाश्यमान। 12. भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली से शीघ्र ही प्रकाश्यमान। 13. दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत से प्रकाशित ।
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14. जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर (वि.सं. 1973) से प्रकाशित। 15. देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड, बम्बई (वि.सं. 1994) से प्रकाशित। 16. दे., भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान (भोपाल, 1962 ई.) लेखक-डॉ. हीरालाल जैन, पृ. 1351 17. प्राकृत टैक्स्ट सोसाइटी, वाराणसी (1961 ई.) से प्रकाशित। . 18. दे., भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ. 1581 19. गायकवाड ओरियण्टल सीरीज, बड़ौदा (1932) से प्रकाशित । 20. जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर (1906-13 ई.) से प्रकाशित। 21.दे., भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ. 169। 22-24. दे., उत्तरपुराण' का 74वां पर्व। 25-27. वही, 75वां पर्व। 28. वही, 76वां पर्व। 29-31. वही 76वां पर्व। 32. वड्ढमाणचरिउ, 1/9/101 33. णमो अरिहंतानं णमो सवसिधानं ऐरेन (संस्कृत-ऐलेन), महाराजेन महामेघवाहनेन..... - दि. नागरी प्रचारिणी, 8/3/12)। 34. मुहणोत नैणसी री ख्यात, भाग 1, पृ. 232 । 35. वड्ढमाण, 5/10-23। 36. दे. इसी प्रस्तावना का शस्त्रास्त्र-प्रकरण। 37. वड्ढमाण, 4/13-14; 4/15/1-71 38-39. वही, 4/15/8-12: 4/16-17। 40. वड्ढमाण, 4/2-4, राजा प्रजापति ने विद्याधरों में फूट डालने के लिए ही विद्याधर राजा ज्वलनजटी की पुत्री स्वयंप्रभा को अपनी पुत्रवधू बनाया। 41. पाँचवीं सन्धि द्रष्टव्य। 42. वड्ढमाणचरिउ, 5/10, 16 । 43. वड्ढमाणचरिउ, 5/11/13-141 44. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा द्वारा सम्पादित तथा काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा 1929 ई. में प्रकाशित। 45. पासणाहचरिउ, 1/2/16 । 46. पृथ्वीराज रासो, (ना.प्र.स.), प्र.भा., भूमिका, पृ. 25-261 47. सम्राट् पृथ्वीराज, कलकत्ता (1950), पृ. 30-31। 48. सम्राट् पृथिवीराज, पृ. 40। 49. पासणाहचरिउ (अप्रकाशित) 1/2/26; 8/1/31 50. वही, 1/2/14। 51. वही. 1/4/11 52. पृथिवीराजरासो, 18/2; 96 तथा 19/26-27। 53-54. Murry's Northern India. Vol. I, page 375. 55. पासणाह, 1/4/2। 56. सम्राट् पृथिवीराज, पृ. 85 ।
–(महाकवि विबुध श्रीधर द्वारा रचित 'वड्ढमाणचरिउ' की प्रस्तावना से उद्धत। सम्पादक-अनुवादक - डॉ. राजाराम जैन, प्रकाशक—भारतीय ज्ञानपीठ, 1975 ई.)
भारत को मातृभूमि मानने वाला ही हिंदू 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' के सरसंघचालक के.एस. सुदर्शन ने कहा कि हिन्दू' शब्द को किसी धर्म से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। जो भी भारत को अपनी मातृभूमि मानता है, वही हिन्दू है। कल यहाँ आयोजित हिन्दू संगम में सुदर्शन ने कहा कि यहाँ रहनेवाले मुसलमान व ईसाई भी हिन्दू हैं। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने एक आदेश में 'हिन्दू' शब्द की व्याख्या करते हुए इसे जीवनपद्धति बताया है। आर.एस. एस. भी इसी अवधारणा में विश्वास करता है।
-(के.एस. सुदर्शन, दैनिक जागरण', 17, दिसम्बर, 2002, नई दिल्ली, पृष्ठ 9)
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प्रेरक व्यक्तित्व अजातशत्रु भैय्या मिश्रीलाल गंगवाल
-डॉ. कपूरचंद जैन एवं डॉ. ज्योति जैन
तत्कालीन मध्य भारत (अब मध्यप्रदेश) के मुख्यमंत्री रहे, 'मालवा के गाँधी' नाम से विख्यात, अपने स्नेहिल व्यवहार से 'भैय्याजी' उपनाम से प्रसिद्ध, नैतिक मूल्यों के देवदूत, महावीर ट्रस्ट के पितृपुरुष, जैन-जाति-भूषण, स्वयंसेवक-रत्न, जैनवीर, जैनरत्न जैसी उपाधियों के धारक श्री मिश्रीलाल गंगवाल, सुपुत्र श्री बालचंद गंगवाल का जन्म देवास (म.प्र.) के 'सोनकच्छ' गांव में 7 अक्टूबर, 1902 को हुआ। 5 वर्ष की आयु में आप मातृविहीन हो गये। ___ 14 वर्ष की अल्पवय में भैय्याजी ने 'विद्यार्थी सहायक समिति' के सभापति के रूप में सार्वजनिक-सेवा-कार्य की दीक्षा ली। 1918 में 'अखिल भरतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन', इन्दौर के स्वयंसेवक बने। 1931 में खादी प्रदर्शनी के प्रमुख कार्यकर्ता के रूप में तथा 1938 में पूज्य बापू के सभापतित्व में आयोजित 'अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन', इन्दौर के अर्थमंत्री के रूप में आपकी सेवाएँ सराहनीय रहीं।
गंगवाल जी ने 1939 में इन्दौर राज्य प्रजामण्डल द्वारा नवीन-टैक्स-विरोधी (इन्दौर नगर में आयोजित 9 दिनों की हड़ताल के अवसर पर) हड़ताल-संचालन-समिति के तृतीय डायरेक्टर के रूप में सत्याग्रह-जत्थे का नेतृत्व किया। 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन के संदर्भ में खण्डवा, हरदा, इटारसी, होशंगाबाद, ललितपुर व झांसी की यात्रा की तथा झांसी जेल में तीन माह का कारावास भोगा। 19 अगस्त 1942 को उत्तरदायित्वपूर्ण शासन प्राप्त करने के लिए इन्दौर-राज्य-मण्डल के आह्वान पर संगठित-सत्याग्रह-आन्दोलन में गिरफ्तार हुए और 15 माह के कठोर कारावास की सजा पाई। 23 मई, 1947 को पुनः सत्याग्रह करते हुए गिरफ्तार कर लिये गये और 1 माह के कारावास की सजा भोगी।
1945 में रामपुरा में सम्पन्न हुए इन्दौर-राज्य-प्रजामण्डल-अधिवेशन में आप अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे। 1956 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की ओर से असम
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राज्य के निर्वाचन-प्रतिनिधि नियुक्त किये गये थे।
गंगवाल साहब ने 1944 में सर्वप्रथम सत्ता में प्रवेश किया, जब आप इन्दोर राज्य विधानसभा में जनता की ओर से निर्विरोध-प्रतिनिधि निर्वाचित हुए। नवम्बर 1947 में होल्कर-नरेश द्वारा उत्तरदायित्वपूर्ण-शासन प्रदान किये जाने पर मंत्री बनाये गये। 1948 में मध्य-भारत के निर्माण पर प्रान्त के प्रथम मंत्री-मण्डल में 'खाद्यमंत्री' के रूप में सम्मिलित हुए। 1951-52 में भारत के प्रथम आम-चुनाव में धारा-सभा-हेतु 'बागली' क्षेत्र से निर्वाचित होकर मध्यभारत के मुख्यमंत्री' का पद संभाला। अप्रैल 55 तक वे मुख्यमंत्री रहे। इसके बाद श्री तख्तमल जैन के मुख्यमंत्री चुने जाने पर आप कांग्रेस विधानदल के उपनेता तथा वित्तमंत्री बनाये गये। 1956 में नवीन मध्यप्रदेश बनने पर पं. रविशंकर शुक्ल के मंत्रिमण्डल में वित्तमंत्री, 1956 में कैलाशनाथ काटजू के मंत्री मण्डल में भी वित्तमंत्री और 1962 में श्री भगवंत राव मण्डलोई के मंत्रिमण्डल में भी वित्तमंत्री रहे। पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र के मुख्यमंत्री बनने पर भी उसमें आप वित्तमंत्री बनाये गये। इसका मूलकारण यह था कि जैसे आप अपने जीवन में मितव्ययी थे, वैसे ही शासन में भी थे।
गंगवाल सा. के मितव्ययी स्वभाव के सन्दर्भ में उनके पुत्र श्री निर्मल गंगवाल ने लिखा है— “हम जिस भी सरकारी बंगले में रहते, क्या मजाल है कि कहीं भी बिजली के बल्ब फालतू जलें। इसलिए बिजली और टेलीफोन का बिल पूरे मंत्री-परिषद् की अपेक्षा सबसे कम आता था। कई बार पिताजी स्वयं उठकर फालतू जलती लाईट बंद करते। पिक्चर आदि जाने के लिए भोपाली तांगे में जाते थे, गाड़ी में नहीं। इसी कारण आवंटित पेट्रोल भी हर महीने वापस होता था। कभी-कभी स्वयं पत्र लिखते, तो आनेवाले लिफाफे को खोलकर, पीछे की तरफ में पत्र लिखते।..... एक होलडाल और एक सूटकेस ही हमने उनके पास जीवनभर देखा।... कभी हमने उन्हें साबुन का इस्तेमाल करते नहीं देखा, स्नान भी तीन या चार लोटे पानी में कर लेते। पानी के उपयोग पर बड़ी पाबन्दी थी।... इस सबके बावजूद उनकी काया कंचन थी।' ____ होल्कर नरेश द्वारा राज्य में उत्तरदायित्वपूर्ण शासन घोषित करने के समय से लगातार मध्यभारत के निर्माण तथा विलय और नवीन मध्यप्रदेश को साकाररूप प्रदान करने की सुखद-बेला में 'यत्र-तत्र सर्वत्र प्रशासक' गंगवाल जी की सुष्टपुष्ट-छाप विशेषरूप से दृष्टिगोचर होती है। गंगवाल जी के करीबी प्रसिद्ध पत्रकार श्री मायाराम
सुरजन ने गंगवाल जी की नि:स्पृहता के सन्दर्भ में जो संस्मरण (दशबन्धु, 15/10/87) लिखा है, वह सचमुच अनुकरणीय है। संस्मरण का सारांश यह है कि 1952 में जब बाबू तख्तमल जैन चुनाव हार गये. श्री जैन मध्यभारत के मुख्यमंत्री थे और कुशल मुख्यमंत्रियों में उनकी गणना होती थी, तब नेहरू जी के करीबी होने के कारण उन्हें मुख्यमंत्री
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बनाने की कोशिशें हुई। परन्तु कांग्रेस हाईकमान तैयार नहीं हुआ, फलत: गंगवाल जी ही मुख्यमंत्री बने। पुन: तख्तमल जी जब तीसरी बार चुनाव जीतकर आये, तो गंगवाल जी ने बिना, ‘ननु न च किये अपना त्यागपत्र दे दिया और कहा कि वे भरत की तरह विरक्त होकर राजकाज चला रहे थे, अब राम की अयोध्या वापसी पर तख्तमल जी के लिए सिंहासन खाली करने का सुख अनुभव कर रहे हैं। ..
1967 में उन्होंने 'बागली' से विधानसभा का चुनाव लड़ा, जिसमें वे पराजित हो गये। इस पराजय के बाद भैयाजी ने संसदीय राजनीति छोड़ दी। उन्होंने फिर विधानसभा का कोई चुनाव नहीं लड़ा, किन्तु राजनीति में जीवनपर्यंत बने रहे और कांग्रेस के अनेक युवा नेताओं का मार्गदर्शन किया। 1968-71 में वे 'मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी' के अध्यक्ष रहे।
आर्थिक मसलों पर उनकी सूझबूझ और वित्त एवं योजना-विकास-मंत्री के रूप में उनके दीर्घकालीन-अनुभवों को मद्देनजर रखकर श्री प्रकाशचंद सेठी ने 1975 में गंगवाल जी को 'राज्य-योजना आयोग' का सदस्य मनोनीत किया था।
व्यायाम और संगीत भैयाजी को विशेष-प्रिय थे। इतने ऊँचे पद पर आसीन होने के बाद भी वे सभाओं में भजन गाने में संकोच नहीं करते थे। उनके प्रिय-भजनों में उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ तू सोवत है', 'तुम प्रभु दीनदयाल मैं दुखिया संसारी', 'अब मेरे समकित सावन आयो रे' आदि थे। सन् 1971 में इन्दौर में आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के चातुर्मास-अवसर पर प्रतिदिन शास्त्रसभा में सुन्दर-सुन्दर भजन सुनाया करते थे। फुटबॉल, हॉकी, क्रिकेट, टेनिस में भी उनकी विशेष-दिलचस्पी थी।
राजनीति के साथ सामाजिक व धार्मिक-जगत् के आप केन्द्र-बिन्दु रहे। प्रत्येक व्यक्ति के साथ अंतरंग आत्मीयता, निश्छल स्नेह आपके गुण थे। सेवापरायणता और विनम्रता तो जैसे आपके रक्त में मिली थी। जो भी आपके सम्पर्क में एक बार आया, वह आपका होकर ही रह गया।
शैक्षणिक और साहित्यिक गतिविधियों से गंगवाल साहब सदैव जुड़े रहे। गरीब विद्यार्थियों को विद्या-अध्ययन-हेतु सहायता करना उन्हें अत्यंत प्रिय था। इन्दौर के कितने ही विद्यालयों/पुस्तकालयों वे संस्थापक/अध्यक्ष/मंत्री आदि थे। . नामानुरूप ही मिश्री की मिठास जिह्वा तथा जीवन में उन्हें प्रिय थी। स्वादिष्ट भोजन और मिष्ठान्न उनके प्रिय थे। - गंगवाल साहब जीवनपर्यंत कट्टर-शाकाहारी रहे। उनकी दृढ़ता का एक उदाहरण द्रष्टव्य है। वे जब मध्यभारत के मुख्यमंत्री थे, तब भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू का भैया के पास एक पत्र आया था, जिसमें भारत आये युगोस्लाविया
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के राष्ट्रपति मार्शल टीटो का मध्यभारत के कुछ स्थल देखने का कार्यक्रम था। विशिष्ट व्यक्तियों के दौरे के कार्यक्रम के साथ उनके दिनभर की समयसारणी भी संलग्न थी। इसमें उनके भोजन में मांसाहार भी सम्मिलित था। गंगवाल जी ने निडर होकर पंडित जी को विनम्र निवेदन करते हुए पत्र लिखा कि मैं राजकीय अतिथि को शुद्धजल व शाकाहारी भोजन ही उपलब्ध करा सकूँगा। मांसाहार उपलब्ध कराने में उस युग में प्रधानमंत्री को नाखुश करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
जिनमें धर्म के प्रति आस्था होती है, वे राजनीति के लिए अनुपयुक्त होते हैं और राजनीति में जिनकी गति/स्थिति/रुचि होती है उनकी धर्म में अभिरुचि नहीं होती —ऐसा सामान्य सिद्धांत है, पर गंगवाल साहब इसके अपवाद थे। प्रतिदिन दर्शन का नियम उनका आजीवन चलता रहा। राजनीति की काली कोठरी में से भैयाजी उजले ही उजले निकले, यह सचमुच आश्चर्य की बात है। तभी तो उनके निधन पर श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए श्री सुंदरलाल पटवा ने कहा था— '1957 और उसके बाद हम और वे राज्य-विधानसभा में काफी समय तक आमने-सामने बैठे। हम आँखों में अंजन डालकर उनकी कमियाँ खोजते रहे, लेकिन उनके खिलाफ कुछ भी हाथ नहीं लगा। राजनीति में ऐसे बहुत ही कम लोग मिलते हैं, जो काजल की कोठरी में रहकर भी अपने ऊपर कालिख की एक लकीर लगाए बिना साफ-सुथरे बाहर निकल आते हैं।'
भगवान् महावीर के 2500वें निर्वाण महोत्सव, (1974) धर्मचक्र-प्रवर्तन. इन्दौर के समवसरण-मंदिर का पंचकल्याणक (1981), भगवान् बाहुबली प्रतिष्ठापना सहस्राब्दि एवं महामस्तकाभिषेक के अवसर पर जनमंगल-महाकलश (1980-81) महावीर ट्रस्ट' का संगठन आदि आयोजनों में उनकी कर्मठता एवं धार्मिकता अभिव्यक्त हुई थी।
उनके नि:स्पृही जीवन का अनुमान उनके द्वारा अपनी मृत्यु (4/9/81) से 2 दिन पूर्व (2/9/81) लिखित उनकी वसीयत, जो पत्र रूप में है, से लगाया जा सकता है। वे लिखते हैं—'मेरे जीवन का संध्याकाल है, अत: जीवन का अन्त किसी क्षण, किसी रूप में भी हो सकता है। मेरी जीवन दृष्टि बाल्यकाल से ही सेवा की रही। धन्धे आदि में रुचि स्वल्पतम रही। केवल गृहस्थ का उत्तरदायित्व निभाने के लिए आजीविका उपार्जन करता रहा, जीवन सार्वजनिक सेवा और राजनीति में ही बीता।
आजीविका उपार्जन भी सवृत्ति और सद्बुद्धि से किया। लोभ-लालच की भावना मन में नहीं जगी, धनसंग्रह की लालसा नहीं रही। विचार और आचार की पवित्रता का पूरा ध्यान रखा। कभी लोकमार्ग और धर्ममार्ग को छोड़ा नहीं। सादगी से जिया तथा स्वभाव में मितव्यता मूलत: रही। मेरा विश्वास स्वावलंबन और स्वाश्रय में रहा, अत: बचत करके वृद्धावस्था के लिए कुछ संग्रह रखा, जो हुण्डियों में ब्याज पर नियोजित है। मेरे नाम पर कोई मकान और जमीन नहीं है, अन्य भी कुछ नहीं है। अभी-अभी
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स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में केवल नामभर को एक मकान एम.आई.जी. ग्रुप मेरे नाम पर लिया गया है। स्वामित्व के नाते मेरा उससे कोई संबंध नहीं है। . कुटुम्ब के लिए मेरा जीवन में जो योगदान रहा, उसको लेकर मुझे कुछ कहना नहीं है। सब कुटुम्बीजन जानते हैं। ___ रुपये 25,000/- का ब्याज दु:खी-दर्दियों के तथा पारमार्थिक कार्यों के लिए हैं। इसमें जातिभेद नहीं रहेगा। यह राशि घर के ही लोग कमेटी बनाकर खर्च करें। मुझे किसी का एक रुपया भी देना नहीं है। ____मैंने जीवन में अनीति या अपवित्र प्रकार से एक रुपया भी घर में नहीं आने दिया। सदा धर्म और जन्म-कुल तथा कांग्रेस-कुल की प्रतिष्ठा और शोभा का ध्यान रखा। यह मेरे लम्बे जीवन की कहानी है। मेरी मृत्यु के बाद मेरे नाम पर कोई सामाजिक क्रिया-काण्ड न किया जाये। राष्ट्रहित तथा समाजहित, सबसे स्नेह और ममता मेरे जीवन के संगीत रहे हैं, इसको गाता हुआ समताभाव से इस लोक से विदा होऊँयह मेरी भावना है। मेरा उपादान और ज्ञान इसमें सहायक हो, यही चाह है।'
4 सितम्बर, 1981 को इन्दौर में आपका निधन हो गया। तत्काल सभी सरकारी कार्यालय व बाजार बन्द हो गये। भोपाल समाचार पहुँचते ही सभी सरकारी कार्यालय बन्द कर 'दिये गये। 5 सितम्बर को भी इन्दौर के सभी सरकारी कार्यालय व बाजार बंद रहे। उसी दिन आपकी अन्त्येष्टि त्रिलोकचंद हाईस्कूल' में हुई। अन्त्येष्टि में भाग लेने उपमुख्यंत्री श्री शिवभान सिंह सोलंकी आदि शताधिक मंत्री/विधायक/नेता/अधिकारी उपस्थित थे। लगभग बीस हजार लोगों ने अपने प्रिय भैया' को उस दिन अंतिम विदाई दी।
उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए श्री बालकवि वैरागी ने कहा- वे जो कुछ थे आचरण में थे। कथनी और करनी में कोई विभेद इस व्यक्ति के जीवन में कभी नहीं आया... उनका कोई दुश्मन नहीं था, विरोध नहीं और आलोचक हजार थे।' श्री कन्हैयालाल खादीवाले ने कहा था- 'सक्रिय राजनीति में रहते हुए भी उनकी प्रकृति साधु के समान थी।... पं. नेहरू और श्रीमती इन्दिरा गांधी जब भी उनसे मिलते, भजन सुनाये बिना नहीं जाने देते। वे एक मितव्ययी मंत्री थे।'
-(जैनमित्र साप्ताहिक', दिनांक 3.10.2002, पृ. 314-315)
महावीर की जन्मस्थली तीर्थंकरों के जन्म से लेकर निर्वाण तक की घटनाओं का संबंध उत्तर भारत के अनेक ऐतिहासिक स्थलों के साथ माना जाता है। महावीर की जन्मस्थली 'वैशाली बिहार के मुजफ्फरपुर' जिले में स्थित है।
-- (साभार उदधृत, मध्यप्रदेश की जैन विरासत', पुस्तिका. पृष्ठ 5)..
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रत्नत्रय अष्टक
-डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया
मिलते जब चारित्रमय, ज्ञान और श्रद्धान । रत्नत्रय का तब बने, रूप-स्वरूप महान् ।। 1।।
दर्शन से दृष्टी मिले, उपजे शुभ श्रद्धान। दर्शन से दुनिया दिखे, जन्म-मरण संस्थान ।। 2 ।।
खुली आँख से देखिए, दिखता है विज्ञान । आँख बंद कर पेखिये, उपजे सम्यक्-ज्ञान ।। 3 ।।
ज्ञान और श्रद्धान से, जग-जीवन निस्सार। ज्ञान-ध्यान से कीजिए, जीवन का उद्धार ।। 4।।
सम्यक् दर्शन-ज्ञान से, जागे आतम-राम । लखें आत्मिक-आँख से, दिखें सभी अभिराम ।।5।।
चय और संचय जब छुटे, निखरे तब चारित्र । वीतरागता में लखे, अपना चित्र सचित्र ।। 6।।
संग्रह से है बोझ सब, अपरिग्रह से ओज । ओज उजागर से जगे, आप आप में रोज।। 7।।
रत्नत्रय से मुखर हो, मुक्ति-मार्ग महान् । रत्नत्रय के ब्याज से, होय त्वरत कल्यान ।। 8 ।।
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भगवान् महावीर की जन्मस्थली नालंदा कुण्डलपुर-आगमसम्मत नहीं
-डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल 'दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान', जम्बूद्वीप हस्तिनापुर द्वारा प्रकाशित वीर 'ज्ञानोदय ग्रन्थमाला' का पुष्प नं. 189 चौबीस कल्पद्रुमविधान', दिसम्बर 1999 मेरे समक्ष है, जिसके पृष्ठ नं. 149 में भगवान महावीर का जन्मस्थल 'भरतक्षेत्र के 'विदेह' नामक देश-सम्बन्धी कुण्डपुर' बताया गया है। लेखिका ब्र. सारिका जैन (संघस्थ) हैं। सम्पूर्ण स्मारिका वर्ष 1997 संस्थान की विभूतियों की प्रशस्ति से महिमामंडित है। स्पष्ट है कि वर्ष 1999 तक हस्तिनापुर का उक्त संस्थान विदेह-कुण्डपुर को महावीर की जन्मस्थली स्वीकारता था। संस्थान के अन्य प्रकाशन भी देखे जा सकते हैं। . भगवान् महावीर के 2500वें निर्वाण-महोत्सव-काल में दिल्ली में विराजित जैनाचार्यशिरोमणी आचार्यश्री देशभूषण जी मुनिराज द्वारा सन् 1974 में 'भगवान् महावीर और उनका तत्त्वदर्शन' नामक वृहतकाय-ग्रंथ प्रकाशित किया/करवाया। इसकी प्रस्तावना श्री पं. सुमेरु चन्द दिवाकर, सिवनी द्वारा लिखी गयी। इस ग्रंथ की सम्पूर्ण विषय-वस्तु कुण्डपुर-वैशाली को समर्पित है। इसमें बाबू डॉ. कामता प्रसाद जी के वर्ष 1929 एवं 1932 में प्रकाशित क्रमश: 'भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध' तथा 'दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि', नवलशाहकृत 'वर्द्धमान चरित्र', 'गौतम चरित्र' जैसी शोध-खोज भरी रचनाएँ अविकल प्रकाशित हैं। इन सभी में ठोस-प्रमाणों सहित भगवान् महावीर की जन्मस्थली वासोकुण्ड-बसाड़ (कुण्डपुर-वैशाली) सिद्ध किया है। प्रस्तावना-लेखक श्री दिवाकर जी एवं आचार्यश्री एकमतेन इससे सहमत थे, अन्यथा उनका प्रकाशन सम्भव भी नहीं था। जन्मस्थली की खोज में किन-किन जैन-विद्वान्-मनीषियों का योगदान था, इसका विवरण दिशाबोध' अक्टूबर 02 अंक, जैन सन्देश' 02 अक्टूबर एवं समन्वयवाणी' अक्टूबर 02 (प्रथम) में देखा जा सकता है। __जिनेश्वरी दीक्षा धारणकर कुछ नया कीर्तिमान करने की मंगलकामना से आर्यिका चन्दनामती जी हस्तिनापुर का आलेख 'भगवान् महावीर की जन्मभूमि-कुण्डलपुर' 'अर्हत्-वचन', अप्रैल-जून 2001 में प्रकाशित हुआ। आलेख में प्रज्ञाश्रमणी जी ने नवीन
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शोध को कुठाराघाती बताते हुए दिगम्बर-जैन-ग्रंथों एवं अन्य-चर्चाओं का आधार बनाकर भगवान् महावीर की जन्मस्थली कुण्डलपुर-नालंदा' सिद्ध किया। उनके तर्कों की समीक्षा आगे की गयी है। इस आलेख के प्रकाशन के बाद जैन-पत्रकारिता-जगत्, जैन-विद्वान्, संस्थाएँ एवं साधुवर्ग, सभी में भूचाल-सा आ गया और अपने-अपने पक्ष के खण्डन-मण्डन-हेतु अपनी अनेकान्तमयी-प्रज्ञा का असंगत-तर्क, सम्मान, भ्रम निर्माण आदि में अनेक प्रकार हुआ/हो रहा है। लगता है जैन-जगत् समस्याविहीन हो गया है और एकमात्र समस्या भूगोल के गर्त में समाये, विद्वेषियों द्वारा जमींदोज किये 'कुण्डपुर' को खोज निकालना ही शेष रह गयी है, और वह भी मात्र अपनी पूर्वनिर्धारित-धारणानुसार।
पूर्व में सर्वमान्य (और स्व-मान्य) कुण्डपुर-वैशाली के विरुद्ध तर्क इसप्रकार है। 1. यह विदेशियों की उपज है, जिन्हें जैनआगम एवं परम्परा. का ज्ञान नहीं होता। वे अप्रमाणिक भी हैं। शोध-खोज का आधार दिगम्बर-जैन-साहित्य से भिन्न श्वेताम्बर, बौद्ध एवं अन्य साहित्य है। उनको स्वीकारने से हमें उनकी अन्य अनेक मान्यताएँ स्वीकारना होंगी, जो अनेक समस्याओं को जन्म देगी। अत: निर्णय जैन-आगम के ही आधार पर किया जाना चाहिये। वैशाली (नाना-नानी) के निकट कुण्डपुर मानने सिद्धार्थ घर-जमाई जैसे तुच्छ हो जायेंगे। तीर्थंकर का जन्म 'ग्राम' संज्ञा मूलक जैसे स्थान में (कुण्डग्राम) कैसे हो सकता है? एक लाख योजन का ऐरावत हाथी कहाँ भ्रमण करेगा और यह परम्परागत श्रद्धा का विषय हैं, आदि।
'कुण्डलपुर-नालंदा' को महावीर की जन्मस्थली के पक्ष की समीक्षा करने के पूर्व यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि दिगम्बर जैन-आगम-ग्रंथों में भगवान् महावीर की जन्मस्थली विदेह-कुण्डपुर' स्वीकार किया है। किन्हीं ग्रंथों में कुण्डपुर' मात्र लिखा है। एक में कुण्डग्राम' एवं एक में 'कुण्डले' लिखा है। किसी ग्रंथ में कुण्डलपुर, कुण्डलपुर-नालंदा या वैशाली को जन्मस्थली नहीं बताया गया। यह भी उल्लेखनीय है कि कुण्डपुर, तत्कालीन राजनीति के अनुसार वैशाली-गणराज्य के अंतर्गत था, जबकि नालंदा राजगृही के अतिनिकट होकर मगध राज का अंग था। भौगोलिकरूप में कुण्डलपुर कभी कहीं अस्तित्व में नहीं रहा। समर्थक-पक्ष का कर्तव्य है कि वह अपने कथन की पुष्टि में उक्त बिन्दुओं को सप्रमाण सिद्ध करें। ऐसा होने पर वह अपने पक्ष को पुष्ट कर सकेगा। अन्यथा आधारहीन अपुष्ट-दोषारोपण से क्या सिद्ध होगा, मात्र सामाजिक-विद्वेष के पैदा करने और अपनी मनोवृत्ति-प्रदर्शन के।
उक्त परिप्रेक्ष्य में आर्यिका चन्दनामती जी, पं. शिवचरण लाल जी, प्रो. नरेन्द्र प्रकाश जी एवं डॉ. अभय प्रकाश जी द्वारा उठाये गये बिन्दुओं पर संक्षिप्त-विचारणा इसप्रकार है:___आर्यिका चंदनामतीजी :- प्रज्ञाश्रमणी जी द्वारा जो आगम-प्रमाण दिये हैं, उनमें धवला को छोड़कर सभी में विदेह-कुण्डपुर' का उल्लेख है। 'तिलोयपण्णत्ति' में कुंडले
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वीरो' है। धवला में 'कुण्डलपुर' मूल में लिखा बताया है। जबकि धवला, पुस्तक 7, पृष्ठ 121, (सोलापुर से 1990 में प्रकाशित ) एवं गाथा 28 पृष्ठ 122 में 'कुंडपुर' मूल लिखा है। 'कुण्डलपुर' उन्हें कहाँ से प्राप्त हुआ, इसकी सिद्धि वे करें । कुंडपुर को कुण्डलपुर (नालंदा) संदर्भित कर वे स्वयं भ्रमित हुईं और अन्यों को भी भ्रमित करने का निमित्त बनी। पं. शिवचरण जी के आलेख में भी यही (कुण्डलपुर ) शब्द का उपयोग हुआ । स्पष्ट है कि यह सोद्देश्य उत्पन्न किया गया भ्रम है
1
दूसरे, प्रज्ञाश्रमणी जी ने गणनीप्रमुखा श्री ज्ञानमती जी के माध्यम से यह धारणा बनाने का प्रयास किया कि सन् 1974 में आचार्यश्री धर्मसागर जी, देशभूषण जी महाराज एवं पं. सुमेरचन्द्र दिवाकर आदि के मध्य चर्चा में सभी ने 'कुण्डलपुर' को स्वीकार किया, वैशाली किसी को इष्ट नहीं थी । यह चर्चा कब, कहाँ, कैसे हुई, इसका कोई उल्लेख नहीं है, फिर ऊपर पद दो में स्पष्ट की गयी स्थिति में यह चर्चा संदिग्ध हो जाती है । जहाँ उन्होंने एक हजार पृष्ठ की रचना / ग्रंथ में 'कुण्डपुर' को जन्मस्थली स्वीकार की हो, वहाँ उसे निजी - चर्चा में अस्वीकारना हास्यास्पद जैसा है। हाँ वैशाली, मात्र वैशाली को कभी भी किसी ने जन्मभूमि नहीं माना। मानने का प्रश्न भी नहीं उठता। अतः यह तर्क भी स्थिति में सहयोग नहीं करता ।
तीसरे, प्रज्ञाश्रमणी जी ने बिना आधार दिये 'विदेह - देश' को पूरा 'बिहार - प्रांत' मानने की घोषणा की, जो नितांत भ्रम / अज्ञानपूर्ण है । यह उन्होंने इसलिये किया कि वे 'कुण्डलपुर-नालंदा' को ही 'विदेह' में होना सिद्ध करना चाहतीं हैं । यह सब कार्य वे अपना निजी-कल्पना में मान सकतीं है; किन्तु यथार्थ से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । अपनी इस कल्पना को सप्रमाण सिद्ध करना अपेक्षित है।
चौथे, नाना-नानी का सुन्दर, भावेत्तेजक कल्पना कर वे पाठकों का ध्यान इस यथार्थ से विलग करना चाहतीं हैं कि वैशाली उस समय एक गणतंत्र था, जिसका कुण्डपुर एक भागीदार था। दो भागीदारों के राज्य निकट होने में क्या बाधा है। कल्पित-भ्रम खड़ा कर उन्हें विद्वेषी के निकट कुण्डपुर होना इष्ट लगा । यदि ऐसा था, तो उन्हें तीर्थंकर के महान् पिता के महान् राज्य की सीमा भी सिद्ध करना चाहिये, जो मगध से भिन्न कुछ भी अलग सिद्ध नहीं होती। ऐरावत हाथी तो एशिया महाद्वीप में भी नहीं आ सकता ।
अंत में, प्रज्ञाश्रमणी जी ने गणनी ज्ञानमती जी के जन्मस्थल और कर्मभूमि की भिन्नता निरूपित कर वैशाली में प्राप्त पुरातात्त्विक प्रमाणों को मूल्यहीन सिद्ध करने का प्रयास किया। इस सम्बन्ध में इतना ही निवेदन है कि जन्मभूमि और कर्मभूमि की भिन्नता या पृथक्ता गणनी जी की जैन संस्कृति को नई देन है । जैन - - परम्परा में दीक्षाधारी की कोई स्थायी कर्मभूमि नहीं होती । उनका अनुकरण कर जिनेश्वरीदीक्षाधारी महानुभावों ने भी अपनी-अपनी कर्मभूमि गढ़ने का उपक्रम क्रिया, जो जिन
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दीक्षा के विपरीत विनाश की ओर ले जानेवाली है। विद्वान्-विवेकीजन विचार करें। ____ समग्ररूप से आलेख बिना सहजमान्य प्रमाण एवं इतिहास-भूगोल से अपुष्ट मानसिक व्यायायाम है, जो अपनी पूर्व-स्वीकृत धारणा के प्रतिकूल है।
प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जी जैन :- ज्ञानवृद्ध-वयोवृद्ध प्राचार्य जी की विचारणा के प्रतिकूल कुछ भी लिखना दु:साहस ही होगा। वे और उनकी भाषा मोहक है, फिर भी अभिप्रायजन्य विरोधाभास वे चाहकर भी दूर नहीं कर सके। कर भी नहीं सकते, परिस्थितियाँ कुछ ऐसी ही हैं। __जब कोई वस्तु खो जाती है, तभी उसकी खोज होती है। खोज कौन करे, यह तो खोजकर्ता की रुचि पर निर्भर करता है। सही खोज वही कर सकता है, जो निष्पक्ष, आग्रहहीन, अहंकारहीन और मानसिकरूप से ईमानदार हो। वैशाली, कुण्डपुर आदि आततायियों/अपनों के द्वारा अनेकों बार ध्वस्त होकर जमींदोज हो गये। वे इतिहास या आगम के विषय हैं. भूगोल के नहीं। इसीकारण यथास्थान उनकी खोज हुई। अनेक स्थान पर नये नगर/नई बस्तियाँ बन गयीं। ऐसी स्थिति में इस तर्क का कोई मूल्य नहीं होता कि किस नाम से क्या नाम बनता है या बना। यहाँ प्रकरण नाम मिटाकर नये नाम लिखने का है। हमारी खोज यह है कि कौन-सा नया-नाम पुराने-स्थल का प्रतिनिधित्व कर रहा है। इसी दृष्टि से वासोकुण्ड, कुण्डपुर माना गया और बसाड़-वैशाली। खोज में क्या भूल हुई, यह सप्रमाण सिद्ध करना चाहिये। बिना भूल बताये खोज को गलत सिद्ध कैसे करें। कुण्डपुर की खोज 'दिगम्बर जैन परिषद्' और डॉ. कामता प्रसाद जी, पं. जुगल किशोर जी मुख्तार, डॉ. ज्योतिप्रसाद जी जैसे समर्पित इतिहास-तत्त्व-मनीषियों ने की है. और वह भी जैनागम के अनुसार। उनके महान् व्यक्तित्व को उनके शब्दों से नकारा नहीं जा सकता। यह खोज भी सन् 1929 से शुरू हुई, अत: उसे आजादी के पूर्व की नहीं मानना अपनी गर्भित प्रतिबद्धता व्यक्त करना है। ___ माननीय प्राचार्य जी एक ही श्वास में दो विरोधी बातें एक साथ कह रहे हैं (संदर्भनिर्मल ध्यान ज्योति, अंक 202, पृष्ठ 9)। एक ओर वे दिगम्बर-जैनेतर-साहित्य को प्रमाण नहीं बनाना चाहते और उससे उत्पन्न अनेकों विसंगतियों से सावधान करते हैं; तो दूसरी ओर उसी क्रम में वे 'भगवतीसूत्र' के आधार को प्रमाण मानकर कहते हैं कि “वैशाली और नालन्दा दोनों ही स्थानों के समीप कोल्लाग-सन्निवेश और दो-दो कुण्डग्राम थे। इस उल्लेख के आधार पर कुण्डलपुर-नालन्दा को जन्मभूमि मानने में कोई अड़चन शेष नहीं रहती।" स्पष्ट है कि जो नहीं है, उसे हम ‘भगवतीसूत्र' से सिद्ध कर भगवान् महावीर को मांसाहारी भी स्वीकारते हैं। फिर इसमें भी विरोधभास है। प्रज्ञाश्रमणी जी को 'ग्राम' शब्द इष्ट नहीं है. फिर यहाँ कुण्डलपुर शब्द न होकर कुण्डग्राम लिक है। क्या दोनों समानार्थी हैं? फिर 'विदेह' का क्या हुआ। नालंदा ही
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विदेह हो गया। हमें ज्ञात ही नहीं कि हम अपने आधार को स्वयं ही ध्वस्त कर दूसरों को सीख दे रहे हैं ।
अंत में यह हुण्डावसर्पिणीकाल है कि वैशाली कुण्डपुर का अंत अजातशत्रु ने महावीर के जीवनकाल में ही कर दिया था, अत: उस पुण्य - क्षेत्र के नाम की दुहाई देकर जनता को भ्रमित नहीं करना चाहिये । सच्चाई. सच्चे मन से स्वीकारना चाहिये । डॉ. अभय प्रकाश जी :- आपने अपने मामा श्री डॉ. कामता प्रसाद जी के कर्तृत्व को महिमामंडित कर उचित ही किया था। दुर्भाग्य, उसी लेखनी से उनके कर्तृत्व को उसी तरह जमींदोज कर दिया, जैसा अजातशत्रु ने अपने नाना- मौसा का राज्य किया था । घर में आग घर के दिये से ही लगती है— अभिप्राय की भिन्नता से । वे स्वीकारते हैं कि कुण्डलपुर का कोई मौलिक- अस्तित्व नहीं है । उन्हें स्मरण होना चाहिये वासोकुण्ड में दो बीघा जमीन ‘अहल्ल' (बिना जुती शदियों से ) पूज्य मानकर छोड़ी है— पूज्य है, निःशुल्क समाज को समर्पित है।
'नालंदा' के निकट 'बड़ागांव' का मंदिर मार्ग में होने से सभी जन सहजधर्म श्रद्धाभाव से जाते हैं । कैलाश पर्वत पर कौन जाता है, कितने जाते हैं; तो क्या आदिनाथ की जन्मस्थली मानना भूल जावें ? आरोपित - आस्था भी ज्ञान प्रकाश में बदल जाती है । आपने आचार्यप्रवर श्री विद्यासागर जी के संघ से लेकर अन्य सभी संघ इसी पक्ष में हैं। इस सम्बन्ध में उन्हें अपनी असत्य - कल्पना के प्रमाण प्रस्तुत करना चाहिये । चालूबात लिखकर भ्रम पैदा नहीं करना चाहिये । हमारी जानकारी में आचार्यश्री ने अपना मौन - भंग नहीं किया है, प्रकरण चिंतन की प्रक्रिया में है; यद्यपि उनके गुरू और शिष्यद्वय एवं अन्य मुनिराज 'कुण्डपुर - विदेह' (वैशाली) को जन्मभूमि स्वीकारते हैं।
समग्रता में यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि 'कुण्डपुर - विदेह' कौन-सा स्थल स्वीकार किया जाये और कौन नहीं? जिसकी जहाँ श्रद्धा है. उसकी अपनी निजी श्रद्धा है । यह भी महत्त्वपूर्ण नहीं है कि कौन अविकसित क्षेत्र / तीर्थ का विकास कर रहा है । जिनेश्वरीदीक्षा की भावना के प्रतिकूल कार्य इष्ट नहीं है। मूल बात सिर्फ इतनी है कि हम अपनी बौद्धिकता, इष्ट-भावनाओं एवं पद की मर्यादा के प्रति ईमानदार रहें। यदि हमने दिगम्बर-जैन-आगम को आधार बनाया है, तो उसी से सिद्ध करें; भले ही सिद्ध हो या न हो और प्रबल पक्ष स्वीकार करें। यदि परिस्थितिजन्य 'साक्ष्य को सम्मिलित करना है, तो फिर एकांगी-उपदेश क्यों दे और क्यों अपने पक्ष के समर्थन हेतु आगम में परिवर्तन करें? और अपनी आधारहीन - कल्पनाओं को प्रमाण मानें तथा अपर-पक्ष के ठोस तर्क को दृष्टि ओझल करें? तीर्थ-विकास करें, परन्तु अकारण विद्वान् / पत्रकार / जिनेश्वरी दीक्षाधारकों में मतभेद, ईर्ष्या या अहंकार / विद्वेष की भावना न पनपने दें, यही भावना है।
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कातन्त्र और कच्चायन का तुलनात्मक अध्ययन
-प्रो. जानकीप्रसाद द्विवेदी एवं डॉ. सुरेन्द्र कुमार
माहेश्वर-परम्परा का प्रतिनिधित्व करनेवाले व्याकरणों में शब्दलाघव, कृत्रिमता, सांकेतिक-शब्दप्रयोग तथा पर्याप्त-ग्रन्थराशि आदि की दृष्टि से यदि पाणिनीय व्याकरण की परम-उपयोगिता मानी जाती है, तो विपुल व्याख्याग्रन्थ, अर्थलाघव, इलोकव्यवहार का अधिक समादर-सरलता तथा शब्दसाधन की संक्षिप्त-प्रक्रिया आदि विशेषताओं के कारण 'कातन्त्रव्याकरण' ने भारतीय विविध-प्रदेशों तथा विदेशों में पर्याप्त-प्रतिष्ठा प्राप्त करके माहेन्द्र-परम्परा को गौरव प्रदान किया है।
इसमें जैन-बौद्ध तथा अन्य आचार्यों का भी अविस्मरणीय योगदान रहा है। पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज की सत्प्रेरणा से वर्तमान जैनसमाज ने तो इसे अपने गौरवग्रन्थ के रूप में स्वीकार कर लिया है। कातन्त्र के आधार पर ठाकुर संग्रामसिंह ने बालशिक्षा व्याकरण तथा ठाकुर शौरीन्द्रमोहन ने गान्धर्वकलापव्याकरण की रचना की थी। सिद्धान्त-प्रक्रिया तथा शब्दावली के प्रयोग की दृष्टि से कातन्त्र का पालिव्याकरण 'कच्चायन' पर सर्वाधिक प्रभाव देखा जाता है। 'कच्चायन' के 675 सूत्रों में से लगभग 325 सूत्र कातन्त्र से समानता रखते हैं। ___ इस पर एक गवेषणापरक प्रामाणिक तुलनात्मक अध्ययन-कार्य की आवश्यकता का अनुभव दीर्घकाल से किया जा रहा था। तदनुसार लगभग 10 वर्ष पूर्व हम दोनों व्यक्तियों ने इस कार्य को करने का विचार किया था, परन्तु इसका शुभारम्भ जनवरी 2001 ई. से हो सका। यह कार्य पुस्तक के रूप में शीघ्र ही पाठकों को उपलब्ध होगा। उसकी एक झलक के रूप में यहाँ लघु-लेख प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसमें प्रारम्भिक 14 विषयों का तो संक्षिप्त परिचय कराया गया है, लेकिन विस्तारभय से अग्रिम 63 विषयों के केवल सूत्र-उदाहरण देकर ही सन्तोष करना पड़ा है। ___इतने से भी कातन्त्र-कच्चायन की समानता का दिग्दर्शन अवश्य हो सकेगा, जिसके फलस्वरूप संस्कृत-पालिभाषाओं में प्राप्त घनिष्ठ-सम्बन्ध के अतिरिक्त संस्कृत-पालिव्याकरणों में भी पर्याप्त घनिष्ठता का अनुमान लगाया जा सकता है। 77 विषयों का तुलनात्मकरूप यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है
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1. वर्णसमाम्नाय कातन्त्र
“सिद्धो वर्णसमाम्नाय:” –(1/1/1)। लोकव्यवहार में प्रसिद्ध वर्णसमाम्नाय इसमें स्वीकार किया गया है। संस्करणभेद से 48, 50 तथा 53 वर्गों का इसके अन्तर्गत पाठ मिलता है। __ अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल, लु, ए, ऐ, ओ, औ, - (अनुस्वार), : (विसर्ग)।
(जिह्वामूलीय), (उपध्मानीय)। क, ख, ग, घ, ङ्, च्, छ्, ज, झ, ञ्, ट, ठ, ड, ढ्, ण, त्, थ्, द्, ध्, न्, प, फ्, ब्, भ, म्, य, र, ल, क्, श्, ए, स्, ह, क्ष्, प्लुत (53)।
कच्चायन- “अक्खरा पादयो एकचत्तालिसं" – (1/1/2) । इसमें 41 वर्ण पढ़े गए हैं
अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ, क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, स, ह, (निग्गहीतं), ळ (मराठी-ल)।
समीक्षा- शाब्दिक आचार्यों द्वारा जो वर्ण जिस क्रम से स्वीकार किये गये हैं, उनके पाठ को वर्णसमाम्नाय, अक्षरसमाम्नाय अथवा वाक्समाम्नाय कहते हैं। समग्र वाङ्मय की दृष्टि से नित्याषोडशिकार्णव-तन्त्र' में 16, पाणिनीय व्याकरण' में 42 तथा वेदों में 6364 वर्ण माने गये हैं।
2. स्वरसंज्ञा कातन्त्र- “तत्र चतुर्दशादौ स्वरा:" – (1/1/2)।
उक्त वर्णसमाम्नाय के प्रारम्भिक 14 वर्णों की 'स्वर' संज्ञा होती है- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लु, ल, ए, ऐ, ओ, औ।
कच्चायन- “तत्थोदन्ता सरा अट्ठ" – (1/1/3)। इसमें 8 वर्गों की स्वरसंज्ञा की गई है— अ, आ, इ, ई, उ ऊ, ए, ओ।
समीक्षा- दो प्रकार के प्रमुख वर्गों में स्वर' उन्हें कहते हैं, जिनके उच्चारण में अन्य की अपेक्षा नहीं होती है- “स्वयं राजन्ते स्वराः।" भिन्न-भिन्न व्याकरणों में हस्व- दीर्घ-प्लुत आदि के भेद से इनकी संख्या में भिन्नता देखी जाती है।
3. ह्रस्वसंज्ञा कातन्त्र- “पूर्वो ह्रस्व:" – (1/1/5)। 'एकमात्रिक स्वरवर्ण की हस्व-संज्ञा की गई है— 'अ, इ, उ, ऋ, लु' । कच्चायन- “लहुमत्ता तयो रस्सा" – (1/114) इसमें केवल 3 वर्गों की हस्व-संज्ञा होती है— 'अ, इ, उ' ।
समीक्षा- उदात्त-अनुदात्त-स्वरित तथा सानुनासिक-निरनुनासिक भेद से इस्व छह प्रकार का होता है। निरुक्त-गोपथब्राह्मण-ऋक्प्रातिशाख्य' आदि प्राचीन ग्रन्थों में भी यह संझा उपलब्ध होती है। 'चान्द्रव्याकरण' आदि अर्वाचीन व्याकरणों में भी यह संज्ञा की
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गई है। इस्व की लघुसंज्ञा' भी की जाती है।
4. दीर्घसंज्ञा कातन्त्र– “परो दीर्घ:" – (1/1/6)। सवर्णसंज्ञक 10 वर्षों में परवर्ती 5 वर्गों की 'दीर्घ' संज्ञा होती है— 'आ, ई, ऊ, ऋ, लु' ।
कच्चायन- “अझे दीघा” –(1/1/5)। इसके अनुसार दीर्घसंज्ञक 5 वर्ण इसप्रकार हैं- 'आ, ई, ऊ, ए, ओ'।
समीक्षा- 'उदात्त' आदि भेद से दीर्घ छह प्रकार का होता है। कातन्त्रव्याकरण में 'ए, ऐ, ओ, औ' की सन्ध्यक्षरसंज्ञा के अतिरिक्त दीर्घसंज्ञा भी मानी जाती है। ऋक्प्रातिशाख्यऋक्तन्त्र-गोपथब्राह्मण आदि प्राचीन ग्रन्थों में तथा चान्द्रव्याकरण आदि अर्वाचीन-ग्रन्थों में भी इस संज्ञा का उल्लेख मिलता है।
कातन्त्रकार आचार्य शर्ववर्मा ने सवर्णसंज्ञक दो-दो वर्गों में से पूर्ववर्ती वर्गों की 'हस्वसंज्ञा' तथा परवर्ती वर्गों की दीर्घसंज्ञा' की है। इस विषय में क्षितीशचन्द्र चटर्जी द्वारा उद्धृत एक श्लोक द्रष्टव्य है (T.T.A.T.O.S.G., Vol. 1, P.192)
पूर्वो हस्व: परो दीर्घ: सतां स्नेहो निरन्तरम् ।
असतां विपरीतस्तु पूर्वो दीर्घ: परो लघुः ।। दीर्घ की 'गुरु' संज्ञा भी की जाती है।
5. व्यंजनसंज्ञा कातन्त्र- "कादीनि व्यञ्जनानि" -(1/1/9)। 34 वर्णों की व्यञ्जन' संज्ञा की गई है— क, ख, ग, घ, ङ। च, छ, ज, झ, ञ। ट, ठ, ड, ढ, ण। त, थ, द, ध, न। प, फ, ब, भ, म। य, र, ल, व। श, ष, स, ह, क्ष।' ___ कच्चायन– “सेसा व्यञ्जना” — (1/1/6) । इसके अनुसार 33 वर्णों की व्यञ्जनसंज्ञा होती है— क, ख, ग, घ, ङ। च, छ, ज, झ, ञ। ट, ठ, ड, ढ, ण । त, थ, द, ध, न । प, फ, ब, भ, म। य, र, ल, व। स, ह, ळ, अं।
समीक्षा— स्वरों का अनुसरण करने के कारण अथवा स्वरप्रतिपाद्य-अर्थों को द्योतित करने के कारण 'क' से 'ह' या 'क्ष' तक की व्यञ्जन-संज्ञा की जाती है'व्यज्यन्ते एभिरिति व्यञ्जनानि' । ऋक्प्रातिशाख्य, गोपथब्राह्मण, नाट्यशास्त्र आदि प्राचीन ग्रन्थों में पूर्वाचार्यों द्वारा इस संज्ञा का व्यवहार किया गया है। ऋक्प्रातिशाख्य' के 'उव्वट-भाष्य' में व्यञ्जन की परिभाषा की गई है
. 'व्यञ्जयन्ति प्रकटान् कुर्वन्त्यानिति व्यञ्जनानि” – (उ.भा. 1/6)।
पाणिनि ने एतदर्थ हल्' प्रत्याहार का व्यवहार किया है। कातन्त्रकार ने संयोगसंज्ञक वर्णो से निष्पन्न होनेवाले वर्गों के निदर्शनार्थ 'अ' वर्ण को भी स्वीकार किया है। इसका समर्थन शंकराचार्यकृत 'अन्नपूर्णास्तोत्र' के इस वचन से होता है
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'आदिक्षान्तसमस्तवर्णनकरी (वर्णनिकरी)।' जिह्वामूलीय, उपध्मानीय तथा प्लुत को भी स्वतन्त्र-वर्ण मान लेने पर कातन्त्र में व्यञ्जनसंज्ञक-वर्णों की संख्या 37 हो जाती है।
6. वर्गसंज्ञा कातन्त्र– “ते वर्गा: पञ्च पञ्च पञ्च" – (1/1/10)। 'क' से लेकर 'म' तक के 25 वर्गों में से पाँच-पाँच वर्गों के समुदाय की 'वर्ग' संज्ञा होती है। इसलिए 5 वर्ग होते हैं।
1. कवर्ग — क, ख, ग, घ, ङ। 2. चवर्ग – च, छ, ज, झ, ञ । 3. टवर्ग — ट, ठ, ड, ढ, ण। 4. तवर्ग - त, थ, द, ध, न। 5. पवर्ग - प, फ, ब, भ, म।
कच्चायन— “वग्गा पञ्च पञ्च सोमन्ता" – (1/1/7) । उक्त के अनुसार यहाँ भी पाँच वर्ग स्वीकृत हैं।
समीक्षा- 'ऋक्प्रातिशाख्य' आदि प्राचीन ग्रन्थों में इस संज्ञा का प्रयोग किया गया है। वाजसनेयिप्रातिशाख्य' के अनुसार क्रमश: 5-5 वर्गों के अन्तर्गत प्रथम-वर्ण से ही वर्ग का बोध होता है, अन्य वर्गों से नहीं—“प्रथमग्रहणे वर्गम्” (1/64)। पाणिनि ने इनका व्यवहार उदित्' पद से किया है—“अणुदित् सवर्णस्य चाप्रत्यय:" (अ. 1/1/69)।
7. अनुस्वारसंज्ञा कातन्त्र– “अं इत्यनुस्वार:” – (1/1/19)। स्वरसंज्ञक वर्ण के ऊपर तिलवत् या अर्धचन्द्रवत् चिह्न की 'अनुस्वार' संज्ञा की गई है—एको बिन्दुरनुस्वारस्तिलवद् वार्धचन्द्रवत् ।' __ कच्चायन- “अं इति निग्गहीतं" – (1/118)। इसमें अनुस्वार की 'निग्गहीत' संज्ञा की गई है।
समीक्षा— स्वर के साथ मिलकर इसका उच्चारण होता है, इसलिए इसे 'अनुस्वार' कहते हैं— 'अनुस्वर्यते संलीनं शब्द्यते इत्यनुस्वारः'। इसकी लिपि दो प्रकार की होती है-., ५। इसे पाणिनीय आदि व्याकरणों में अयोगदाह कहा गया है, परन्तु कातन्त्रकार इसे योगवाह मानते हैं।
8. घोषसंज्ञा कातन्त्र– “घोषवन्तोऽन्ये" – (1/1/12)। अघोष से भिन्न 21 वर्गों की घोषसंज्ञा होती है— 'ग, घ, ङ । ज, झ, ञ । ड, ढ, ण। द, ध, न । ब, भ, म । य, र, ल, व, ह, क्ष।'
कच्चायन- “परसमा पयोगे" -(1/1/9)। इसमें भी 21 वर्णों की यह संज्ञा होती है। 'ग' से 'ह' तक 20 वर्ण समान हैं, तथा 21वाँ वर्ण 'ळ' समझना चाहिये।
समीक्षा- जिन वर्गों के उच्चारण में वायु के वेग से 'नाद-ईषन्नाद' दोनों ही सुनाई पड़ते हैं, उन्हें घोषवान् वर्ण कहा जाता है— 'घोषो विद्यते येषां ते घोषवन्त:' । पाणिनि ने 'ग' से 'ह' तक के 20 वर्णों का बोध 'हस्' प्रत्याहार से कराया है।
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9. अघोषसंज्ञा कातन्त्र– “वर्गाणां प्रथमद्वितीया: शषसाश्चाघोषा:" – (1/1/11)। पाँच वर्गों के प्रथम-द्वितीय वर्ण तथा 'श-ष-स' इन 13 वर्गों की 'अघोष' संज्ञा होती है। क, ख । च, छ। ट, ठ। त, थ। प. फ। श, ष, स' । . कच्चायन– “परसमञा पयोगे" - (1/1/9)। इसके अनुसार 11 वर्ण अघोषसंज्ञक सिद्ध होते हैं- 'क, ख। च, छ। ट, ठ। त, थ। प, फ। श, ष, स'।
- समीक्षा- जिन वर्णो के उच्चारण की ध्वनि अल्परूप में ही सुनाई पड़ती है, उन्हें 'अघोष' कहते हैं- 'न विद्यते घोषो। येषां ते अघोषा:' । शिक्षाग्रन्थों में इसे 'बाह्य-प्रयत्न' के रूप में स्वीकार किया गया है। याज्ञवल्क्यशिक्षा' आदि में भी यह संज्ञा उपलब्ध है। पाणिनि ने इन वर्गों के लिए 'खर्' प्रत्याहार का प्रयोग किया है।
10. व्यंजन का स्वर से संयोजन (परिभाषा) कातन्त्र- “व्यञ्जनमस्वरं परं वर्णं नयेत्” –(1/1/21) । स्वर और व्यञ्जन वर्णो में से किसको किसके साथ सम्बद्ध किया जाना चाहिए— इस सन्देह का समाधान इसमें किया गया है। तदनुसार व्यञ्जन वर्णों को ही परवर्ती वर्ण से सम्बद्ध किया जाना चाहिए।
कच्चायन– “नये परं युत्ते” –(1/1/11)। स्वररहित व्यञ्जन परवर्ती-वर्ण से युक्त होता है। इसके अनुसार अनुस्वार का परनयन नहीं होता- 'अक्कोच्छि में ये निग्गहीत'।
समीक्षा– वस्तुत: व्यञ्जन वर्ण पश्चाद्वर्ती होने के कारण परतन्त्र होते हैं, अत: इस परिभाषा की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती. फिर भी इसका सुखार्थ या स्वरूपाख्यानपरक निर्देश किया गया है।
11. वर्णवियोजन-परिभाषा कातन्त्र– “अनतिक्रमयन् विश्लेषयेत्” –(1/1/22)। सम्मिलित वर्गों का विश्लेषण विना ही अतिक्रमण किए अर्थात् क्रमबद्ध-रूप में करना चाहिए। जैसे—'वैयाकरण:, उच्चकैः' इत्यादि शब्दों में।
कच्चायन– “पुब्बमधोठितमस्सरं सरेन वियोजये” – (I/1/10)। पूर्वोच्चरित अस्वर अर्थात् व्यञ्जन वर्ण को स्वर से क्रमबद्ध-रूप में ही पृथक् करना चाहिए।
समीक्षा— लोकव्यवहार में मान्य इस अर्थ का निर्देश सूत्र द्वारा किया गया है। 'वैयाकरण' शब्द का पूर्वरूप व्+याकरण' माना जाता है। 'ऐ' का आगम बाद में होता है, परन्तु इस परिभाषा के अनुसार 'व्' के बाद इसका उच्चारण किया जाता है। पाणिनि ने इस लोकप्रसिद्ध अर्थ को बताने के लिए सूत्र बनाना आवश्यक नहीं समझा।
___12. लोकव्यवहार पर आधारित शब्दसिद्धि की प्रामाणिकता कातन्त्र- “लोकोपचाराद् ग्रहणसिद्धिः” –(1/1/23)। जिन शब्दों की सिद्धि
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इस कातन्त्र-व्याकरण में नहीं बताई गई है, उनकी सिद्धि शिष्टजनों के व्यवहार से तथा अन्य व्याकरणों से समझ लेनी चाहिए। जैसे—वरणा:' -यह वृक्ष की संज्ञा होने के साथ-साथ नगर का भी बोधक है।
कच्चायन– “अनुपदिहानं वुत्तयोगतो” — (1/5/10) । स्वरसन्धि तथा व्यञ्जनसन्धिसम्बन्धी जो विधान उपसर्ग और निपातों में यहाँ नहीं किया गया है, उसकी योजना यथोचितरूप में (शिष्टजनव्यवहार तथा अन्य व्याकरणों के अनुसार) कर लेनी चाहिए। जैसे- उप+अयनं उपायनं ।
समीक्षा- किसी भी प्राचीन प्रतिष्ठितभाषा में शब्दों की संख्या निश्चित नहीं की जा सकती। तदनुसार संस्कृत-पालि भाषाओं में शब्दों के अनन्त होने के कारण और उन सभी अनन्त-शब्दों का साधुत्वबोध किसी एक व्याकरण द्वारा सम्भव न होने के कारण प्राय: सभी शाब्दिक आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में इसप्रकार के निर्देश किए हैं। उदाहरण के लिए "पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्" (अ. 6/3/101) तथा "सिद्धिः स्याद्वादात्, लोकात्” (हैम. 1/1/2-3) आदि सूत्रवचनों को प्रस्तुत किया जा सकता है।
: 13. दीर्घसन्धि कातन्त्र– “समान: सवर्णे दीर्धीभवति परश्च लोपम्" - (1/2/1)। सवर्णसंज्ञक वर्ण के परवर्ती होने पर समानसंज्ञक वर्ण को दीर्घ-आदेश तथा परवर्ती सवर्णसंज्ञक-वर्ण का लोप होता है। जैसे— 'दण्डाग्रम्, मधूदकम्' इत्यादि।
कच्चायन- "दीघं, पुब्बो च" – (1/2/4-5)। पूर्व-स्वर का लोप हो जाने पर परवर्ती-स्वर को तथा कहीं-कहीं पर परवर्ती-स्वर का लोप हो जाने पर पूर्ववर्ती-स्वर को दीर्घ होता है। जैसे—'सद्वीध, किंसूध' इत्यादि। ... .
समीक्षा- दोनों व्याकरणों में दीर्घसन्धि की प्रक्रिया बिल्कुल भिन्न है। कच्चायन ने केवल कातन्त्रीय सूत्र “लुवर्णे अल्” (1/2/5) का अनुसरण अवश्य किया है— ऐसा कहा जा सकता है।
14. गुणसन्धि कातला— “अवर्ग इवणे ए, उवर्णे ओ" – (1/2/2-3)। इवर्ण उवर्ण के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती अवर्ण के स्थान में 'ए-ओ' आदेश तथा इवर्ण-उवर्ण का लोप होता है।
जैसे- 'सेयम्, गंगोदकम्' इत्यादि। ___ कच्चायन- “क्व चासवण्णं लुत्ते” – (1/2/3) । पूर्व-स्वर का लोप हो जाने पर परवर्ती-स्वर कहीं-कहीं असवर्णता को प्राप्त होता है। जैसे— 'बन्धुस्सेव' इत्यादि।
समीक्षा— यहाँ दोनों व्याकरणों की प्रक्रिया में अन्तर स्पष्टतया परिलक्षित होता है, क्योंकि कातन्त्रकार अवर्ण के ही स्थान में 'ए-ओ' आदेश करते हैं, जबकि कच्चायन व्याकरण में पूर्ववर्ती अवर्ण का लोप करके रूपसिद्धि की जाती है।
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_15. यकारादेश कातका- “इवर्णो यमसवर्णे न च परो लोप्य:" – (1/2/8)। उदाहरण-दध्यत्र, नयेषा। कच्चायन- “पसञस्स च" – (2/1/21) । उदाहरण-पुथव्या, रत्या।
16. प्रकृतिभावसन्धि कातन्त्र– “ओदन्ता अ इ उ आ निपाता: स्वरे प्रकृत्या, द्विवचनमनौ, बहुवचनममी, अनुपदिष्टाश्च" – (1/3/1-4)। उदाहरण—अहो आश्चर्यम्, माले इमे, अमी अश्वा:, आगच्छ भो देवदत्त अत्र।
कच्चायन– “सरा पकति व्यञ्जने, सरे क्वचि" – (1/3/1-2)। उदाहरणतिण्णो पारगतो, को इमं।
17. द्वित्वसन्धि कातन्त्र– “डणना इस्वोपधा: स्वरे द्वि:" – (1/4/7)। उदाहरण—क्रुङत्र, सुगण्णत्र, पचन्नत्र। .. कच्चायन- “वग्गे घोसाघोसानं ततीयपठमा" -(1/3/7)। उदाहरणचत्तारिट्ठानानि।
18. अनुस्वारसन्धि कातन्त्र– “मोऽनुस्वारं व्यञ्जने" – (1/4/15) । उदाहरण—त्वं यासि, त्वं रमसे। कच्चायन- “अं व्यञ्जने निग्गहीतं" – (1/4/1) । उदाहरण—एवं वुत्ते।
19. परसवर्णसन्धि काता - “वर्गे तद्वर्गपञ्चमं वा, वर्गे वर्गान्त:" – (1/4/16; 2/4/45)। उदाहरण—त्वङ्करोषि, नन्दिता। कच्चायन- “वग्गन्तं वा वग्गे" – (1/4/2) । उदाहरण—तन्निब्बुतं ।
20. विसर्ग को उकारादेश कातन्त्र– “अघोषवतोश्च" – (1/5/8)। उदाहरण—को धावति, मनोमयम्। कच्चायन- “एतेसमो लोपे" - (2/3/23) । उदाहरण—मनोमयं, अयोमयं ।
21. लिंगसंज्ञा कातन्त्र– “धातुविभक्तिवर्जमर्थवल्लिङ्गम्" – (2/1/1)। उदाहरण—वृक्ष:, हे वृक्ष ! कच्चायन- "लिंगं च निपच्चते, तदनुपरोधेन" – (2/1/2, 5)। उदाहरण—ब्रह्मा।
22. विभक्तिविधान कातला- "तस्मात् परा विभक्तय:" – (2/1/2)। विभक्तियाँ- प्रथमा–सि, औ, जस् । द्वितीया—अम्, औ, शस्। तृतीया—टा,
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भ्याम्, भिस् । चतुर्थी—डे, भ्याम्, भ्यस् । पञ्चमी—ङसि, भ्याम्, भ्यस्। षष्ठी—डस्, ओस्, आम्। सप्तमी—डि, ओस् सुप्। . कच्चायन- “ततो च विभत्तियो, सियो अंयो नाहि सनं स्माहि सनं स्मिसु" -(2/1/3-4)।
विभक्तियाँ- पठमा—सि, यो। दुतिया—अं, यो। ततीया—ना, हि । चतुत्थीस, न। पञ्चमी—स्मा, हि। छट्ठी—स, न। सत्तमी—स्मिं, सु।
23. सम्बुद्धिसंज्ञा कातन्त्र— “आमन्त्रिते सि: सम्बुद्धिः " – (2/115)। उदाहरण हे वृक्ष ! हे अम्ब ! कच्चायन– “आलपने सि गसञो" – (2/116) । उदाहरण—भोति अय्ये !
24. अग्निसंज्ञा कातन्त्र– “इदुदग्नि:" – (2/1/8)। उदाहरण—अग्निम्, पटुम् । कच्चायन— “इवण्णुवण्णाज्झला" – (2/1/7) । उदाहरण—अग्गि, भिक्खु ।
25. नदीसंज्ञा कातन्त्र– “ईदूत् स्त्र्याख्यौ नदी" --(2/1/9)। उदाहरण—नद्यै, वध्वै। कच्चायन- "ते इत्यिख्या पो” –(2/1/8)। उदाहरण—इत्थी, वधू।
26. श्रद्धासंज्ञा कातन्त्र– “आ श्रद्धा" – (2/1/10)। उदाहरण—श्रद्धा, माला। कच्चायन- उदाहरण—करुणा, कञा।
27. एकारादेश कातन्त्र– “धुटि बहुत्वे त्वे, ओसि च" – (2/1/19, 20)। उदाहरण—एषु, वृक्षयोः ।
कच्चायन- "सूहिस्वकारो ए, सब्बनामानं नम्हि च, सब्बस्सि मस्से वा" —(2/1/50, 51: 3/10)। उदाहरण—सब्बेसु, सब्बेहि, सब्बेसानं, एषु।
___ 28. 'इन' आदेश कातन्त्र– “इन टा" – (2/1/23)। उदाहरण—वृक्षण। कच्चायन- “अतो नेन" – (2/1/52)। उदाहरण—सब्बेन।
29. यकारादेश कातन्त्र– “डेर्य:" – (2/1/24)। उदाहरण—वृक्षाय । कच्चायन— “आय चतुत्येकवचनस्स तु”—(2/1/58)। उदाहरण—अत्थाय, हिताय।
30. 'स्मात्-स्मिन्' आदेश कातला— “डसि: स्मात्, डि स्मिन्” –(2/1/26-27) । उदाहरण सर्वस्मात् सर्वस्मिन्।
कच्चायन- “स्माहिस्मिन्नं म्हाभिम्हि वा” – (2/1/48)। उदाहरण—पुरिसस्मा, पुरिसस्मि।
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31. सु आगम काता - “सुरामि सर्वत:" – (2/1/29)। उदाहरण—सर्वेषाम्, तासाम् । कच्चायन- “सब्बतो नं सासानं" – (2/3/8)। उदाहरण—सब्बेसं, सब्बेसानं ।
32. 'ई आदेश काता - “जस् सर्व इ., अल्पादेर्वा, द्वन्द्वस्थाच्च" – (2/1/30-32)। उदाहरणसर्वे, अल्पे कतरकतमे। .
कच्चायन– “सब्बनामकारते पठमो, द्वन्दट्ठा वा” –(2/3/4-5) । उदाहरण ते, कतरकतमे।
___33. सर्वनामसम्बन्धी कार्यों का निषेध काता- “नान्यत् सार्वनामिकम्, तृतीयासमासे च, बहुव्रीहौ”–(211/ 3335)। उदाहरण—पूर्वापराय, मासपूर्वाय, त्वत्कपितृकः।
कच्चायन- “तयो नेव च सब्बनामेहि, नाझं सब्बनामिक, बहुब्बिहिम्हि च" – (2/1/59: 3/6, 7)। उदाहरण—सब्बस्मा, पुब्बापरानं, पियपुब्बानं ।
34. एकारादेश। कातला- “सम्बुद्धौ.च" – (2/1/ 39)। उदाहरण हे श्रद्धे ! हे माले ! कच्चायन- “घते च" – (211163)। उदाहरण—भोति अय्ये !
35. इकारादेश कातका- “औरिम्” –(211/41)। उदाहरण—श्रद्धे, माले, द्वे। कच्चायन- “योसु द्विन्नं द्वे च" -(2/2/13)। उदाहरण द्वे धम्मा, द्वे रूपानि।
36. 'याम्' आदेश कातका– “डवन्ति यै-यास्-यास्-याम्” – (211142)। उदाहरण—श्रद्धायाम्, मालायाम्। कच्चायन- “घपतो स्मिं यं वा" - (21416) । उदाहरण—गंगायं।
37. 'स्यास्-स्याम्' आदेश काता - “सर्वनाम्नस्तु ससवो इस्वपूर्वाश्च” – (2/1/43)। उदाहरण—सर्वस्या:, सर्वस्याम्। कव्वायन- “घपतो स्मिसानं संसा" -(2/3/19) । उदाहरण—सब्बस्स, सब्बस्सा।
38. अकारलोप कातन्त्र– “अम्शसोरादिलॊपम्” – (2/1/47)। उदाहरण नदीम्, वधूः ।
कच्चायन- “सरलोपोमादेसप्पच्चयादिम्हि सरलोपे तु पकति" - (2/1/32)। उदाहरण—पुरिसं, पापियो। :
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___39. 'सि-अम्' प्रत्ययों का लोप कातन्त्र– “व्यञ्जनाच्च, नपुंसकात् स्यमोर्लोपो न च तदुक्तम्”–(2/1/49; 2/6) । उदाहरण—वाक्, पयः ।
कच्चायन- “इमस्सिदमंसिसु नपुंसके, अमुस्सा," – (2/2/10-11) । उदाहरणइदं, अदुं।
40. एकार-ओकारादेश कातका- "इरेदुरोज्जसि, सम्बुद्धौ च" – (2/1/55-56)। उदाहरण—अग्नयः, पटव:, हे अग्ने !
कच्चायन- “योस्वकतरस्सोझो, वेवोसु लो च” –(2/1/45-46) । उदाहरणअग्गयो, भिक्खवे, भिक्खवो। .
41. उकारादेश कातन्त्र– “ऋदन्तात् सपूर्व:” – (2/1/63)। उदाहरण—पितुः, मातुः। . कच्चायन- “उ सास्मं सलोपो च" – (2/3/43)। उदाहरण—पितु, मातु।
42. 'आ' आदेश तथा सि-लोप कातला- “आ सौ सिलोपश्च" - (211164)। उदाहरण—पिता, माता।
कच्चायन- “सत्थुपितादिनमा सिस्मि सिलोपो च" – (2/3/39) । उदाहरणपिता, माता।
____43. 'अर्' आदेश काता- “अर् औ" – (2/1/66)। उदाहरण—पितरि, मातरि। .
कवायन- "अजेस्वारन्तं, ततो स्मिमि, आरो रस्समिकारे"-(2/3/40, 46, 48)। उदाहरण—मातरि, पितरि।
44. 'आर् आदेश काता- “धातोस्तृशब्दस्या" – (2/1/68)। उदाहरण—कर्तारौ, कर्तारः । कच्चायन- “अज्जेस्वारन्तं" -(2/3/40)। उदाहरण-सत्थारं।
45. सि' प्रत्यय का लोप .. कातन्त्र- "इस्वनदीश्रद्धाभ्य: सिर्लोपम्” –(2/171)। उदाहरण हे वृक्ष ! हे अग्ने ! कच्चायन- "सेसतो लोपं गसिपि" -(21410)। उदाहरण-भो राजा।
.. 46. 'नु आगम कातका- “आमि च नुः, चतुरः" -(2/1/72, 74)। उदाहरण-नदीनाम्, चतुर्णाम्। - कच्चायन- “नो च द्वादितो नम्हि" – (211/16)। उदाहरण—द्विन्न ।
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47. जस्-शस्' प्रत्ययों का लोप . कातला- “कतेश्च जस्-शसोलुंक" -(2/1/76)। उदाहरण—षट्, पञ्च ।। कच्चायन– “पञ्चादीनमकारो" – (2/2/15)। उदाहरण—पञ्च इत्थी, नव जना।
48. ‘ड्' अनुबन्धवती विभक्तियों में नदीवद्भाव कातन्त्र- "इस्वश्च डवति" – (2/2/5) । उदाहरण—श्रियै, भूवै। कच्चायन- “अमा पतो स्मिं स्मानं वा” – (2/1/17) । उदाहरण—मत्यं, मत्या।
49. 'मु आगम तथा 'सि-अम्' का लोप कातला- “अकारादसम्बुद्धौ मुश्च" – (2/2/7) । उदाहरण—कुण्डम्, अतिजरम्। कच्चायन- “सिं" – (2/4/9)। उदाहरण—सब्बं ।
50. 'न' आगम तथा 'शि' आदेश कातन्त्र– “धुट्स्वराद् घुटि नुः, जश्शसो: शि:” – (2/2/11, 10) । उदाहरणपद्मानि, पयांसि। कच्चायन– “योनन्नि नपुंसकेहि" – (2/4/7) । उदाहरण—अट्ठीनि, आयूनि ।
51. दीर्घ आदेश . कातन्त्र– “समान: सवर्णे दीर्धीभवति परश्च लोपम्, दीर्घमामि सनौ, नान्तस्य चोपधाया:" - (1/2/1; 2/2/15-16)। उदाहरण—अग्नी, अग्नीनाम, पञ्चानाम्।
कच्चायन- “योसु कतनिकारलोपेसु दीघं, सुनंहिसु च” –(2/1/37, 38)। उदाहरण—अग्गी, अग्गीनं।
52. न्' की उपधा को दीर्घ काता- “घुटि चासम्बुद्धौ” – (2/2/17)। उदाहरण—राजा, राजानम्। '
कच्चायन- “ब्रह्मत्तसखराजादितो अमानं, योनमानो” – (2/2/28, 30)। उदाहरण—ब्रह्मानं, ब्रह्मानो।
53. मकार-वकारोत्तरवर्ती अकार को दीर्घ काता- “अन्त्वसन्तस्य चाधातो: सौ” – (2/2/20)। उदाहरण—मतिमान्, शीलवान्। कच्चायन- “आ सिम्हि" – (2/215) । उदाहरण—शीलवा, बलवा (आकारादेश)।
54. ए-आय' आदेश । कातला- "घुटि त्वै, ऐ आय्” – (2/2/24; 3/2113)। उदाहरण—सखायौ, सखायः। कच्चायन- “सखातो चायो नो" -(2/3/31)। उदाहरण—सखायो।
____55. 'औ-आव्' आदेश कातला- “गोरौ घुटि औ आव्" – (2/2/33; 1/2/15)। उदाहरण—गावी, गावः ।
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कच्चायन- “गाव से, योसु च, अवम्हि च" – (2/1/22-24)। उदाहरणगावस्स, गावो गच्छन्ति, गावं ।
56. नलोपादेश कातन्त्र– “अनुषंगश्चाक्रुञ्चेत्” – (2/2/39)। उदाहरण—विदुषः, शीलवत:, बुद्धिमत:। कच्चायन- “तोतिता सस्मिनासु” – (2/2/8) । उदाहरण—गुणवतो, गुणवती, गुणवता।
57. 'अन्' भाग का लोप । कातला- "पुंसोऽन्शब्दलोप:" - (2/2/40)। उदाहरण—पुम्भ्याम् । कच्चायन– “पुमस्स लिंगादिसु समासेसु” – (2/4/12) |उदाहरण—पुल्लिंग, पुमभावो।
58. 'अन्' के अकार का वैकल्पिक लोप कातन्त्र— "ईडयोर्वा" – (2/2/54)। उदाहरण—साम्नी, सामनी। राज्ञि, राजनि। कच्चायन– “स्मिम्हि रज्ञ - राजिनि” – (2/2/19)। उदाहरण—रज्जे, राजिनि।
59. इय्-उन्' आदेश कातला- "ईदूतोरियुवौ स्वरे" – (2/2/56)। द्र.-2/2/57-58 भी। उदाहरण— नियः, लुवः।
कच्चायन- "झलानमियुवा सरे वा" – (211/19)। उदाहरण—अग्गियागारे, पुथुवासने।
60. 'य-व्' आदेश काता - “अनेकाक्षरयोस्त्वसंयोगाद् यवौ” –(2/2/59)। उदाहरण—ग्रामण्य:,
यवल्वः ।
कच्चायन— “यवकारा" – (2/1/20)। उदाहरण—अग्यागारे, चक्ख्वायतनं ।
61. 'इय्' आदेश काता - “वाऽम्शसो:" – (2/2/62)। उदाहरण—स्त्रियम् स्त्रियः। कच्चायन- “अं यमीतो पसातो" – (2/4/13)। उदाहरण—इत्थियं ।
62. 'क' प्रत्यय .कातला- “अव्ययसर्वनाम्न: स्वरादन्त्यात् पूर्वोऽक् कः" – (2/2164)। उदाहरणवत्सक:, वृक्षकः। कच्चायन– “सब्बतो को” — (2/3/18)। उदाहरण—सब्बको, अमुको।
63. वस्-नस्' आदेश कातला- “युष्मदस्मदो: पदं पदात् षष्ठीचतुर्थीद्वितीयासु वस्नसौ”–(2/3/1)। उदाहरण—पुत्रो व:, पुत्रो नः।' ....
कच्चायन—“पदतो दुतिया-चतुत्थी-छट्ठीसु वो नो" – (2/2/28) । उदाहरण
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64. ते-में आदेश: काता- “त्वन्मदोरेकत्वे ते मे त्वा मा तु द्वितीयायाम्" – (2/3/3)। उदाहरणपुत्रस्ते, पुत्रो मे। . कच्चायन- “तेमेकवचने" – (2/2/29) । उदाहरण—इदं ते रटुं, अयं मे पुत्तो।
65. ते-में आदेशों का निषेध काता - “न पादादौ" - (2/3/4) 15.-चादियोगे च (2/3/5)। उदाहरणयुष्माकं कुलदेवता, अस्माकं पापनाशनः । . कच्चायन- "नाम्हि" – (2/2/30) । उदाहरण—सो मं बुवि।
66. त्वम्-अहम्' आदेश कातन्त्र- "त्वमहं सौ सविभक्त्योः ” –(2/3/10)। उदाहरण—त्वम्, अहम् । कच्चायन- "त्वमहं सिम्हि च-(2/2/21) । उदाहरण—त्वं, अहं ।
67. तुभ्यम-मह्यम्' आदेश काता - “तुभ्यं मह्यं ङयि" -(2/3/12)। उदाहरण तुभ्यम्, मह्यम् । कच्चायन- “तुम्हं मय्हं च” –(2/2/23)। उदाहरण—तुय्हं, मय्हं ।
68. 'तव-मम' आदेश कातन्त्र- "तव मम डसि" – (2/3/13)। उदाहरण-तव, मम। कच्चायन- “तव मम से" – (2/2/22)। उदाहरण—तव, मम।
69. 'आकम्' आदेश कातन्त्र- “सामाकम्” –(2/3/16) । उदाहरण-युष्माकम्, अस्माकम्।
कन्वायन- "तुम्हाम्हेहि नमाकं” – (2/3/1)। द्र.- वा स्वप्पठमो (2/3/2)। उदाहरण—तुम्हाक, अम्हाकं।
____70. एकारादेश कातन्त्र- "एत्वमस्थानिनि" - (2/3/17) । उदाहरण—त्वयि, मयि ।
कच्चायन- "तुम्हाम्हानं तयि मयि, तया तयीनं तकारो त्वत्तं वा” –(2/2/20; 3/50) । उदाहरण—तयि, मयि।
71. त्वद्-मद् आदेश कातन्त्र- "एत्वमस्थानिनि" – (2/3/17) । उदाहरण—त्वया, मया। कान्वायन- “नाम्हि तया मया" - (2/2/26) । उदाहरण तया, मया।
72. तिस-चतस' आदि आदेश . - कातन्त्र- “त्रिचतुरो: स्त्रियां तिसृ चतसृ विभक्ती, जश्शसो: शि:" – (2/3/25; 210) । उदाहरण—तिम्रः, त्रीणि। चतस्रः, चत्वारि।
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कच्चायन- “तिचतुन्नं, तिस्सो चतस्सो तयो चत्तारो तीणि चत्तारि"- (2/21 14)। उदाहरण—तिस्सो वेदना, तया जना, चत्तारि अरियसच्चानि।
73. सकारादेश कातन्त्र- “सौ स:, तस्य च" – (2/3/32-33)। उदाहरण—असौ, सः।
कच्चायन- “अमुस्स मो सं, एततेसं तो” – (2/3/13-14)। उदाहरण—असु राजा, एसो पुरिसो, सो पुरिसो।
74. 'अयम्' आदेश कातका- "इदमियमयम्पुंसि" – (2/3/34)। उदाहरण—अयं पुमान्। कच्चायन- “अनपुंसकस्सायं सिम्हि" - (2/3/12)। उदाहरण—अयं पुरिसो।
75. 'अत्' आदेश कातला- “अद् व्यञ्जनेऽनक्” – (2/3/35)। उदाहरण—आभ्याम्। कच्चायन- “इम सहस्स च" -(2/3/17) । उदाहरण-अस्स, अस्मा।
.....76. 'अन' आदेश कातला- "टौसोरनः" – (2/3/36) । उदाहरण—अनेन, अनयोः । कच्चायन- “अंनिमि नाम्हि च" -(2/3/11)। उदाहरण—अनेन।
77. स्यादि विभक्तियों का लोप कातला- "अव्ययाच्च" -(2/4/4)। उदाहरण—प्रात:, एव।
कच्चायन- “सब्बासमावसोपसग्गनिपातादीहि च" – (2/4/11)। उदाहरणयथा, खलु।
भगवान मी समतापी आनंद की प्रामव्यस्त है “समामृतानन्दभरेण पीडिते। भवन्मन: कुड्मलके स्फुटयत्यति।। विगाह्य लीलामुदियाय केवलं । स्फुटैकविश्वोदरदीपकार्चिषः ।।"
-(आचार्य अमृतचन्द्र, लघुतत्त्वस्फोट 11, पृष्ठ 51) सान्वयार्थ :- (समामृतानन्द भरेण) समतारूपी अमृत जन्य आनन्द के भार से (पीडिते) पीडित-युक्त (भवन्मनः कुड्मलके स्फुटयत्यति) आपके मनरूपी कुड्मल-कली के सर्वथा विकसित हो जाने पर (लीलां विगाह्य) अनन्त आनन्द की क्रीडा में प्रवेश करके (स्फुटैक विश्वोदर दीप-कार्चिषः केवलंउदियाय) समस्त विश्व के उदर को स्फुट रूप से प्रकट करने वाले दीपक की ज्योति स्वरूप आपको केवलज्ञान प्रकट हुआ।
तात्पर्य उसका यही है कि जब समतारूपी अमृत का आनन्द आपकी आत्मा में भर गया तब समस्त विश्व को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान आपको प्राप्त हुआ यही आपकी लीला है।
- (अनुवाद- आचार्य विद्यानन्द मुनिराज) ..
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रोहतक से प्राप्त अप्रकाशित जैन मूर्तियाँ
-डॉ. सत देव 'रोहतक' हरियाणा का एक प्राचीन नगर है, जो दिल्ली के पश्चिम में 70 किलोमीटर की दूरी पर (28' 54' उत्तरी अक्षांश तथा 75135' पूर्वी देशान्तर) पर स्थित है। यह नगर साहित्य व पुरातात्त्विक दृष्टिकोण से पर्याप्त-प्राचीन है। इसका उल्लेख सर्वप्रथम पंचविंश ब्राह्मण'2 में हुआ है। इसमें रोहतक नाम से मिलता-जुलता रोहत-कूल' शब्द का प्रयोग हुआ है। महाभारत में इसका रोहितक' के नाम से वर्णन मिलता है। महाभारतकार के अनुसार 'रोहिताकारण्य' वह वन था, जो कुरु-सेना से घिरा हुआ था तथा दिग्विजय के समय कर्ण ने रोहितक का दमन किया था।
जैन-साहित्य में वर्णित रोहिद' नगर की पहचान रोहतक से की जाती है। परम्परा के अनुसार यहाँ के एक उद्यान में धर्मयक्ष की पजा का स्थल था तथा तीर्थंकर महावीर ने कई बार इस नगर की यात्रा की थी।
प्राचीन रोहतक का एक अन्य नाम 'बहुधान्यक' भी था। यह नाम रोहतक से बहुसंख्या में प्राप्त यौधेयों के सिक्कों पर मिलता है। वासुदेवशरण अग्रवाल ने रोहितक-बहुधान्यक भू-भाग की 'संध्यधानक' जनपद से पहचान की है, जिसका उल्लेख 'वामन पुराण' में उत्तरापथ के जनपदों की सूची में आया है।
बौद्ध-साहित्य में रोहतक की गणना उत्तरी भारत के प्रमुख नगरों में की गई है। विनयपिटक' में बद्ध की एक लम्बी यात्रा का वर्णन है। इसमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का दिव्य-मूर्ति-शिल्प
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कहा गया है कि वह अपने शिष्य आनन्द के साथ हस्तिनापुर से चलकर महानगर, सरुधन, ब्राह्मणग्राम तथा कालनगर होते हुए रोहितक पहुँचे। उन्होंने रोहतक में यक्ष चक्रपाणि से वार्तालाप किया। इसी में जीवक कुमार भृत्य की यात्रा का भी वर्णन है, जो तक्षशिला से भदरानकर, उदुम्बर तथा रोहतक होते हुए मथुरा गया था। महामयूरी' (चौथी शताब्दी) के अनुसार स्कन्द (कार्तिकेय) रोहतक के तथा कपिल बहुधान्यक के यक्ष थे। इसी समय के अन्य प्रमुख ग्रन्थ दिव्यावदान के अनुसार रोहतक एक महानगर था, जो 12 योजन लम्बा तथा 7 योजन चौड़ा था और वह सात परकोटों में आबंटित था, जिसमें 62 द्वार थे और यहाँ सहस्रों की संख्या में मकान, चौड़ी सड़कें, बाजार और दुकाने थीं।
वर्तमान रोहतक नगर और उसके समीपस्थ क्षेत्र में कई प्राचीन टीले विद्यमान हैं। ये प्राचीनकाल में रोहतक से ही जुड़े रहे होंगे, परन्तु अब उनका अलग अस्तित्त्व है। यह स्थल निम्नलिखित हैं- 1. खोखरकोट, 2. लालपुर तथा रामलआला 3. अस्थल बोहर तथा 4. माजरा (बोहर)। ग्रामीणों द्वारा की गई खुदाई से माजरा (बोहर) टीले से प्राचीन तांबे और चांदी के सिक्के, जैन तथा हिन्दू देवताओं की मूर्तियाँ आदि मिली हैं। हाल ही में यहाँ से पार्श्वनाथ की दो प्रतिमाएँ एवं कुछ प्रतिमाखण्ड प्राप्त हुए हैं। ये प्रतिमाएँ यहाँ प्रथम बार प्रकाशित की जा रही हैं।
- जैनधर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की इन प्रतिमाओं में उन्हें स्थानक-मुद्रा (कायोत्सर्ग-मुद्रा) में खड़े दिखलाया गया है। प्रथम मूर्ति (फलक-1) का माप 69x26 से. मी. है। तीर्थंकर कमल-पुष्प पर खड़े हैं। वह पूर्णतया नग्न-अवस्था में हैं। इस प्रकार यह प्रतिमा जैनधर्म के दिगम्बर-सम्प्रदाय से सम्बन्धित है। मस्तक के पीछे सात फनवाले सर्प का चित्रण है, जो पार्श्वनाथ का लांछन है। सर्पफनों के ऊपर छत्र है, जिसके दोनों ओर सवार-सहित हाथी घट से तीर्थंकर का जल से अभिषेक कर रहे हैं। उससे नीचे दोनों ओर पुष्पमाला लिये स्त्रियाँ खड़ी हैं। उससे नीचे दोनों ओर सिंहमुख तथा शार्दूल का चित्रण है। यह सिंहासन का प्रतीक है। इससे नीचे बाईं ओर एक पुरुष तथा दायीं ओर एक स्त्री त्रिभंग-मुद्रा में कमल-पुष्प लिए खड़ी है। स्त्री का सिर खण्डित है। आधार पर बाईं ओर एक छोटी-सी आकृति उपासक की बनाई गई है, जो हाथ जोड़े बैठा है। मूर्ति के आधार पर दो पंक्तियों का लघु-लेख है। इसमें संवत् 1016 का उल्लेख है। लिपि के आधार पर यह लेख 10वीं शताब्दी का है। ____ पार्श्वनाथ की दूसरी प्रतिमा (फलक-2) भी इसी ग्राम से मिली है, जिसका आकार 715x26 से.मी. है। यह प्रतिमा भी उपरोक्त-मूर्ति से साम्य रखती है। मूर्ति का दाँया हाथ टूटा हुआ है। नीचे स्त्री और पुरुष के चेहरे खण्डित हुए हैं। नीचे आधार पर दो पंक्तियों का अभिलेख है। आधार का आकार त्रिरथ है। लिपि ग्याहरवीं शताब्दी से साम्य रखती है।
एक खण्डित जैन-मूर्ति (फलक-3) में दो तीर्थंकरों को स्थानक-मुद्रा में पास-पास खड़े
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दिखलाया गया है। इन दोनों तीर्थंकरों के बीच में तथा दोनों ओर तीन बैठी हुई जिन-आकृतियाँ पद्मासन- मुद्रा में दिखाई गई हैं। इन मूर्तियों के सिर पर छत्र है। ये लघु-आकृतियाँ कलात्मक नहीं है; किन्तु खड़ी हुई तीर्थंकरों की मूर्तियों में शरीर को सुगठित दिखलाया गया है। ये कमल-पुष्प पर अलग-अलग खड़ी हैं। नीचे चार सिंहों का अंकन है। इनके सिर पूरी तरह खण्डित हैं। यह मूर्ति - खण्ड 'माजरा' ग्राम से प्राप्त हुआ है, जो दसवीं ती का है। यह मूर्ति अब जैन - मन्दिर रोहतक में देखी जा सकती है।
एक अन्य मूर्ति-खण्ड में तीर्थंकर मूर्ति के दाहिने खण्डित-भाग पर जिन को खड़े हुए दिखाया गया है (फलक-4)। सिर के केश घुंघराले हैं। कान कंधे तक लम्बे दिखाये गये हैं । इसमें मुख खण्डित है तथा भुजाएँ और उदरभाग नाभि से नीचे टूट गया है। यह मूर्ति जैन - मन्दिर रोहतक में है, जो कला की दृष्टि से दसवीं शती की है।
माजरा (बोहर) से ही खण्डित तीर्थकर - मूर्ति का बाँया भाग प्राप्त हुआ है ( फलक- 5)। इस मूर्ति में कई जिनों को दिखलाया गया है। इस खंडित भाग पर एक जिन के घुटनों से नीचे के पैर सुरक्षित हैं, जिसके दोनों ओर उपासिकाओं को दिखाया गया है। उससे नीचे स्तम्भों से घिरे भाग में एक जिन-आकृति आसन मुद्रा में बैठी है। जिन के ऊपर छत्र है। बायें स्तम्भ के बाहर एक उपासिका खड़ी है। यह मूर्ति - खंड भी दिगम्बर सम्प्रदाय से सम्बन्धित है। कला की दृष्टि से इस प्रतिमा को दसवीं- ग्यारहवीं शती में रखा जा सकता है । यह मूर्ति - खंड भी रोहतक जैन मन्दिर में रखा हुआ है।
उल्लेखनीय है कि लगभग एक शताब्दी पूर्व रोजर्स " ने कुछ बहुत सुन्दर जैन- मूर्तियों को रोहतक के पास अस्थल - जोगियों के नाथ सम्प्रदाय के मठ में देखा था तथा उन्हें प्रकाशित किया था। बी.सी. भट्टाचार्य | 2 ने 1939 ई. में पार्श्वनाथ की एक स्थानक - मूर्ति, जो जोगियों के मठ में है, का उल्लेख किया था। 1959 ई. में यज्ञदत्त शर्मा ने भी अस्थल बोहर के मठ में स्थित कुछ ब्राह्मण और जैन - मूर्तियों का उल्लेख किया था। बाद में उमाकान्त पी. शाह. 14 एम.ए. ढाकी 15 तथा मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी " ने भी रोहतक की जैन - प्रतिमाओं का उल्लेख अपने शोधकार्यों में किये। किन्तु किसी ने भी इस मूर्ति - - सम्पदा का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया । देवेन्द्र हाण्डा'" ने अवश्य ही रोहतक की जैन- मूर्तियों पर एक विस्तृत शोध- निबन्ध लिखा ।
जहाँ तक जैन-साहित्य में रोहतक के विवरण का सम्बन्ध है, रोहतक का विपाकसूत्र' में उल्लेख मिलता है। जैनधर्म की श्वेताम्बर - परम्परा के अनुसार 'विपाकसूत्र' जैन साहित्य के बारह अंगों में से ग्यारहवाँ अंग है। आर. एन. मेहता " विपाकसूत्र को नौवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की रचना मानते हैं। विपाकसूत्र का कथन है कि बेसमणदत्त . (वैस्रमणदत्त ) तथा पूसनन्दी (पुष्यनन्दी) रोहिदिय (रोहतक) से शासन करते थे ।" इसी ग्रंथ में रोहिद (रोहतक) के पृथव्यावतंश उद्यान में स्थित धरण - यक्ष के नन्दी का उल्लेख
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है। धरण पार्श्वनाथ का यक्ष है। 'विपाकसूत्र' का यह उल्लेख नौवीं शताब्दी के रोहतक में पार्श्वनाथ की पूजा की लोकप्रियता को दर्शाता है। रोहतक के श्रावकों का खरतरगच्छवृहद्-गुर्वावलि में उल्लेख इस बात की ओर संकेत करता है कि जैनधर्म चाहमान और इसके बाद के कालों में भी रोहतक में पल्लवित होता रहा और इस नगर में जैन- मतावलम्बियों की उस समय एक बड़ी संख्या थी। इस आलेख में प्रकाशित पार्श्वनाथ की प्रतिमाओं से इस विचार की पुष्टि होती है। ग्रन्थ-सूची 1. इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इण्डिया, प्रोविन्शियल सीरीज, पंजाब, वॉल्यूम 1, 1908, पृ. 247 2. पंचविंश ब्राह्मण, (14.3.12), पृ. 354 3. महाभारत, खण्ड 4, 19-33 4. महाभारत में वर्णित रोहितक का समीकरण जयचन्द्र विद्यालंकार ने सर्वप्रथम 1936 ई. में
किया था। .. 5. जे.सी. जैन, लॉइफ इन ऐन्शियण्ट इण्डिया ऐज डिपिक्टेड इन जैन कैनन्स, दिल्ली, 1947,
पृ. 328 6. वी.एस. अग्रवाल, वामनपुराण: ए स्टडी, वाराणसी, 1964, पृ. 7 7. गिलगिट मैनुस्क्रिप्ट, खण्ड-तृतीय, भाग-1, पृ. 2 (स.) नालिनाक्ष दत्त । 8. वही, खण्ड तृतीय, भाग 1, पृ. 33-34 9. महामयूरी (स.), सिल्वां लेवी, 1915, पृ. 64-68 10. दिव्यावदान (स.), पी.एल. वैद्य, दरभंगा, पृ. 67 11. सी.जे. रोजर्स, लिस्ट ऑफ ऑब्जेक्ट ऑफ आर्कयोलॉजिकल इंटेरेस्ट इन पंजाब, कलकत्ता, _____1891, पृ. 74-76 12. बी.सी. भट्टाचार्य, दि जैन आइकोनोग्राफी, लाहौर, 1939, फलक-6 13. इण्डियन आर्केयोलॉजी, 1959-60 ए रिव्यू, पृ. 74, फलक-60-डी तथा 61 14. उमाकान्त पी.शाह, स्टडीज इन जैन आर्ट, बनारस, 1955, पृ. 17 15. एम.ए. ढाकी, 'सम अर्ली जैन टेम्पल्स इन वेस्टर्न इण्डिया', महावीर जैन विद्यालय गोल्डन
जुबली, वाल्यूम, बम्बई, 1968, पृ. 293 16. मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी, जैन प्रतिमा विज्ञान, वाराणसी, 1981, पृ. 52 तथा 126 17. देवेन्द्र हाण्डा, 'जैन स्कल्पचर्स फ्रॉम रोहतक,' शिल्प संवित्। (स्टडीज इन जैन आर्ट एण्ड ___आइकोनोग्राफी एण्ड एलाइड सब्जेक्टस् इन ऑनर ऑफ डॉ. यू.पी. शाह), पृ. 67-72 18. समरी ऑफ पेपर ऑफ दा आल इण्डिया सैमिनार ऑन जैन कैनोनीकल लिटरेचर,
अहमदाबाद, 1986, पृ. 14 19. रमेश जमींदार, पोलिटिकल कंडीशंस एज नैरेटेड इन द विपाकसूत्र, हाण्डा देवेन्द्र(सं.)
अजय-श्री, रीसेन्ट स्टडीज इन इण्डोलॉजी, (प्रो. अजय मित्र शास्त्री, फेलिसिटेशन, वाल्यूम) भाग-1, दिल्ली, 1989, पृ. 102 से उद्धृत।
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दर्शन-शास्त्र अन्तर्मुखी बनाता है और प्रदर्शनबहिर्मुखी
-डॉ. सुषमा सिंघवी कुन्दकुन्दाचार्य रचित प्राकृत-ग्रन्थों का सार है___ “णियदंसणं हि दंसणं” अर्थात् निजदर्शन ही दर्शन है। निज का, निज के लिये. निज के द्वारा अनुभूत-दर्शन वास्तविक दर्शन है। यह स्वदर्शन अन्तर्मुखी-मनोवृत्ति का फल है। परपदार्थ की ओर दृष्टि होना प्रदर्शन है। स्वचैतन्य से भिन्न परपदार्थों (शरीर-पात्र-सम्पत्ति- साधन-सत्ता आदि) का, स्वयं से भिन्न दूसरों (पर) के लिये दर्शन कराना (दिखाना) प्रदर्शन है। प्रदर्शन बहिर्मुखी-मनोवृत्ति का फल है।
'दर्शन' और 'प्रदर्शन' क्रमश: स्वभाव' और 'विभाव' के दो नाम हैं, सूक्ष्म और स्थूल के दो वर्तुल हैं; द्रव्य और पर्याय, अन्त: और बाह्य, निश्चय और व्यवहार, अपने और पराए के प्रतिपादक हैं। 'दर्शन' स्वयं की चेतना का अनुभव है और प्रदर्शन' पुद्गल-निर्मित पर- पदार्थों के कर्तृत्व का मिथ्या-अभिमान । आज यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि हमें अन्तर्मुखी बनकर 'दर्शन' करना है या बहिर्मुखी बनकर 'प्रदर्शन'?
भगवान् महावीर ने कहा- तुममेव तुमं मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि' अर्थात् तुम स्वयं अपने मित्र हो, बाहरी मित्र की इच्छा क्यों करते हो? स्वयं से मित्रता करने हेतु दर्शन की आवश्यकता है, अन्तरात्मा की जागृति जरूरी है और अन्तर्मुखी बनना होता है। बाहर से मित्र बनाने का इच्छुक प्रदर्शन की जरूरत महसूस करता है, बहिरात्मा बना रहता है और बहिर्मुखी बनता है। जैनदर्शन में 'अप्पा कत्ता विकत्ता या सुहाण य दुहाण य' कहकर हमारे पुरुषार्थ को अन्तर्मुखी करने पर बल दिया है। अन्तर्मुखी बनने में दर्शन-शास्त्र सहायता करते हैं, इससे यह पुष्ट होता है कि स्व-स्वातन्त्र्य 'उपादेय' है। बहिर्मुखी बनने की परतन्त्रता हेय' है। पर-पदार्थों की पराधीनता से ग्रसित प्रदर्शन को स्वीकार नहीं किया गया है। आचार्य-ऋषियों का स्पष्ट निर्देश है कि हमारा पुरुषार्थ अन्तर्मुखी बनाकर आत्म- स्वतन्त्रता की दिशा में होना चाहिये, हमें परतन्त्रता तो ईश्वर की भी स्वीकार्य नहीं। (जैनदर्शन ईश्वर के जगत्कर्तृव को नहीं मानता है।) पुद्गल आसक्ति-प्रधान बहिर्मुखी-वृत्ति हमारा लक्ष्य नहीं है।
हम आत्मवान् बनें या आत्मघाती —यह हमारी वृत्तियों के अन्तर्मुखी या बहिर्मुखी
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बनने पर निर्भर करता है। यदि हमने अपने पुरुषार्थ को सांसारिक अचेतन पदार्थों के संग्रह और प्रदर्शन में लगाया, तो हम आत्मघाती हो जाएँगे और यदि हमने अपना पुरुषार्थ पृथ्वी-जल-तेज-वायू-वनस्पति एवं त्रस-जीवों के चैतन्य संरक्षण में लगाया, तो हम आत्मवान् बन सकेंगे। चैतन्य के महत्त्व का प्रतिपादक दर्शन-शास्त्र हमें अन्तर्मुखी बनाता है और जड़-पदार्थों का प्रदर्शन हमें बहिर्मुखी बनाता है। असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति हमें अन्तर्मुखी बनाती है। संयम से निवृत्ति और असंयम में प्रवृत्ति हमें बहिर्मुखी बनाती है। सांसारिक-वस्तुओं के संग्रह से उत्थान संभव नहीं है। सांसारिक-वस्तुओं के उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक स्वरूप को समझकर वस्तुओं के विसर्जनपूर्वक-त्याग से उत्थान संभव है। विजेता बनने का अर्थ पुद्गल का प्रदर्शन या बहिर्दृष्टि नहीं है, अपितु विजेता बनने का अर्थ है –आत्मदृष्टि या अन्तर्दृष्टिवाला होना।
आज मानव प्रतिकूल परिस्थितियों को बदलने के लिये अथक-पुरुषार्थ करता है और आडम्बरपूर्ण प्रदर्शन कर अपने अहं की तुष्टि करता है; किन्तु आज आवश्यकता है कि मानव मन:स्थिति को बदले, बहिर्दृष्टि से अन्तर्दृष्टि कर ले। नित्यप्रति बाह्य-सुख साधनों की वृद्धि से उत्साहित मानव बाह्य-सुख की प्राप्ति-हेतु प्रयासरत रहता है। बाह्य-सुख दुःखमिश्रित होते हैं; अत: पदार्थों की प्राप्ति और संग्रह से मानव सुख का अनवरत अनुभव करने में सफल नहीं होता, पुनः प्रयास करता है, पुनः असफल होता है और यह क्रम उसकी इच्छाओं की पूर्ति नहीं होने में प्रतिफलित होते हैं। इसीलिये भगवान् महावीर ने कहा- “इच्छा हु आगास समा अणंतिया।" आज आवश्यकता है कि मानव आवश्यकता और इच्छा के अन्तर को समझें और बाह्य साधन-सामग्री, यहाँ तक कि शरीर को भी चैतन्य-आत्मा के अनुभव में सहायक बने. ऐसी अन्तर्मुखी जीवनचर्या द्वारा स्वयं को सुखी बनावें । बाह्य- पदार्थों, साधन-सुविधाओं का महत्त्व मात्र उतना ही है, जितना वे अन्तर्मुखी-वृत्ति बनने में सहायक हों। ____ बाह्य-पदार्थ में सुख नहीं है, इनमें परिणाम-ताप-संस्कार दु:ख अविनाभावी हैं; अत: ये दुःखरूप ही हैं। सुख अनुभूति का विषय है, जो रागरहित होने पर अपनी आत्मा के दर्शन से प्रस्फुटित होता है।' ___ हमारा उपयोग तभी सही होगा, जब हमारी आत्मा का परिणाम चैतन्यानुविधायी होगा। चैतन्य के साथ एकतानता होना ही उपयोग है। यह चैतन्यमात्र मैं हूँ — ऐसी अस्तित्वैक्य की अनुभूति उपयोग है। __ आधुनिक भौतिक-युग में हमारा उपयोग (आत्मा का परिणाम) जड़पदार्थान विधायी हो रहा है। जड़पदार्थ- घर, सम्पत्ति, साधन, शरीर आदि में अहं प्रतीति करना कि यह मेरा घर, मेरी सम्पत्ति, मेरे साधन, मेरा शरीर आदि हैं', यह हम जड़-पदार्थों के साथ एक अस्तित्व या एकतानता का अनुभव करने लगे हैं; इसलिये जड़-पदार्थों में अहं-प्रतीति
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की पुष्टि-हेत प्रदर्शन करते हैं। यह पर-परिणाम जड़ है और आत्मा चेतन, अत: विरोधी- अस्तित्वों की एकतानता के प्रयास में व्यक्ति संक्लेशित होता है और अज्ञानवश
और अधिक बहिर्मुखी बनता चला जाता है और अपने स्वाभाविक आत्मगुणों से वंचित हो जाता है। यह भटकन मनुष्य को अशान्त बना देती है, इसलिये आचार्यदेव का कथन है कि हमें दर्शनशास्त्र का अनुशीलन कर अन्तर्मुखी बनना चाहिये। शास्त्र शान्त बनाता है और प्रदर्शन अशान्त। । __ प्रदर्शन पर पदार्थों की अधीनता स्वीकार करने पर मजबूर करता है, जिससे आत्मस्वतन्त्रता आहत होती है। प्रदर्शन अनात्म-पदार्थों में आत्मभ्रम उत्पन्न कर मोह बढ़ाता है, जिससे अधोगति के अन्धकूप में गिरना पड़ता है। प्रदर्शन से बहिर्मुखी-वृत्ति का प्रसार होता है और प्रदर्शनकारी 'बहिरात्मा' बना रहता है। प्रदर्शनकारी प्रशंसा सुनने-हेतु आतुर रहता है; अत: आकुल-व्याकुल रहता है। प्रदर्शन तो परपदार्थ या जड़पदार्थ का ही हो सकता है, आत्मा या चेतन का नहीं; अत: प्रदर्शन कदापि स्वस्थ नहीं बनाता। दर्शन सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट का बोध कराने की सामर्थ रखता है अत: हमें दर्शन के महत्त्व को अंगीकार कर दर्शनशास्त्र का अध्ययन करना चाहिये।
सृष्टि बदले या न बदले, हमें अपनी दृष्टि बदलनी चाहिये, बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी करनी चाहिये, जड़ की पकड़ को छोड़कर जीवमात्र के चैतन्य का दर्शन करना चाहिये तभी प्रदर्शन की व्यर्थता स्वत: ज्ञात हो जाएगी और तब क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया को आर्जव से और लोभ को संयम से जीतकर वृत्ति-परिमार्जन कर लेना चाहिये।
हमारी दृष्टि में जब विश्व का पूरा परिवेश, जल-पृथ्वी-अग्नि-वायु-वनस्पति सभी चेतन नज़र आने लगेगा, तब हम उसके प्रति संवेदनशील बनेंगे और इनके लिये संभावित युद्ध या हिंसा से बच सकेंगे। जब सर्वत्र परिवेश में चेतन पर दृष्टिपात होगा, हमें कोई हमने भिन्न नज़र नहीं आएगा, तब हम दूसरों के हनन में अपना हनन देखेंगे
और हिंसा से बच सकेंगे। यह दर्शनशास्त्र का अन्तर्मुखीकरण होगा। ग्रन्थ-सूची 1. 'णिव्वुदिकामो रागं सव्वत्थ कुणदु मा किंचि।'—पंचास्तिकाय, गाथा 172 2. 'आत्मनश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोग:।'-अमृतचन्द्र टीका, पंचास्तिकाय, गाथा 40%
भ्रान्ति का जगद्-रुप 'मृगतृष्णायामुदकं, शुक्तौ रजतं भुजंगमो रज्वां।
तैमिरिक चंद्रयुग्मवत्, भ्रांतमखिलं जगद्रूपम् ।। -(महाभाष्य, 4, पृष्ठ 19)
अर्थ :- मृगतृष्णा में जल का भ्रम, सीप में चाँदी का भ्रम, रस्सी में साँप का भ्रम एवं तैमिरिक में चंद्रयुग्म (दो चन्द्रमा) का भ्रम होता है। इससे प्रतीत होता है कि इस संसार का स्वरूप ही भ्रांतिमय है।
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ज्ञान और विवेक
-डॉ. वीरसागर जैन
'ज्ञान' और 'विवेक' –ये दो शब्द ऐसे हैं जो ऊपर-ऊपर से देखने पर समान अर्थ वाले प्रतीत होते हैं, किसी स्थूल अपेक्षा से इन्हें समानार्थक कहा भी जा सकता है, परन्तु सूक्ष्मता से देखा जाये तो वस्तुत: ये दोनों शब्द समानार्थक नहीं हैं, इनमें महान् अन्तर है। अत: हमें इनका प्रयोग विवेकपूर्ण करना चाहिये।
हमारे प्राचीन आचार्यों ने भी इन दोनों शब्दों का प्रयोग बहुत विवेकपूर्वक किया है। जहाँ जो उपयुक्त है, वहाँ उसी का प्रयोग किया है।
व्याकरणशास्त्र के अनुसार 'ज्ञान' शब्द 'ज्ञा' धातु से बना है जिसका अर्थ हैजानना। किन्तु 'विवेक' शब्द 'विच्' धातु से बना है, जिसका अर्थ पृथक्भाव होता है—भेद करना होता है; विभजनं विवेक: । “ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं", किन्तु “विविच्यतेऽनेनेति विवेकः।" - अर्थात् ज्ञान का कार्य मात्र जानना है, परन्तु विवेक का कार्य मात्र जानना नहीं अपितु हेय-उपादेय, स्व-पर आदि का भेद जान ना है। यथा—स्व-पर-विवेक, नीर-क्षीर-विवेक' इत्यादि प्रयोग लोकप्रचलित भी हैं। इनमें 'विवेक' के स्थान पर 'ज्ञान' शब्द का प्रयोग उपयुक्त नहीं है। आचार्यों ने कहा है
"चिज्जडयोर्भेदविज्ञानं विवेकः।" अर्थात् चेतन व अचेतन का भेदविज्ञान ही विवेक है।
मोक्षमार्ग में इसी विवेक की उपयोगिता है, कोरे ज्ञान की नहीं। अध्यात्मप्रेमी कविवर पं. दौलतराम भी देवस्तुति' में लिखते हैं:__ "तुम गुण चिन्तत निज-पर-विवेक । प्रगटै विघटें आपद अनेक।।"
अर्थात् हे जिनेन्द्रदेव ! आपके गुणों के चिंतन स्व-पर-विवेक प्रकट होता है और उसी से अनेक आपत्तियाँ दूर होती हैं।
तात्पर्य यही है कि सुख-शान्ति का कारण विबेक है, ज्ञान नहीं।
यद्यपि शास्त्रों में अनेक स्थानों पर ज्ञान को भी सुख का कारण कहा गया है, परन्तु वह धन-कन-कंचनादि भौतिक परपदार्थों से ध्यान हटाने के लिए ही कहा गया है कि हे जीव ! तू धनादि परपदार्थों को सुख का कारण मान रहा है, पर वास्तव में वे सब सुख
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के कारण नहीं हैं, सुख का कारण तो मात्र ज्ञान ही है। यथा
"धन कन कंचन राजसुख सबहि सुलभ कर जान । दुर्लभ है संसार में, एक यथारथ ज्ञान ।।"
--(महाकवि भूधरदास, बारह भावना) . परन्तु यदि जानना मात्र सुख का कारण हो, तो नहीं जानना' दु:ख का कारण ठहरेगा, जो न्यायसंगत नहीं है, असत्य है। आचार्यकल्प पं. टोडरमल भी अपने 'मोक्षमार्गप्रकाशक में लिखते हैं___ "यदि जानना न होना दु:ख का कारण हो, तो पुद्गल के भी दुःख ठहरे; परन्तु दुःख का मूलकारण तो इच्छा है और इच्छा क्षयोपशम से होती है; इसलिए क्षयोपशम को दु:ख का कारण कहा है। परमार्थ से क्षयोपशम भी दु:ख का कारण नहीं है।"
अध्यात्मशास्त्रों में भी इसीलिए जिसे मात्र ज्ञान हो उसे 'ज्ञानी' नहीं कहते हैं, अपितु जिसे स्व-पर-भेदविज्ञान हो - विवेक हो, उसे ही 'ज्ञानी' कहते हैं।
ज्ञान और विवेक के अन्तर को समझने के लिए एक युक्ति यह भी है कि शास्त्रों में ज्ञान के मतिज्ञानादि भेद किये हैं। विचार करना चाहिए कि क्या उन्हें हम विवेक के आठ भेद होते हैं'- ऐसा कह सकते हैं? यदि नहीं. तो अवश्य ही 'ज्ञान' और 'विवेक' में महान् अन्तर है।
सारांशत: हमें समझना चाहिए कि विवेक ही (स्व-पर-भेदविज्ञान) ही सुख का कारण है, मोक्षमार्ग है और उपादेय है। आज तक जितने भी जीव सुखी (सिद्ध) हुये हैं वे सब एक स्व-पर-भेदविज्ञान से ही हुये हैं और जितने भी संसार में परिभ्रमण करते हुये दु:ख उठा रहे हैं, वे सब इस स्व-पर-भेदविज्ञान के अभाव के कारण ही। कहा भी गया है कि- “भेदविज्ञानत: सिद्धा: सिद्धा: ये किल केचन् । अस्यैवाभावतो बद्धा: बद्धा: ये किल केचन् ।।"
-(आचार्य अमृतचन्द्र, आत्मख्याति-कलश)
1. श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली के व्याकरण-विभाग के
विद्वान् प्राध्यापक डॉ. जयकान्त शर्मा ने मुझे 'विवेक' शब्द की निष्पत्ति इसप्रकार समझाई है—“विविच्यतेऽनेनेति विवेक: । विविनक्ति सत्यासत्यं यथार्थायथार्थ कार्याकार्य ग्राह्याग्राह्ययमिति वा विवेकः । 'वि' उपसर्गाद् 'विच्' धातो: घञ् प्रत्यये अनुबन्धलोपे 'चजो कुः घिण्यतो:' इति सूत्रेण कुत्वे गुणे च इति 'विवेक' शब्द-निष्पत्तिः।" इसका अभिप्राय है कि जो सत्य और असत्य, यथार्थ और अयथार्थ, कार्य और अकार्य अथवा ग्राह्य और अग्राह्य का भेद बताता है वही विवेक है। 'प्राकृतविद्या' के प्रस्तुत अंक के मुख-पृष्ठ पर चित्रित हंस नीर-क्षीर-विवेक का ही प्रतीक है, सामान्य-ज्ञान का नहीं।
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प्राचीन सभ्यता रोती है कर्णधारों पर भगवान् महावीर की जन्मस्थली और
स्मारक की घोर उपेक्षा
देश की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति पर शोध कार्यों के लिए चार दशक पूर्व प्रजातंत्र की जन्मस्थली बिहार के वैशाली में स्थापित 'प्राकृत जैन एवं अहिंसा शोध संस्थान तथा जैनधर्म के 24वें तीर्थकर भगवान् महावीर की जन्मस्थली 'बासोकुण्ड ग्राम' और उनका स्मारक स्थल सरकार की उपेक्षा के चलते बदहाली का दंश झेल रहा है।
आधिकारिक सूत्रों ने बताया कि वित्तीय संकट, बदहाली और अन्य समस्याओं से ग्रस्त इस संस्थान का | किसे समझ है वैशाली की । विकास कर इसे
स्वरूप | वैशाली में प्राकत जैन एवं अहिंसा शोध | प्रदान किए जाने के लिए राज्य सरकार ने वर्ष | संस्थान और 24वें तीर्थकर भगवान महावीर | 1997 में इसका अधिग्रहण किए जाने का | की जन्मस्थली और स्मारक को भूल गए| एक प्रस्ताव केन्द्र सरकार के मानव । उनके अनुयायी और सत्ता भोगी। संसाधन मंत्रालय को भेजा था, लेकिन पाँच वर्ष बीत जाने के बाद भी अधिग्रहण की निर्धारित प्रक्रिया अभी तक शुरु भी नहीं की जा सकी।
इसी प्रकार इस संस्थान के निकट स्थित जैनधर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान् महावीर की जन्मस्थली 'बासोकण्ड ग्राम' तथा वहाँ स्थित उनके स्मारक स्थल के विकास के लिए पिछले वर्ष केन्द्र सरकार द्वारा स्वीकृत 12 करोड़ 43 लाख रुपए की लागत वाली परियोजना पर भी आज तक कोई कार्य प्रारंभ नहीं किया जा सका है, जबकि प्रथम-चरण में कार्य शुरू करने के लिए 9 करोड़ 43 लाख रुपए की धनराशि भी आवंटित कर दी गई थी।
सूत्रों ने बताया कि देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने इस संस्थान की स्थापना 23 अप्रैल, 1956 को स्थानीय लोगों द्वारा दान में दी गई 14 एकड़ जमीन में की थी। इसके बाद वर्ष 1984 में बिहार के तत्कालीन राज्यपाल डॉ. ए.आर. किदवई ने 32 लाख रुपए की लागत पर बनने वाले एक अंतर्राष्ट्रीय छात्रावास-भवन का शिलान्यास संस्थान-परिसर में ही किया था, लेकिन शिलान्यास के बाद इसके निर्माण कार्य के लिए किसी भी प्रकार का धनराशि का आवंटन नहीं किए जाने से आज तक इसका निर्माण
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कार्य शुरू तक नहीं किया जा सका है।
सूत्रों ने बताया कि राज्य सरकार द्वारा हर साल मात्र चार लाख रुपए की राशि इस संस्थान के कामकाज के लिए सहायता के रूप में उपलब्ध कराई जाती है। यह राशि इतनी अपर्याप्त है कि इससे संस्थान में शोधकार्य की व्यवस्था करना संभव नहीं है। इसके कारण यह संस्थान पिछले 42 वर्षों से गंभीर आर्थिक समस्या के अलावा अन्य कठिनाइयों से जूझ रहा है तथा यहाँ शोधकार्य भी प्राय: ठप्प हैं। राष्ट्रीय जनता दल' के संसदीय दल' के नेता
और वैशाली के सांसद डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह ने बताया कि केन्द्र-सरकार द्वारा स्वीकृत परियोजना के तहत बासीकुंड-ग्राम में स्थित शिलान्यास-स्मारक-स्थल पर भगवान् महावीर की चौदह फीट ऊँची एक आकर्षक और भव्य मूर्ति की स्थापना के अलावा पहुँच-पथ, सभाभवन, ध्यान-केन्द्र, साधु-आवासगृह आदि का निर्माण कराया जाएगा।
सूत्रों ने बताया कि वित्तीय संकट से उत्पन्न बदहाली तथा अन्य अव्यवस्थाओं के चलते देश के विभिन्न प्रदेशों से संस्थान में आने वाले छात्रों की संख्या नाममात्र की रह गई है। साथ ही विदेशों से छात्रों का आना पिछले कई वर्षों से बंद है। संस्थान के शिक्षकों के लिए आवासीय सुविधा, पेयजल, बिजली, यातायात, चिकित्सा और सुरक्षा समेत अन्य सुविधाओं का भी अभाव है। संस्थान में प्राध्यापक के कुल दस सृजित पदों में अधिकांश-पद रिक्त पड़े हैं। इसके अलावा संस्थान के प्रति छात्रों का घटते आकर्षण का मुख्य-कारण इसकी छात्रवृत्ति-राशि का कम होना है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग' द्वारा शोधछात्रों को 16 सौ से 22 सौ रुपए तक की मासिक छात्रवृत्ति दी जाती है, जबकि इस संस्थान के शोधछात्रों को यह छात्रवृत्ति मात्र तीन सौ रुपए मासिक दी जाती है।
सूत्रों ने बताया कि प्रारंभ में वैशाली शोध संस्थान' में शोध और पढ़ाई के लिए देश के अलावा वियतनाम, थाईलैंड, बर्मा और श्रीलंका आदि देशों के छात्र आते थे। वर्ष 1983 में भी वियतनाम के चार छात्र अध्ययन के लिए आए थे; परंतु संस्थान में अंग्रेजी के प्राध्यापक नहीं रहने के कारण इन छात्रों का नामांकन नहीं किया जा सका था। इस संस्थान से अब तक 150 छात्र एम.ए., 36 छात्र पी.एच.डी. और डी. लिट कर चुके हैं।
सूत्रों ने बताया कि भगवान् महावीर के निर्वाण-समारोह के अवसर पर भारत सरकार ने वर्ष 1972 में इस संस्थान के छात्रावास के निर्माण के लिए दो लाख पचास हजार रुपए तथा 'महावीर स्मारक' के विकास के लिए भी इतनी ही धनराशि प्रदान की थी, लेकिन आज तक इस पर कार्य प्रारंभ नहीं किए जा सके और न ही धनराशि का ही कोई पता है। सूत्रों के अनुसार संस्थान के लिए भूमिदान देने वालों में याकूब मियां ने 20 डिसमिल, दहाऊर पासवान ने 40 डिसमिल और महावीर पासवान ने 72 डिसमिल जमीन दान में दी है। ___इसमें सुखद आश्चर्य की बात तो यह है कि इन भूमिदाताओं में से कोई भी जैन-धर्मावलम्बी नहीं है।
-(वार्ता, हाजीपुर समाचार-एजेंसी द्वारा प्रकाशित सामग्री की साभार प्रस्तुति) **
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जैन-परम्परा में आचार्यत्व
-डॉ. सुदीप जैन जैन-परम्परा में 'आचार्य' शब्द 'बहुआयामी अर्थों में प्रचलित रहा है। जहाँ पंच-परमेष्ठी के रूप में तृतीय-परमेष्ठी का वाचक यह शब्द मूलत: माना गया, वहीं श्रमणों और श्रावकों में आचार्य-परमेष्ठी के अतिरिक्त अन्य-श्रमणों और श्रावकों के लिये भी 'आचार्य' की उपाधि प्रयुक्त हुई है। इतना विशेष है कि उनमें 'आचार्य' शब्द के पहले कुछ और भी जुड़ा हुआ होता है।
श्रमणों में जहाँ एलाचार्य, बालाचार्य, निर्यापकाचार्य आदि के वर्गीकरण मिलते हैं, वहीं श्रावकों में प्रतिष्ठाचार्य, विधानाचार्य एवं गृहस्थाचार्य आदि पदों का उल्लेख जैन-परम्परा में प्राप्त होता है। आधुनिक-काल में तो शैक्षिक-व्यवस्था में स्नातकोत्तर-उपाधि को ही 'आचार्य'-संज्ञा दी जाने लगी है, और विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर्स को भी हिन्दी में 'आचार्य' ही कहा गया है, कुछ लोग तो वंश-परम्परागत रूप से 'आचार्य' को उपनाम की तरह प्रयोग करने लगे हैं। तथा शिल्प-शास्त्र आदि के विशेषज्ञों को भी 'आचार्य' कहा जाता है। ___ यह देखा जाता है कि श्रेष्ठता के प्रतीक 'आचार्य' की उपाधि का प्रयोग आज बहुत से लोग यादृच्छिकरूप से करने लगे हैं, तथा इनमें से किस श्रेणी के आचार्य की क्या अनिवार्य योग्यता है, तथा वह उपाधि किस स्तर पर प्रयोग की जा सकती है?- इसका विवेक प्राय: लोग नहीं करते हैं। साथ ही यह भी एक विडम्बनापूर्ण-स्थिति है कि स्वयं कार्य किसी पद के अनुरूप कर रहे हैं, और अपने को और अधिक ऊँचे पद का प्रयोग लोग करते रहते हैं। इसके साथ यह भी देखा जा रहा है कि जो लोग जिस श्रेणी के आचार्यत्व के लिये कदापि उपयुक्त नहीं हैं, वे भी बेहिचक उस श्रेणी का आचार्यत्व निष्पादित कर रहे हैं, तथा समाज को इस बारे में कोई जानकारी न होने के कारण वह सब कुछ आँख बंद करके विनम्रभाव से स्वीकार कर रही है। समाज की यह विनम्रता अनापत्ति के योग्य हो सकती है, किन्तु अयोग्य-व्यक्ति के द्वारा श्रेष्ठ-कार्य को आचार-विचार की पवित्रता एवं अपेक्षित-ज्ञान के बिना करने से उस कार्य की गरिमा की सुरक्षा पर निश्चितरूप से प्रश्नचिह्न लग जाता है। अत: यहाँ पर जैन-परम्परा में प्राप्त होने वाले विभिन्न प्रकार के आचार्यों का संक्षिप्त परिचय और वर्तमान-स्थिति का समांकलन प्रस्तुत करने की चेष्टा की जा रही है।
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श्रमण-परम्परा के आचार्य
श्रमण-परम्परा में पंच-परमेष्ठी के रूप में जिन आचार्यों की गणना हुई है, वे मुनियों के 28 मूलगुणों के अतिरिक्त जो आचार्य-परमेष्ठी के 36 गुणों से समन्वित संघनायक होते हैं, ऐसे संघपति 'आचार्य' कहलाते हैं। इनके अतिरिक्त संघ में ज्योतिष आदि विविध-विषयों के विशेषज्ञ आचार्य भी होते हैं, जिन्हें उनके विषयों के अनुसार 'आचार्य' कहा जाता है। इस संघीय व्यवस्था के अन्य-आचार्यों को 'आचार्य-परमेष्ठी' के रूप में मान्यता नहीं मिलती है। इनके साथ ही एलाचार्य, बालाचार्य और निर्यापकाचार्य का भी उल्लेख श्रमणों में मिलता है, अर्थात् ये सब भी निर्ग्रन्थ-श्रमण ही होते हैं; किन्तु ये आचार्य-परमेष्ठी के रूप में परिगणित नहीं है। इनका संक्षिप्त शास्त्रीय-परिचय निम्नानुसार है'एलाचार्य' का लक्षण अनुगुरो: पश्चाद्दिशति विधत्ते चरणक्रममित्यनुदिक् एलाचार्यस्तस्मै विधिना।
-(भगवती आराधना/मूल 177/395) अर्थात् गुरु के पश्चात् जो मुनि चारित्र का क्रम मुनि और आर्यिकादिकों को कहता है, उसको 'अनुदिश' अर्थात् ‘एलाचार्य' कहते हैं। 'बालाचार्य का लक्षण
कालं संभाविदा सव्वगणमणदिसं च बाहरियं । सोम-तिहि-करण-णक्खत्त-विलग्गे मंगलागासे ।। गच्छाणुपालणत्यं आहोइय अत्तगुणसमं भिक्खू। तो तम्मि गणविसग्गं अप्पकहाए कुणदि धोरो।।
_ -(भगवती आराधना/मूल 273-274) अर्थात् अपनी आयु अभी कितनी रही है? –इसका विचारकर तदनन्तर अपने शिष्य-समुदाय को अपने स्थान में जिसकी स्थापना की है, ऐसे बालाचार्य को बुलाकर सौम्य-तिथि, करण, नक्षत्र और लग्न के समय शुभ-प्रदेश में, अपने गुण के समान जिसके गुण हैं, ऐसे वे बालाचार्य अपने गच्छ का पालन करने के योग्य हैं —ऐसा विचारकर उस पर अपने गण को विसर्जित करते हैं अर्थात् अपना पद छोड़कर सम्पूर्ण-गण को बालाचार्य के लिए छोड़ देते हैं। अर्थात् बालाचार्य ही यहाँ से उस गण (संघ) का आचार्य समझा जाता है। उस समय पूर्व-आचार्य उस बालाचार्य को थोड़ा-सा उपदेश भी देते हैं। 'निर्यापकाचार्य का लक्षण
समाधिमरण-प्रसंग में जो मददगार होते हैं, या छिन्न-संयम का शोधन करके जो छेदोपस्थापक होते हैं, उन्हें 'निर्यापक' कहते हैं। निर्यापन में जो अनुभवी या प्रधान होते हैं उन्हें 'निर्यापकाचार्य' कहते हैं।
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श्रावकों में आचार्य ___ श्रावकों में भी यों तो अनेक प्रकार के आचार्यों का उल्लेख मिलता है, किन्तु उनमें से मुख्य तीन हैं- 1. प्रतिष्ठाचार्य , 2. विधानाचार्य और 3. गृहस्थाचार्य । शास्त्रों में इन तीनों प्रकार के आचार्यों का जो परिचय प्राप्त होता है, वह संक्षेपत: निम्नानुसार है'प्रतिष्ठाचार्य' का लक्षण
देस-कुल-जाइ-सुद्धो णिरुवम-अंगो विसुद्धसम्मत्तो। पढमाणिओग-कुसलो पइट्ठालक्खण-विहि-विदण्णू ।। सावय-गुणोववेदी उवासयज्झयण-सत्थ-थिरबुद्धी। एवं गुणो पइट्ठाइरिओ जिणसासणे भणिदो।।
_ -(वसुनन्दि श्रावकाचार, 388-389) अर्थ :- जो देश, कुल और जाति से शुद्ध हो, निरुपम-अंग का धारक हो, विशुद्धसम्यग्दृष्टि हो, प्रथमानुयोग में कुशल हो, प्रतिष्ठा की लक्षण-विधि का जानकार हो, श्रावक के गुणों से युक्त हो, उपासकाध्ययन (श्रावकाचार) शास्त्र में स्थिरबुद्धि हो, - इसप्रकार के गुणवाला जिनशासन में 'प्रतिष्ठाचार्य' कहा गया है।
स्याद्वाद-विद्या में निपुण, शुद्ध-उच्चारणवाला, आलस्यरहित, स्वस्थ, क्रिया-कुशल, दया- दान-शीलवान्, इन्द्रियविजयी, देव-गुरु-भक्त, शास्त्रज्ञ, धर्मोपदेशक, क्षमावान्, राजादिमान्य, व्रती, दूरदर्शी, शंका-समाधानकर्ता, सद्ब्राह्मण या उत्तम-कुलवाला, आत्मज्ञ, जिनधर्मानुयायी, गुरु से मंत्र-शिक्षा प्राप्त, हविष्यान्न (घृतमिश्रित चरु-भात-शब्दरत्नाकर कोश व आप्टे के कोशानुसार) का भोजन करनेवाला रात्रिभोजन का त्यागी, निद्राविजयी, नि:स्पृह, परदुःखहर्ता, विधिज्ञ और उपसर्गहर्ता प्रतिष्ठाचार्य होता है। लोभी, क्रोधी, संस्कृत-व्याकरण से अनभिज्ञ और अशांत प्रतिष्ठाचार्य त्याज्य है। प्रतिष्ठाचार्य की योग्यता
अनूचान: श्रोत्रियश्च प्रतिष्ठाचार्य आश्रयः । समावृत्त: प्राड्विवाक: समाचार्यादिनामयुक् । 2551 स्याद्वादधुर्योऽक्षरदोषवेत्ता निरालसो रोगविहीनदेहः । प्राय: प्रकर्ता दम-दान-शीलो जितेन्द्रियो देव-गुरु-प्रमाण: । 256। शास्त्रार्थ-सम्पत्ति-विदीर्णवादो धर्मोपदेश-प्रणय: क्षमावान् । राजादिमान्यो नययोगभाजी तपोव्रतानुष्ठित-पूतदेहः । 2571 पूर्वनिमित्ताद्यनुमापकोऽर्थ-संदेहहारी यजनैकचित्त: । सद्ब्राह्मणो ब्रह्मविदांवरिष्ठो जिनकधर्मा गुरुदत्तमन्त्रः । 258। भुक्त्वा हविष्यान्नमरात्रिभोजी निद्रां विजेतुं विहितो यमश्च । गतस्पृहो भक्तिपरात्मदुःख-प्रहाणये सिद्धमनुर्विधिज्ञः । 259।
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कुलक्रमायात-सुविद्यया य: प्राप्तोपसर्ग परिहर्तुमीश: । सोऽयं प्रतिष्ठाविधिषु प्रयोक्ता श्लाघ्योऽन्यथा दोषवती प्रतिष्ठा। 2601 शास्त्रानभिज्ञं कुलवावदूकं लोभानलप्लुष्टमशान्तशीलं । परम्पराशून्यमपार्थसार्थ दूरात्त्यजन्तु प्रणिधाननिष्ठाः। 261 । प्रयोक्तृवाक्यं न हि मन्यमानो लोभादिसंचारकृतापमानः।
प्राप्नोत्यनर्थं गुरुवाग्विरुद्धः इहान्यत: श्वभ्रमदभ्रदुःखं । 262। अर्थ :- अनूचान अर्थात् अंगसहित-प्रवचन का ज्ञाता हो, श्रुतश्रद्धानी हो, हस्तक्रिया में दक्ष हो, धर्मोपदेश करने में चतुर हो, सकृद्भोजी हो, श्रेष्ठकुली हो, अक्षरदोषों को पहिचाननेवाला हो, निरालसी हो, जितेन्द्रिय हो, देव-शास्त्र-गुरु को प्रमाण माननेवाला हो, शास्त्रार्थ में निपुण हो, क्षमावान् हो. राजादि से मान्य हो, व्रती हो, निमित्तज्ञानी हो, मन्त्र-विधि का ज्ञाता हो, सहनशील हो; — इन गुणों से सहित आचार्य होना चाहिये। अजानकार, दूषितकुली, अशान्तशील, लोभी व्यक्ति आचार्य नहीं होना चाहिये। आचार्य को यजमान की शक्ति और अभिप्राय को अच्छी तरह से पहिचानकर कार्य करना चाहिये। -('श्रीप्रतिष्ठाविधानसंग्रह', पृष्ठ 59)
देश-जाति-कुलाचारैः श्रेष्ठो दक्ष: सुलक्षण: । . त्यांगी वाग्मी शुचि: शुद्धसम्यक्त्व: सद्वतो युवा।। 33 ।। श्रावकाध्ययन-ज्योतिर्वास्तुशास्त्र-पुराणवित्। निश्चय-व्यवहारज्ञ: प्रतिष्ठाविधिवित्प्रभुः ।। 34।। विनीत: सुभगो मंदकषायो विजितेन्द्रियः ।। जिनेज्यादि-क्रियानिष्ठो भूरिसत्त्वार्थबांधवः ।। 35।। दृष्ट-सृष्ट-क्रियो वार्त: संपूर्णांग: परार्थकृत् । वर्णी गृही वा सवृत्तिरशूद्रो याजको धुराट् ।। 36।।
-(प्रतिष्ठातिलकः', पृष्ठ 1) अर्थ :- देश-जाति और कुल के आचारों में श्रेष्ठ हो, निपुण हो, सुलक्षणवाला हो, युवा हो, श्रावकाध्ययन-ज्योतिषशास्त्र-वास्तुशास्त्र एवं पुराणशास्त्र का ज्ञाता हो, निश्चय-व्यवहार का ज्ञानकार हो, प्रतिष्ठाविधि का वेत्ता हो, प्रभु (आत्मवशी) हो, विनीत हो, सुन्दर अंगोंवाला हो, मंदकषायवाला हो, जितेन्द्रिय हो, जिनेन्द्रपूजा आदि क्रियाओं में निष्ठावान् हो, प्राणीमात्र का बंधु हो, दृष्ट एवं सृष्ट क्रियावाला हो, 'वार्त' हो, सम्पूर्ण-अंगों से युक्त हो (विकलांग न हो), परोपकारी हो, वर्णी अथवा गृहस्थ हो, सदाचारी हो, शूद्रवृत्ति न हो, तथा प्रभावान् हो —ऐसा व्यक्ति 'याजक' (प्रतिष्ठाचार्य) कहलाता है। विधानाचार्य का लक्षण
देश-कालादि-भावज्ञो, निर्मलो बुद्धिमान् वरः। सद्वाण्यादि-गुणोपेतो, याजकोऽत्र प्रशस्यते।।3।।
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अर्थ :- देश-काल आदि के भाव को जाननेवाला, निर्मल, बुद्धिमान, श्रेष्ठ, समीचीन-वाणी आदि गुणों से युक्त याजक' जिनशास्त्र में प्रशंसा-योग्य माना गया है।
-('श्री सिद्धचक्रमंडल विधान', पृष्ठ 1) . दर्शन-ज्ञान-चारित्र-संयुतो ममतातिग:।
प्राज्ञ: प्रश्नसहश्चात्र, गुरु: स्यात् शान्तिनिष्ठितः ।। अर्थ :- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से संयुक्त, ममतारहित, विद्वान, प्रश्नकर्ता एवं प्रश्न का आदर करनेवाला, क्रोधरहित, शान्तचित्त व्यक्ति विधानाचार्य के योग्य कहा गया है।
स्याद्वाद-धुर्योऽक्षरदोषवेत्ता निरालसो रोगविहीनदेहः ।
प्राय: प्रकर्ता दम-दान-शीलो जितेन्द्रियो देव-गुरु-प्रमाणः ।। अर्थ :- स्याद्वाद-विद्या में प्रवीण, अक्षर से उदात्त, सूक्ष्म-दोषों को जाननेवाला, आलस्य-रहित, नीरोगी, क्रियाकुशील, दमी, दानी, शीलवान्, इन्द्रियविजेता, देव-शास्त्र-गुरु को प्रमाण माननेवाला व्यक्ति ही श्रेष्ठ-विधानाचार्य कहलाता है। बाल नहीं होय, नहीं वृद्ध, नहीं हीन अंग, क्रोधी क्रियाहीन नहिं, मूरख गनीजिये। दुष्ट नहीं होय, नहीं व्यसन-विर्षे सुरत, पूजा-पाठ बाँचने में बुद्धिसार लीजिए।। दयाकरि भीगि रह्यो हृदयकमल जास, सुन्दर सरूप पाय दान सदा कीजिये। मीठे हैं वचन मुख अक्षर स्पष्ट कहै, गहै बिनै गुरु की सो 'पण्डित' कहीजिये ।।
-(वृहद् श्री सिद्धचक्रमंडल विधान'. पृष्ठ 2-3) देश-काल-विधि-निपुणमति निर्मलभाव उदार। मधुर-बैन नैना-सुघर सो याजक निरधार।।
_ . -(सिद्धचक्रविधान, सन्त लाल कवि) प्रथम विधानाचार्य पुरुष सज्जाति सम्यक्त्वी हो। देशव्रती श्रद्धालु पापभीरु निर्लोभी सुधी हो।। ज्योर्तिविद् हो मंत्र-तंत्रविद् विधि-विधान का ज्ञानी। प्रभावना करने का इच्छुक भविजन-हितकर-वाणी।। चारों अनुयोगों का ज्ञाता वक्ता-श्रेष्ठ कुशल हो।
पूजा-जयमालाओं के अर्थों का उपदेशक भी वह हो।। . आगम के अनुकूल बोलता गुरु-उपासना करता। ऐसा विधानकारक विद्वान् जगत् में शांति करता।।
-(कल्पद्रुम विधान, आर्यिका ज्ञानमती, पृष्ठ 2) गृहस्थाचार्य
न निषिद्धस्तदादेशो गृहिणां व्रतधारिणाम्...। -(पंचाध्यायी/उत्तरार्ध 648) । अर्थात् व्रती-गृहस्थों को भी आचार्यों के समान आदेश करना निषिद्ध नहीं है।
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अर्थात् वे भी आदेश दे सकते हैं।
गृहस्थाचार्य को आचार्य की भाँति दीक्षा दी जाती है
दीक्षाचार्येण दीक्षेव दीयमानास्ति तत्क्रिया । - (पंचाध्यायी / उत्तरार्ध 648../)
अर्थात् दीक्षाचार्य के द्वारा दी हुई दीक्षा के समान ही गृहस्थाचार्यों की क्रिया होती है ।
अव्रती गृहस्थाचार्य नहीं हो सकता
न निषिद्धो यथाम्नायादव्रतिनां मनागपि । हिंसकश्चोपदेशोऽपि नोपयोज्योऽत्र कारणात् । । नूनं प्रोक्तोपदेशोऽपि न रागाय विरागिणाम् रागिणामेव रागाय ततोऽवश्यं निषेधितः । ।
- (पंचाध्यायी / उत्तरार्ध 649, 652 ) अर्थात् आदेश एवं उपदेश के विषय में अव्रती - गृहस्थों को जिसप्रकार दूसरे के लिये आम्नाय के अनुसार थोड़ा-सा भी उपदेश करना निषिद्ध नहीं है, उसीप्रकार किसी भी कारण से दूसरे के लिए हिंसा का उपदेश देना उचित नहीं है । निश्चय करके वीतरागियों का पूर्वोक्त उपदेश देना भी राग के लिए नहीं होता है; किन्तु सरागियों का ही पूर्वोक्त उपदेश राग के लिए होता है । इसलिये रागियों को उपदेश देने के लिये अवश्य निषेध किया है ।
यद्यपि इनमें प्रतिष्ठाचार्य, विधानाचार्य एवं गृहस्थाचार्य के लिए प्रायश: समान गुण - गरिमा का वर्णन किया गया है; किन्तु यदि ये तीनों समान ही होते, इनके कार्यक्षेत्र व योग्यताओं में कोई अन्तर नहीं होता, तो ये तीन अलग-अलग नामकरण ही नहीं बने होते
।
जहाँ तक विशेषज्ञ आचार्यों एवं मनीषियों से सम्पर्क संभव हो सका, मैंने इस जिज्ञासा का समाधान उनसे पूछा। उनके कथनों का सार-संक्षेप यही प्रतीत हुआ कि जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा कराने के लिये विशेष ज्ञानी. गुणी, चरित्रसम्पन्न, समाजशास्त्रवेत्ता, कुशल-वक्ता, निस्पृह एवं नियोजक व्यक्ति 'प्रतिष्ठाचार्य' पद के योग्य है। जो इनमें कुछ न्यून हैं, वे मात्र अन्य धार्मिक विधि-विधान के लिए उपयुक्त होने के कारण 'विधानाचार्य ' कहे जायेंगे तथा शादी-विवाह, गृहप्रवेश, दीपावली - पूँजन, खाता- -मुहूर्त आदि लौकिक गृहस्थाश्रम के प्रसंगों में जैन विधि-विधान के अनुरूप पूजा-अनुष्ठान आदि करानेवाले विद्वान् को 'गृहस्थाचार्य' कहा जाना चाहिये। ये विशेषत: दो व्यक्तियों (वर-वधू) को ब्रह्मचर्य से बाहर गृहस्थजीवन में प्रवेश करानेवाले होने से 'प्रतिष्ठाचार्य' एवं 'विधानाचार्य' के कार्यों के लिये उपयुक्त नहीं प्रतीत होते हैं ।
वैसे यह विषय पर्याप्त मनन-चिंतन एवं ऊहापोहपूर्वक विचारणीय, चर्चनीय है; . क्योंकि प्राचीन शास्त्रों में इस दिशा में कोई विशेष दिशानिर्देश नहीं मिलता तथा उपाधियों के अनुरूप कार्य एवं व्यक्तित्व में वैशिष्ट्य होना स्वाभाविक है ।
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वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जैनधर्म-दर्शन के
अहिंसा-विचार की प्रासंगिकता
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-सुनील कुमार सिंह
सम्पर्क साहित्य के अध्ययन के आधार पर इसे अस्वीकारा नहीं जा सकता कि जैनधर्म-दर्शन संसार की प्रथम धार्मिक संस्था का रूप है, जहाँ अहिंसा के मूल नैतिक सिद्धांत की संस्थापना की गई है। 'धर्म' शब्द संस्कृत के 'धृ' धातु से व्युत्पन्न है। जिसका अर्थ होता है— धारण करना' (धारयति इति स धर्म:)। अब प्रश्न है कि क्या धारण किया जाये. क्या धारण करने योग्य है या किसे धारण करना है? जैनधर्म के अनुसार वैसे आचरण को धारण करना है जो अहिंसामूलक हो. यही मानव का धर्म है। ऐसी लोकोक्ति है कि 'जीवो जीवस्य जीवनम् ।' अर्थात् जीवों का जीवन परस्पर निर्भर है। परन्तु, जैनधर्म की यह धारणा है कि 'परस्परोपग्रहोजीवानाम्' अर्थात् जीवों का अस्तित्व परस्पर निर्भर है। इसी धारणावश अहिंसा को दवी स्वरूप' मानते हुये 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' में कहा गया है कि भयभीतों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे औषधि और वन में जैसे सार्थवाह का साथ आधारभूत है; वैसे ही अहिंसा प्राणियों के लिये आधारभूत है।' इसी भावना के आधार पर सभी अर्हत् उपदेश करते हैं कि किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुख: नहीं देना ही शुद्ध, नित्य एवं शाश्वत धर्म है।' ___ जैनदर्शन एक यथार्थवादी दर्शन है, जो मानव एवं उसकी भवितव्यता की व्याख्या को यथार्थवादी धरातल पर उपस्थित करता है। यहाँ अनुभवातीत सत्ता का कोई स्थान नहीं है और न ही ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारने या सिद्ध करने की ही आवश्यकता समझी गई है। जैन विचार-परम्परा में कर्म एवं पुनर्जन्म में विश्वास किया गया है और यह माना गया है कि जीव अपने कर्मों एवं संस्कारों के अनुसार ही शरीर धारण करता है। यहाँ यह माना गया है कि वानस्पत-जगत् से मानव-जगत् तक के सभी जीवित प्राणियों के अन्दर चेतना है; लेकिन मनुष्य में यह चेतना विकसित-अवस्था में होने से वह पूरे ब्रह्माण्ड में सबसे अधिक गतिशील और क्षमताओं से युक्त प्राणी है। इसके अन्दर एक
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जीव (या आत्मा) है जो अनन्त-चतुष्टय (अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तशक्ति तथा अनन्तसुख) युक्त है तथा जो शारीरिक मृत्यु के साथ नहीं मरता। मनुष्य की वर्तमानस्थिति बन्धन की स्थिति है। यह स्थिति पुद्गलों से संबंधित है, जहाँ जीव ने अपना मौलिक स्वरूप खो दिया है। जैनदर्शन के अनुसार जीव या आत्मा का मनुष्य के शरीर के साथ एक निरन्तर संबंध ही मनुष्य के बंधन का कारण है। अज्ञानता के कारण मनुष्य वासना का दास बनकर नानाप्रकार के कर्म करता है। इसी कर्म-पुद्गल से आच्छादित होकर जीव जन्म-जन्मान्तर में कष्ट भोगता रहता है। इसप्रकार मनुष्य अपने बीते हुए कर्मों का उत्पाद है। किन्तु, जैनदर्शन मानता है कि कर्म करने में मनुष्य को विचारों की स्वतंत्रता (Freedom of will) भी प्राप्त है, जिसके कारण वह अपने को निश्चित कर सकता है। मनुष्य कर्म करने के लिए स्वतंत्र है तथा वह जो कुछ भी अपने को बना पाता है, वह उसकी अपनी देन है। जैनदर्शन की यह स्वीकारोक्ति आधुनिकअस्तित्ववाद की पुरोगामी प्रतीत होती है। ___ यद्यपि जैनदर्शन घोषितरूप में अनीश्वरवादी-दर्शन है; किन्तु यहाँ ईश्वर को रूढ़ अर्थ में न लेकर उसकी अवधारणा का विकास मनुष्य की अवधारणा के साथ होता है। मनुष्य अपनी असीम-संभावनाओं के साथ कर्म करता हुआ जन्म-पुनर्जन्म की निरन्तर कड़ी से मुक्त हो सकता है और उन सारे गुणों को प्राप्त कर सकता है, जो एक पूर्ण ईश्वर के लिए वर्णित है। इसप्रकार मनुष्य का ईश्वरीकरण ही मानव प्रयासों का लक्ष्य है, उसकी भविव्यता है। मानव-आत्मा का आलोक कर्म-पुद्गलजनित कणों से आच्छादित होने के कारण ढंका होता है, यही उसका बन्धन है। मनुष्य अपने प्रयासों से इन पुद्गल-जनित बाधाओं को दूर कर अनन्त-चतुष्टयरूप पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। इसके लिए संवर द्वारा जीव की ओर नये पुद्गल के आस्रव को रोकना एवं निर्जरा द्वारा पुराने पुद्गल का क्षय होना आवश्यक है। सभी कर्म-पुद्गलों का आत्यन्तिक-क्षय ही मोक्ष है। जैसा कि 'सर्वदर्शन-संग्रह' में कहा गया है
'आम्रवोभवहेतुः स्यात् संवरो मोक्षकारणम् ।
इतीयमार्हती दृष्टिरन्यदस्य: प्रपंचनम् ।।" जैनधर्म में संवर और निर्जरा के लिए विशेष रास्ते प्रस्तुत किये गये हैंसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। जैनधर्म के ये 'त्रिरत्न' मोक्ष-प्राप्ति के मार्ग माने गये हैं। जैन अध्यात्म-मार्ग के पथिक को जैन-तीर्थकरों द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों एवं तत्त्वों का यथार्थज्ञान तथा उनके प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा-रखते हुए उसे अपने आचरण में चरितार्थ करने की अनिवार्यता है। इसके लिए पंचव्रत-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का मन, वचन और कर्म से पालन आवश्यक है। इसमें भी अहिंसा ही प्रमुख है; क्योंकि अन्य चारों व्रतों का व्रतत्व अहिंसामूलक होने पर ही निर्भर है।
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इसप्रकार अहिंसा जैनधर्मरूपी शरीर की आत्मा है। जैनशास्त्र में प्रतिपादित अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, समतावाद जैसे सिद्धांतों का आधार अहिंसा ही है। जैनधर्म के आचार्य अमृतचन्द्र सूरि सभी आचार-नियमों को अहिंसा में ही समाहित मानते हैं। उनके अनुसार जितने भी नैतिक-नियम हैं, वे जन-साधारण को समझाने के लिए हैं। वस्तुत: वह अहिंसा के ही विभिन्न पक्ष हैं। 'भगवतीआराधना' में भी दर्शाया गया है कि अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है, सब शास्त्रों का गर्भ है। जैनधर्म में अहिंसा का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है, इसका पता 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' को देखने से मिलता है, जहाँ अहिंसा के आठ पर्यायवाची शब्द गिनाते हुए धर्म-संबंधी सभी नियमों-उपनियमों को उसमें समाहित किया गया है।' इसप्रकार अहिंसारूपी धुरी के चारों ओर ही जैनधर्मरूपी पहिया चलता है।
जैनधर्म में सभी जगह आत्मभाव करुणा से मैत्री की विधायक-अनुभूति अहिंसा की धारा में प्रवाहित हुई है। अहिंसा आत्मा की एक अवस्था है। आत्मा की असंयत-अवस्था हिंसा है और संयत-अवस्था अहिंसा। आचार्य भद्रबाहु लिखते हैं कि पारमार्थिक दृष्टि से आत्मा ही अहिंसा है। प्रमत्त आत्मा हिंसक है, जबकि अप्रमत्त-आत्मा अहिंसक। आत्मगुण का हनन करनेवाला वस्तुत: हिंसक होता है और आत्मगुण की रक्षा करनेवाला अहिंसक।' इसप्रकार ज्ञानी या विद्वान् वही है, जो अहिंसक है। सूत्रकृतांगसूत्र' में कहा गया है कि ज्ञानी होने का अर्थ है कि प्राणी की हिंसा न करें । अहिंसा ही सभी धर्मों का सार है। इसका सदा पालन करना चाहिये। भगवान् महावीर ने सभी प्राणियों की भलाई में अहिंसा को सर्वश्रेष्ठ साधन बतलाया है।" जैनधर्म में अहिंसा को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाते हुए कहा गया है कि अहिंसा के समान इस संसार में कोई धर्म नहीं है।" गोस्वामी तुलसीदास इसी भावना को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि- 'परहित-सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा-सम नहि अधमाई। 'मनुस्मृति' में भी कहा गया है— 'अहिंसा परमो धर्म:' ।
जैनधर्म संपूर्ण लोक-लोकान्तरों को जीव से व्याप्त मानता है। ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि हिंसा से कैसे बचा जाये? 'महाभारत' में भी सम्पूर्ण जगत् को जीवों से व्याप्त मानकर यही प्रश्न उठाया गया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सभी धर्मों में हिंसा और अहिंसा को मनोदशा पर निर्धारित किया गया है। जैनधर्म में भी हिंसा-अहिंसा को मनोभाव पर निर्धारित किया गया है। आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार रागादि कषायों से ऊपर उठकर नियमित जीवन जीते हुए भी यदि कोई प्राणघात हो जाये, तो वह पाप का कारण नहीं होता। आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं कि बाहर से प्राणी मरे 'या जिए, असंयताचारी को हिंसा का दोष निश्चितरूप से लगता है; परन्तु जो संयताचारी है, अहिंसा की साधना के लिए प्रयत्नशील है, उसको बाहर से होनेवाली हिंसा से कर्मबन्धन नहीं होता।
जैनधर्म में अहिंसा का आधार जिजीविषा और सुख मानते हुए कहा गया है कि सभी प्राणियों की जिजीविषा प्रधान है एवं सभी को सुख अनुकूल तथा दु:ख प्रतिकूल है। इस
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मनोवैज्ञानिक सत्य के साथ-साथ बौद्धिक तुल्यताबोध को भी अहिंसा का आधार बताते हुये कहा गया है कि जो अपनी पीड़ा को जान पाता है, वही तुल्यताबोध के आधार पर दूसरों की पीड़ा को भी समझ सकता है।" वास्तव में अहिंसा का मूलाधार जीवन के प्रति सम्मान, समत्वभावना एवं अद्वैतभावना है। समत्वभाव से हमारे अन्दर दूसरे प्राणियों के प्रति प्रेम और अद्वैतभाव से एकात्मभावना को बल मिलता है, जिससे अहिंसा का विकास होता है। 'दशवैकालिकसूत्र' में कहा गया है कि सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता। अत: निर्ग्रन्थ प्राणवध (हिंसा) का निषेध करते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र' में समत्व के आधार पर अहिंसा के सिद्धांत की स्थापना करते हुए कहा गया है कि भय और बैर से मुक्त साधक-जीवन के प्रति प्रेम रखनेवाले सभी प्राणियों को सर्वत्र अपनी आत्मा के समान जानकर उनकी कभी भी हिंसा न करे। 'आचारांगसूत्र' में सभी जीवों के प्रति आत्मीयता की भावना व्यक्त करते हुये कहा गया है कि जो लोक (समस्त जैविक-जगत्) का अपलाप करता है, वह स्वयं अपनी आत्मा का भी अपलाप करता है। भगवान् महावीर आत्मीयता की इस भावना को स्पष्ट करते हुये कहते हैं—जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है'। इसीप्रकार 'भक्तपरिज्ञा' में भी कहा गया है कि किसी भी अन्य प्राणी की हत्या वास्तव में अपनी ही हत्या है और अन्य जीवों पर दया अपने ही ऊपर दया है।" इसप्रकार जैनधर्म अहिंसा के सिद्धांत के रूप में सभी जीवों के प्रति सहअस्तित्व की भावना को प्रोत्साहित करता है। ____ आज की वैश्विक-स्थिति विज्ञान एवं प्रविधि के साथ-साथ उपभोक्ता-संस्कृति के विकास की स्थिति का पर्याय बन चुका है। यह युग ऐसा लगता है कि विषमता, अव्यवस्था तथा अशांति का युग है। समाज हिंसा के बहुविध कांटों में जकड़ा हुआ है। वह क्षेत्रीयता, नृजातीयता, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक रूढ़िवादिता, आतंकवाद तथा अपराधीकरण जैसे बहु-कांटेदार हिंसा का सामना कर रहा है। व्यक्ति-विशेष असावधानी, लापरवाही तथा कुंठाओं के बीच जी रहा है। समाज दुर्व्यवस्था का शिकार बना हुआ है। देश तथा विश्व में किसी न किसी प्रकार की अशांति व्याप्त है, क्रम-भंग का वातावरण है। असंतुलित पर्यावरण एवं भौतिक सुखों में लिप्त अन्धी लोलुपता का शिकार तथा अज्ञान से उत्पन्न असहिष्णुता, अनादर एवं घृणा के भाव किसी न किसी रूप में विश्व के कोने-कोने में व्याप्त हैं। यदि गहराई से सोचा जाए, तो लगता है कि प्रत्येक प्राणी शांति की खोज में हैं, व्यवस्था की चाह तथा अहिंसक-वातावरण उसके लिए मृग-मरीचिका की तरह है। ऐसी स्थिति में वर्द्धमान महावीर के उपदेशों की जितनी आवश्यकता महसूस हो रही है, शायद उतनी अनिर्वायता की अनुभूति स्वयं उनके समय में भी नहीं हो। आज उनके द्वारा बतलाया गया अहिंसा का मार्ग व्यापक-शांति के लिये एक भव्य-आदर्श बन चुका है।
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अहिंसा में ही नैतिक, आध्यात्मिक तथा मानवीय तत्त्वों में गुणात्मक परिवर्तन लाने तथा मूल्यों की भूमिका बढ़ाने की क्षमता निहित है। शांति के अग्रदूत, अहिंसा के पुजारी भगवान् महावीर का यह अनूठा मंत्र है। इस मंत्र की पूर्णता तब तक नहीं हो सकती जब तक साधन-साध्य संकल्प की डोरी में अहिंसा को गूंथकर जन-जीवन के कल्याण के लिए उतारा न जाये। अहिंसा शुभ का प्रतीक है। यह सत्य रूप है, शुभ-संकल्प की विधि है जिसे जानने, जिसमें प्रीति करने तथा जिसका पालन करने में ही मानव-मात्र का कल्याण निहित है।
आज 'अहिंसा' को मानव-मूल्य के रूप में, आदर्श-जीवन के रूप में, सामूहिक-संकल्प के रूप में, नित्य क्रांति के दर्शन के रूप में तथा मानव-धर्म के रूप में विचारने एवं प्रभावी बनाने की आवश्यकता महसूस हो रही है, ताकि व्यापक-शांति के लिये, आपसी संबंधों के गुणात्मक-विकास के लिये, जीवन में व्याप्त विषमता के उपचार के लिये, सक्रिय प्रेम और दया की शक्ति को विकसित करने के लिये, मानवाधिकारों की व्यापक रक्षा के लिये तथा स्वतंत्रता, समानता एवं भाईचारे पर आधारित समतामूलक समाज की स्थापना के लिये कारक के रूप में व्यापक प्रचार एवं प्रसार संभव हो सके। सन्दर्भग्रन्थ-सूची 1. प्रश्नव्याकरणसूत्र, 2.1, 21-22। 2. आचारांगसूत्र, 1.4.1.27। 3. तत्त्वार्थसूत्र, 10.3 । 4. वही, 1.1। 5. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 42। 6. भगवती आराधना, 7901 7. प्रश्नव्याकरणसूत्र, 1.20। 8. ओघनियुक्ति, 754 1 9. देवचन्द्र जी कृत अध्यात्मगीता। 10. सूत्रकृतांगसूत्र, 1.4.10 । 11. दशवैकालिकसूत्र. 6.9। 12. भक्तपरिज्ञा, 91। 13. महाभारत (शांतिपर्व), 15.25.26 । 14. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय। 15. प्रवचनसार, 3.17 1 16. आचारांगसूत्र, 1.3.3. । 17. वही, 1.5.5। 18. दशवैकालिकसूत्र, 6.11। 19. उत्तराध्ययनसूत्र, 6.7। 20. आचारांगसूत्र, 1.3.3. । 21. वही, 1.5.5.1 22. भक्तपरिज्ञा, 93।।
वेद और पुराण चाहे जो भी कहें, ऋषभदेव की कृच्छ्र-साधना का मेल 'ऋग्वेद' की प्रवृत्तिमार्गी-धारा से नहीं बैठता। वेदोल्लिखित होने पर भी ऋषभदेव वेद-पूर्व परम्परा के प्रतिनिधि हैं। जब आर्य इस देश में फैले, उससे पहले ही यहाँ वैराग्य, कृच्छ्र-साधना, योगाचार और तपश्चर्या की प्रथा प्रचलित हो चुकी थी। इस प्रथा का एक विकास जैनधर्म में हुआ और दूसरा शैवधर्म में। ऋषभदेव भी योगिराज के रूप में अभिहित हुए हैं। उनके योगयुक्त व्यक्तित्व से शंकर के योगीरूप का काफी सामीप्य है। मोहंजोदरो में योग-प्रथा सूचक जो निशान मिले हैं, उनका सम्बन्ध जैन और शैव, दोनों ही परम्पराओं से जोड़ा जा सकता है। -(साभार उद्धृत, संस्कृति के चार अध्याय', लेखक— रामधारी सिंह दिनकर,
प्रकाशक– लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ 110)
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साधक होता द्रष्टा-जाता
-दिलीप धींग
सुख में मद से नहीं लहराता। दु:ख में चलित नहीं हो पाता। परम-पराक्रम और समता से, आत्मदेव को ध्याता जाता।
साधक होता..... ..... ..... ।। 1।। लोभ-क्रोध आए आने दो। माया-मान के भाव होने दो। असंपृक्त बन देखने वाला, कषायों से मुक्ति पाता। साधक होता..... ..... ..... ।। 2 ।।
दुर्भाव होते पर-भाव। समभाव है आत्म-स्वभाव। स्वभाव में सुस्थिर होकर, बैठा-बैठा बढ़ता जाता।
साधक होता......... ..... ।। 3 ।। समता-रस की प्यास चाहिये। पीने का अभ्यास चाहिए एक बार चख लेनेवाला, खुद पीता औरों को पिलाता। साधक होता..... ..... ..... ।। 4।।
स्थान हो कोई, समय हो कैसा । परिवेश चाहे हो जैसा। द्रव्य, क्षेत्र और काल घटक पर, प्रशस्त-भाव का ध्वज लहराता। साधक होता द्रष्टा-ज्ञाता।। 51
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महान् वैज्ञानिक और सच्चे देशभक्त डॉ. जगदीश चंद्र बसु
-अशोक वशिष्ठ
भारत के महान् संतों जैसे जैनधर्म के तीर्थंकर ऋषभदेव व भगवान् महावीर के उपदेशों को हमें पढ़ना चाहिए। आज उन्हें अपने जीवन में उतारने का सबसे ठीक समय आ पहुँचा है। क्योंकि जैनधर्म का तत्वज्ञान अनेकान्त (सापेक्ष्य पद्धति) पर आधारित है, और जैनधर्म का आहार अहिंसा पर प्रतिष्ठापित । जैनधर्म कोई पारस्परिक विचारों, ऐहिक व पारलौकिक मान्यताओं पर अन्ध श्रद्धा रखकर चलने वाला सम्प्रदाय नहीं है, वह मूलत: एक विशुद्ध वैज्ञानिक धर्म है। उसका विकास एवं प्रसार वैज्ञानिक-ढंग से हुआ है। क्योंकि जैनधर्म का भौतिकविज्ञान, और आत्मविद्या का क्रमिकअन्वेषण आधुनिक-विज्ञान के सिद्धान्तों से समानता रखता है। जैनधर्म ने विज्ञान के उन सभी प्रमुख-सिद्धान्तों का विस्तृत-वर्णन किया है. जैसेकि पदार्थविद्या, प्राणिशास्त्र, मनोविज्ञान और काल, गति, स्थिति, आकाश एवं तत्त्वानुसंधान । श्री जगदीश चन्द्र बसु ने वनस्पति में जीवन के अस्तित्व को सिद्ध कर जैनधर्म के पवित्र धर्मशास्त्र के वनस्पतिकायिक-जीवों के चेतनत्व को प्रमाणित किया
जैनधर्म के सभी तीर्थंकर आर्य थे और जैनधर्म का पुराना नाम आर्यधर्म ही था। वैदिकधर्म, जैनधर्म व बुद्धधर्म, आर्यधर्म के ही अंग हैं। दर्शन एवं सिद्धान्तों के दृष्टिकोण से ये सब भिन्न-भिन्न हैं, परन्तु इन सबकी संस्कृति एवं पृष्ठभूमि एक समान है।
-अनंतशयनम् आयंगर -(जैनधर्म का स्वरूप', प्रस्तावना, प्रकाशक अ.भा.श्वे. स्थानकवासी जैन कान्फ्रेंस भवन, नई दिल्ली)
वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु का जन्म 30 नवम्बर, 1858 ई. को पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) के 'मैनन सिंह' नामक शहर में हुआ। उनके पिता का नाम भगवान चंद्र बसु था और वे 'डिप्टी मैजिस्ट्रेट' थे। वे उच्चशिक्षा-प्राप्त कुशल अफसर होने के साथ-साथ सहृदय तथा जनसेवक भी थे। वे अपने माता-पिता के इकलौते पुत्र थे। वह बड़े लाड़-प्यार और सुख-सुविधाओं के बीच रहकर पले। जगदीश चंद्र को बचपन से ही प्रकृति से बहुत लगाव था, इसलिए उन्होंने प्रकृति के अध्ययन में विशेष-रुचि ली। जगदीश चंद्र की प्रारम्भिक शिक्षा फरीदपुर की बांग्ला पाठशाला में हुई, वहाँ पाँच वर्ष तक पढ़े। आगे की पढ़ाई उन्होंने कोलकाता के सेंट जेवियर स्कूल में की। यहाँ जिस
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छात्रावास में वे रहते थे, वहाँ भी उन्होंने विभिन्न प्रकार के पौधे देखे। एंट्रेंस के बाद वह कोलकाता के सेंट जेवियर कॉलेज में अध्ययन के लिए गए। उन्होंने विज्ञान-विषय का अध्ययन किया और भौतिकशास्त्र के अध्यापक फादर लेफंट के प्रिय-शिष्य बन गए।
इसके बाद 1880 ई. में ऊँची-शिक्षा के लिए जगदीश चंद्र बसु इंग्लैंड गए और वहाँ विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। उन्होंने भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, जीवविज्ञान और वनस्पतिविज्ञान का अध्ययन किया। पहले वर्ष में अच्छे अंकों से पास जरूर हुए, लेकिन दूसरे वर्ष कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की टेस्ट-परीक्षा में उत्तीर्ण होकर वह विश्वविख्यात क्राइस्ट चर्च कॉलेज में विशुद्ध विज्ञान के विद्यार्थी बन गए। अपनी लगन और मेहनत से उन्होंने अध्यापकों को बहुत प्रभावित किया। ____1884 में लंदन विश्वविद्यालय से परीक्षा उत्तीर्ण की, लेकिन स्थितियाँ जगदीश चंद्र के अनुकूल नहीं थी। भौतिकशास्त्र तथा वनस्पतिविज्ञान पर अनुसंधान करने की इच्छा के बावजूद, घर की आर्थिक स्थिति के कारण जगदीश चंद्र प्रेसीडेंसी कॉलेज, कोलकाता में भौतिकशास्त्र के स्थायी प्रोफेसर नियुक्त किए गए। यहाँ उन्होंने मेहनत और आत्मविश्वास के साथ 1915 ई. तक कार्य किया। भौतिकविज्ञान में जगदीश चंद्र की विशेष-रुचि थी। सन् 1894 में वह विद्युत-चुम्बकीय तरंगों के ध्रुवीकरण की महत्त्वपूर्ण-खोज में सफल हुए। उनके रेडिएटर से 75 फीट की दूरी पर तीन दीवारों को पार करके तरंगें रिसीवर तक पहुँची, जिससे पिस्तौल दागी गई और घंटी बज उठी। ऐसी खोज पहले दुनिया में किसी ने नहीं की थी। अपने मंद रेडिएटर से यह उल्लेखनीय प्रयोग करने के लिए बसु ने आधुनिक वायरलैस-टेलीग्राफी के एंटीना की रूपरेखा सोच ली। यह 2 फीट लम्बे खम्भे के ऊपर एक गोलाकार धातु की तश्तरी थी, जिसे रेडिएटर के साथ जोड़ा गया और इसीप्रकार की एक तश्तरी रिसीवर से जोड़ी गई थी। इस खोज के लिए 1896 में उन्हें डी.एस.सी. की उपाधि से सम्मानित किया गया।
जगदीश चंद्र बसु ने अपने दिमाग और मेहनत से अनेक ऐसे यंत्रों का निर्माण किया, जो हर्ट्ज की लम्बी रेडियो-तरंगों से कहीं छोटे-विकिरण को दर्ज कर सकते थे। खासकर उन्होंने सिद्ध किया कि छोटी विद्युत-चुम्बकीय-लहरें प्रकाश के एक पुंज की तरह व्यवहार करती हैं और ये दोनों ही परावर्तन' और 'वर्तन' के नियमों पर चलती हैं। वह विद्युत-चुम्बकीय लहरों को धुवित करने में भी सफल हो गए, जिससे वह प्रकाश-किरणों से उनकी समानता प्रदर्शित कर सके। सन् 1898 तक आते-आते जगदीश चंद्र बसु विश्वभर में प्रसिद्ध हो गए।
सन् 1898 से बसु ने वृक्षों और धातुओं में जीव की खोज का कार्य शुरू किया और यंत्र का निर्माण करके इसे सिद्ध करके दिखाया। उन्होंने पशु तथा विशेषकर पेड़-पौधों पर इतना गहन अध्ययन किया कि वैज्ञानिक उसका मूल्यांकन नहीं कर सके । बसु ने
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अनेक प्रायोगिक-विधियों की खोज की तथा अनेक सूक्ष्म वैज्ञानिक-उपकरणों का आविष्कार भी किया। उन्होंने 1902 में एक अतिसंवेदनशील-यंत्र क्रेस्कोग्राफ का आविष्कार किया, जो पौधों की बाढ़ को एक करोड़ गुणा विपुलन कर दिखाता था।
जनवरी, 1903 में भारत सरकार ने जगदीश चंद्र बसु को सी.आर.ई. की उपाधि से सम्मानित किया। 1907 में भारत सरकार ने उन्हें इंग्लैंड भेजा। फिर सन् 1912 में उन्हें सी.एस.आई. की उपाधि से भी सम्मानित किया गया। - जगदीश चंद्र बसु एक प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। वह भले ही निरंतर विज्ञान की खोजों में लगे रहे, मगर उन्होंने अन्य विषयों और कार्यों को अनदेखा नहीं किया। वह सभा-सम्मेलनों, साहित्यिक कार्यों और कवि-गोष्ठियों में भी भाग लेते थे। इन सबके चलते उन्होंने अनेक लेख और पुस्तकें लिखीं। उनके 80 लेख जर्मनी, फ्रांस और इंग्लैंड की महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। सन् 1902 से 1937 तक उनकी 10 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं। . वे अपने राष्ट्र से बहुत प्रेम करते थे। विदेशों में उन्हें उच्चतम-पदों पर नौकरी मिली, मगर उन्होंने स्वीकार नहीं की। 22 नवम्बर को उन्होंने बस संस्थान की पत्रिका के प्रूफ पढ़े तथा सोने से पहले ग्रामोफोन पर 'जन-गण-मन-अधिनायक' और 'वंदेमातरम' सुना। 23 नवम्बर, 1937 को सुबह स्नानघर में गिरने के कुछ समय पश्चात् देश के इस महान् वैज्ञानिक-सपूत का देहांत हो गया।
-(साभार उद्धृत 'नवभारत टाइम्स', रविवार, 10.11.2002, नई दिल्ली)
भावना का महात्म्य 'ण करेदि भावणाभाविदो खु पीडं वदाण सव्वेसिं। साहू पासुत्तो समुहदो व किमिदाणि वेदंतो।।'
–(भ.आ. 1206, पृ. 6/12) अर्थ :-- भावनाओं से भावित साधु गहरी नींद में सोता हुआ भी अथवा मूच्छित हुआ भी सब व्रतों में दोष नहीं लगाता। तब जागते हुए की बात ही क्या। ..
धर्म की महिमा 'धम्मेण होदि पुज्जो, विस्ससणिज्जो पियो जसंसी य । सुहसज्झा य णराणं, धम्मो मणणिबुदिकरो य।।'
-(भ.आ. 1852, पृ. 827) अर्थ :- धर्म से मनुष्य पूज्य होता है, सब का विश्ववासपात्र होता है, सब का प्रिय और यशस्वी होता है। मनुष्य धर्म को सुखपूर्वक पालन कर सकते हैं। तथा धर्म से मन को शांति मिलती है।
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वैदिक और जैन संन्यासी में उल्लिखित समताएँ
-डॉ. रमेशचन्द जैन
समस्त परिवाह का त्याग
'वृहदारण्यक उपनिषद्' में आया है कि याज्ञवल्क्य ने परिव्राजक होने के समय अपनी स्त्री मैत्रेयी से सम्पत्ति को उस (मैत्रेयी) में और कात्यायनी में बाँट देने की चर्चा की। इसके कुछ अंश इसप्रकार हैं— याज्ञवल्क्य ने कहा कि “हे मैत्रेयी ! मैं गृहस्थाश्रम छोड़कर संन्यास लेना चाहता हूँ। इसके लिए मैं तुम्हारी अनुमति चाहता हूँ और ऐसा करने से पहिले मैं अपने धन का बंटवारा करके तुम्हें कात्यायनी से अलग कर देना चाहता हूँ।" याज्ञवल्क्य के द्वारा उपर्युक्त प्रकार से कही गई मैत्रेयी ने कहा कि “हे भगवन् ! क्या समस्त पृथ्वी के मेरे धन से भर जाने पर मैं सब दुःखों से मुक्त हो जाऊँगी?" याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि “ऐसा नहीं होगा। तुम्हारा जीवन वैसा ही होगा, जैसा धनिकों का होता है। धन से अमरपद की आशा नहीं।" याज्ञवल्क्य ने कहा कि “हे प्रिये ! तुम मीठी बात बोलती हो। आओ, बैठो। हम व्याख्या करके तुम्हें (मुक्ति का साधन) समझायेंगे। व्याख्या करते समय हमारी बातों पर ध्यान दो।" .
याज्ञवल्क्य ने कहा कि “हे मैत्रेयी ! पत्नी को पति उसके प्रयोजन के लिये प्रिय नहीं' होता, प्रत्युत आत्मा के प्रयोजन के लिये प्रिय होता है। हे मैत्रेयी ! मनुष्य को सब पदार्थ उनके प्रयोजन के लिए प्रिय नहीं होते, प्रत्युत आत्मा के प्रयोजन के लिये प्रिय होते हैं। अत: हे मैत्रेयी ! आत्मा ही जानने योग्य पदार्थ है। उसी को सुनना चाहिए, उसी पर विचार करना चाहिए और उसी का निरन्तर चिन्तन करना चाहिए। हे मैत्रेयी ! आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और विज्ञान से सब कुछ जाना जाता है।"
इससे प्रकट होता है कि उन दिनों परिव्राजकों को घर-द्वार, पत्नी एवं सारी सम्पत्ति का परित्याग कर देना पड़ता था। जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने कहा हैहवदि व ण हवदि बंधो मदम्हि जीवो य कायचेट्ठम्हि ।
बंधो धुवमवधीदो इदि समणा छड्डिया सव्वं ।। -(प्रवचनसार, 219) कायचेष्टापूर्वक जीव के मरने पर बन्ध होता है, अथवा नहीं होता, किन्तु उपधि-परिग्रह
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से निश्चय ही बन्ध होता है, इसलिए श्रमणों ने सर्व परिग्रह को छोड़ा है।
यदि निरपेक्ष त्याग न हो, तो भिक्षु के भाव की विशुद्धि नहीं होती और जो भाव में अविशुद्ध है, उसके कर्मक्षय कैसे हो सकता है? उपधि के सद्भाव में उस भिक्षु के मूर्च्छा, आरम्भ या असंयम न हों, यह कैसे हो सकता है ? तथा जो परद्रव्य में रत हो, वह आत्मा को कैसे साध सकता है ? 2 जब कि जिनवरेन्द्रों ने मोक्षाभिलाषी के देह परिग्रह है' – ऐसा कहकर देह में भी अप्रतिकर्मपना कहा है, तब उसका यह स्पष्ट आशय है कि उसके अन्य परिग्रह कैसे हो सकता है?"
भिक्षाचर्या, यथाजात रूप एवं ब्रह्म की अनुभूति
हिन्दू-ग्रन्थ 'वृहदारण्यक उपनिषद्' में आया है कि आत्मविद् - व्यक्ति संतान, सांसारिक सम्पत्ति, मोह आदि छोड़ देते हैं और भिक्षाचर्या का आचरण करते हैं; अत: ब्राह्मण को चाहिए कि वह सम्पूर्ण-पाण्डित्य की प्राप्ति के उपरान्त बालक-सा बना रहे। ज्ञान एवं बाल्य के ऊपर उठकर उसे मुनि की स्थिति में आना चाहिए तथा मुनि या अमुनि के रूप से ऊपर उठकर उसे ब्राह्मण (जिसने ब्रह्म की अनुभूति कर ली हो ) बन जाना चाहिए।' जैनग्रन्थ प्रवचनसार में कहा गया है—
उवयरणं जिणमग्गे लिंगं जहजादरूवमिदि भणिद ।
गुरुवयणं पिय विणओ सुत्तज्झयणं णिदिट्ठे । ।– (प्रवचनसार, 225 ) यथाजात रूप जो लिंग, वह जिनमार्ग में 'उपकरण' कहा गया है, गुरु के वचन, सूत्रों it अध्ययन और विनय भी 'उपकरण' कही गई है—
ऍक्कं खलु तं भत्तं अपडिपुण्णोदरं जहालद्धं ।
चरण भिक्खेण दिवा ण रसार्वेक्खं ण मधु-मंसं । । – ( प्रवचनसार, 229 ) वास्तव में वह आहार एक बार, ऊनोदर, यथालब्ध, भिक्षाचरण से दिन में, रस की अपेक्षा से रहित और मधुमाँसरहित होता है।
आत्मज्ञान मोक्षमार्ग का साधकतम है, इसे प्रकट करते हुए 'प्रवचनसार' में कहा है— जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवस्य - सहस्सकोडीहिं ।
तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण । । - ( प्रवचनसार, 238 ) जो कर्म अज्ञानी लक्षकोटि भवों में खपाता है, वह कर्म ज्ञानी तीन प्रकार से गुप्त होने सेौं उच्छ्वासमात्र में खपा देता है ।
जैनाचार्य रविषेण ने कहा है कि ब्राह्मण वे हैं, जो अहिंसाव्रत धारण करते हैं, महाव्रतरूपी लम्बी चोटी धारण करते हैं, ध्यानरूपी अग्नि में होम करते हैं तथा शान्त हैं और मुक्ति के सिद्ध करने में तत्पर रहते हैं। इसके विपरीत जो सब प्रकार के आरम्भ में प्रवृत्त हैं, निरन्तर कुशील में लीन रहते हैं तथा क्रियाहीन हैं । वे केवल 'ब्राह्मण' नामधारी ही हैं, वास्तविक ब्राह्मणत्व उनमें कुछ भी नहीं है। ऋषि, संयत, धीर, क्षान्त,
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दान्त और जितेन्द्रिय मुनि ही वास्तविक ब्राह्मण हैं। ब्रह्मचर्य को धारण करनेवाला ब्राह्मण कहलाता है। लौंच क्रिया
वैदिक-परम्परा में 'यजुर्वेद' के रुद्राध्याय में 'कुलञ्चानां पतये नमो नमः' कहकर केशलौंच करनेवालों के स्वामी को बारम्बार नमस्कार किया है।' 'जाबालोपनिषद्' (5) में लिखा है कि परिव्राट लोग विवर्णवास, मुण्डित सिर, बिना सम्पत्तिवाले, पवित्र, अद्रोही, भिक्षावृत्ति करनेवाले तथा ब्रह्म में संलग्न रहते थे। __'कल्पसूत्रचूर्णि' में कहा है— “केश से जीवों की हिंसा होती है; क्योंकि केश के भीगने से जूं उत्पन्न होते हैं। सिर खुजलाने पर उनकी हिंसा और सिर में नखक्षत हो जाता है। छुरे या कैंची से बालों को काटने से आज्ञाभंग दोष के साथ संयम और चारित्र की विराधना होती है। नाई अपने उस्तरे और कैंची को सचित्त जल से साफ करता है। अत: ‘पश्चात्-कर्मदोष' होता है। जैनशासन की अवहेलना भी होती है। इन सब दृष्टियों से श्रमणों को हाथों से केशलौंच करने का विधान किया गया है।" ___ 'मूलाचार' में प्रतिक्रमण-आवश्यक के अन्तर्गत दस-मुण्डों का वर्णन किया गया है। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त न होने देना -ये पाँच इन्द्रियमुण्ड तथा वचोमुण्ड–अप्रस्तुत भाषण न करना, हस्तमुण्डअप्रस्तुत कार्यों में हाथ न फैलाना, उसे संकुचित रखना, पादमुण्ड—अयोग्य कार्यों में पैरों को प्रवृत्त न होने देना, मनोमुण्ड—मन के पापपूर्ण विचारों को नष्ट करना तथा तनुमुण्ड—शरीर को अशुभ पापकार्य में प्रवृत्त न होने देना। -इन दस मुण्डों से आत्मा पाप में प्रवृत्त नहीं होती, अत: उस आत्मा को 'मुण्डधारी' कहते हैं।' संन्यासी का आवास
हिन्दू-परम्परा के अनुसार घर, पत्नी, पुत्रों एवं सम्पत्ति का त्याग कर संन्यासी को गाँव के बाहर रहना चाहिए, उसे बेघर का होना चाहिए: जब सूर्यास्त हो जाये, तो पेड़ों के नीचे या परित्यक्त-घर में रहना चाहिए और सदा एक स्थान से दूसरे स्थान तक चलते रहना चाहिए। वह केवल वर्षा के मौसम में एक स्थान पर ठहर सकता है।" मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य 3/58) द्वारा उद्धृत शंख के वचन से पता चलता है कि संन्यासी वर्षा ऋतु में एक स्थान पर केवल दो मास तक रुक सकता है। कण्व का कहना है कि वह एक रात्रि गाँव में या पाँच दिन कस्बे में (वर्षा ऋतु को छोड़कर रह सकता है)।" ___जैनग्रन्थ प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि श्रामण्यार्थी बन्धुवर्ग से विदा माँगकर गुरु, स्त्री और पुत्र से मुक्त किया हुआ ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्याचार को अंगीकार कर जो श्रमण है, गुणाढ्य है, कुल-रूप तथा वय से विशिष्ट हैं, और श्रमणों को अति-इष्ट हैं, ऐसे गणी को 'मुझे स्वीकार करो' -ऐसा कहकर प्रणत होता है और
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अनुगृहीत होता है
'कल्पसूत्र' में कहा है कि साधुओं और साध्वियों को रात्रि में अथवा विकाल अर्थात् सान्ध्य - समय में तथा सूर्योदय के पहले विहार नहीं करना चाहिए ।"
'मूलाचार' के अनुसार गिरि कन्दराओं, श्मशानभूमि, शून्यागार, वृक्षमूल आदि वैराग्यवर्द्धक स्थानों में श्रमण ठहरते हैं; 14 क्योंकि कलह, व्यग्रता बढ़ानेवाले शब्द, संक्लेशभाव, मन की व्यग्रता, असंयतजनों का संसर्ग, तेरे-मेरे का भाव, ध्यान तथा अध्ययन आदि में विघ्न – इन दोषों का सद्भाव विविक्त - वसतिकाओं में नहीं होता । 15
अपराजित सूरि ने कहा है कि “वर्षाकाल में स्थावर और जंगम सभी प्रकार के जीवों से यह पृथ्वी व्याप्त रहती है। उस समय भ्रमण करने पर महान् असंयम होता है। वर्षा और शीत - वायु से आत्मा की विराधना होती है । वापी आदि जलाशयों में गिरने का भय रहता है। जलादि में छिपे हुए ठूंठ, कष्टक आदि से अथवा जल, कीचड़ आदि से कष्ट पहुँचता है ।' इन्द्रियसुख से दूरी
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संन्यासी को ब्रह्मचारी होना चाहिए। सदा ध्यान एवं आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति भक्ति रखनी चाहिए एंव इन्द्रिय-सुख, आनन्दप्रद - वस्तुओं से दूर रहना चाहिए।'
'प्रवचनसार' में कहा है— पाँच समितियुक्त, पाँच इन्द्रियों का संवरवाला, तीन गुप्तियों सहित, कषायों को जीतनेवाला, दर्शन - ज्ञान से परिपूर्ण श्रमण 'संयत' कहा गया है। जो विशुद्धात्मा होता हुआ परम आत्मा का ध्यान करता है, वह साकार या अनाकार मोह-दुर्ग्रन्थि का क्षय करता है । "
समताभाव
I
संन्यासी को बिना जीवों को कष्ट दिये घूमना चाहिये, उसे अपमान के प्रति उदासीन रहना चाहिये, यदि कोई उससे क्रोध प्रकट करे तो क्रोधोवेश में नहीं आना चाहिये । यदि कोई उसका बुरा करे तो भी उसे कल्याणप्रद - शब्दों का उच्चारण करना चाहिए और कभी भी असत्य भाषण नहीं करना चाहिये | 20
जैन-आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है
सम-सत्तु-बंधुवग्गो सम-सुह- दुक्खे पसंस - णिदं - समो ।
समलॉट्ठ-कंचणो पुण जीविद - मरणे समो समणो । । - ( प्रवचनसार, 241 ) जिसे शत्रु और बन्धुवर्ग समान है, सुख और दुःख समान है, प्रशंसा और निन्दा के प्रति जिसको समता है, जिसे लोष्ठ (पत्थर का टुकड़ा) और सुवर्ण समान है तथा जीवन-मरण के प्रति जिसको समता है, वह 'श्रमण' है ।
आहार के योग्य घर
हिन्दू-ग्रन्थों में कहा गया है कि संन्यासी को बिना किसी पूर्व-योजना या चुनाव के
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सात घरों से भिक्षा माँगनी चाहिए।"
जैन-ग्रन्थ 'मूलाचार' में सरल (सीधी) पंक्ति से तीन अथवा सात घर से आया हुआ प्रासुक-ओदन ग्राह्य है। इसके विपरीत यत्र-तत्र किन्हीं भी सात घरों से आया हुआ आहार अनाचिन्न (अनाचीर्ण) अर्थात् अग्राह्य है; क्योंकि इससे ईर्यापथशुद्धि नहीं होती है। एकभक्त __ मनु ने कहा है कि संन्यासी एक समय ही भिक्षा के लिए विचरण करे। अधिक प्रमाण में आसक्त न हो; क्योंकि भिक्षा में आसक्त संन्यासी विषयों में भी आसक्त हो जाता है। जैनमुनि के 28 मूलगुणों में एकभक्त (एक ही बार भोजन) कहा गया है। यह 'सामायिक-संयम' का विकल्प होने से श्रमणों का मूलगुण है। इन्द्रियरोधादि . ___मनुस्मति' में कहा है कि इन्द्रियों के निरोध से राग-द्वेष के नाश से तथा प्राणियों की अहिंसा से अमरता प्राप्त होती है। आचार्य शुभचन्द्र ने 'ज्ञानार्णव' में उपुर्यक्त तीनों बातों पर जोर देने के लिए तीनों पर स्वतन्त्र सर्ग लिखे। वे कहते हैं कि “जिसने इन्द्रियों को नहीं जीता, वह कषायरूपी अग्नि का निर्वाण करने में असमर्थ है। इसकारण क्रोधादिक को जीतने के लिये इन्द्रियों के विषय का रोध करना प्रशंसनीय कहा जाता है।"25
अपने अधीन किया हुआ मन भी रागादिक भावों से तत्काल कलंकित किया जाता है। इसकारण मुनिगणों का यह कर्तव्य है कि विषय में वे प्रमादरहित हो सबसे पहिले इन "रागादिक को दूर करने में यत्न करें। "अहिंसा ही जगत् की माता है; क्योंकि समस्त जीवों की रक्षा करती है। अहिंसा ही आनन्द की परिपाटी है। अहिंसा ही उत्तम-गति है। जगत् में जितने उत्तमोत्तम गुण हैं, वे सब इस अहिंसा में ही हैं।" सम्यग्दर्शन
सम्यग्दर्शन से सम्पन्न व्यक्ति कर्मों से नहीं बँधता है और सम्यग्दर्शन से हीन व्यक्ति संसार को प्राप्त करता है। जैनाचार्य शुभचन्द्र ने कहा है कि भलेप्रकार प्रयुक्त किये हुये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - इन तीनों की एकता होने से मोक्षरूपी लक्ष्मी उस रत्नत्रययुक्त आत्मा को स्वयं दृढ़ालिंगन देती है।" ज्योतिष तथा मन्त्र-तन्त्रादि का निषेध ___ मनु के अनुसार सन्यासी को भविष्यवाणी करके, शकुनाशकुन बनाकर, ज्योतिष का प्रयोगकर, विद्या, ज्ञान आदि के सिद्धान्तों का उद्घाटन और विवेचन आदि न करके भिक्षा माँगने का प्रयत्न करना चाहिये। जैनग्रन्थ 'मूलाचार' में मुनि के आहारसम्बन्धी-दोषों के 46 भेद कहे गये हैं, इनमें उत्पादन-दोषों के अन्तर्गत विद्या तथा मन्त्र-दोष आता है। जो साधित करने पर सिद्ध होती है, उन्हें 'साधित-सिद्ध-विद्या'
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कहते हैं तथा जो पढ़ते ही सिद्ध हो अर्थात् जो मन्त्र पढ़ने मात्र से सिद्ध हो जाता है, वह 'पठित-सिद्ध-मन्त्र' है। इन विद्याओं एवं मन्त्रों को प्रदान करने की आशा देकर तथा उनका माहात्म्य बतलाकर दाता को आहारदान हेतु प्रेरित कर आहार ग्रहण करना अथवा आहारदायक देवी-देवताओं को विद्या तथा मन्त्र से बुलाकर उनको आहार के लिए सिद्ध करना 'विद्या-मन्त्रदोष' है।" अप्रतिपूर्णोदर भोजन
संन्यासी को भरपेट भोजन नहीं करना चाहिये, उसे केवल उतना ही पाना चाहिये, जिससे वह अपने शरीर एवं आत्मा को एक साथ रख सके, उसे अधिक पाने पर न तो सन्तोष या प्रसन्नता प्रकट करनी चाहिए और न कम मिलने पर निराशा।" ___ जैनग्रन्थ 'प्रवचनसार' में पूरा पेट न भरे हुए (अपूर्णोदर या ऊनोदर अथवा अवमौदर्य) आहार को ही 'युक्ताहार' कहा है, क्योंकि वही अप्रतिहत (विघ्नरहित) आत्मस्वभाव से जुड़नेवाला है। पूर्णोदर आहार तो प्रतिहत-योगवाला होने से कथंचित् हिंसायतन होता हुआ युक्त नहीं है। पूर्णोदर-आहार करनेवाला प्रतिहत-योगवाला होने से वह आहार योगी का आहार' नहीं है। दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं
' संन्यासी को भलीभाँति भूमि-निरीक्षण करके चलना चाहिये, पानी छानकर पीना चाहिये, सत्य से पवित्र वाणी बोलना चाहिये तथा मन से पवित्र होकर आचरण करना चाहिये। जैनमुनि की चर्या में समिति के भेदों में प्रथम ईर्यासमिति' है। चार हाथ आगे की भूमि को देखते हुए चलना 'ईर्यासमिति' है। पानी छानकर पीने का व्रत तो गृहस्थावस्था में ही प्रारम्भ हो जाता है। पञ्चमहाव्रतों में दूसरा व्रत सत्यमहाव्रत' है तथा मन की पवित्रता का सम्बन्ध 'मनोगुप्ति' से है।
'वायुपुराण' के अनुसार संन्यासी को मांस या मधु का सेवन नहीं करना चाहिये।" आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है
ऍक्कं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जहालद्धं । चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधु-मंसं ।।
-(प्रवचनसार, 229) वास्तव में वह आहार (युक्ताहार) एक बार, ऊनोदर, यथालब्ध (जैसा प्राप्त हो वैसा), भिक्षाचरण से, दिन में, रस की अपेक्षा से रहित और मधुमाँसरहित होता है।
इसकी टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है- अमधुमांसं एवाहारो युक्ताहार:, तस्यैवाहिसायतनत्वात् । समधुमांसस्तु हिंसायतनत्वान्न युक्तः । ___मधु और मांस से रहित आहार ही युक्ताहार है; क्योंकि वही 'अहिंसा का आयतन' है। मधु और मांसयुक्त आहार हिंसा का आयतन होने से युक्त नहीं है।
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वृ उशा के
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भिक्षा से प्राप्त भोजन पाँच प्रकार का होता है 7'मतानुसार 1. माधुकर 2. प्राक्प्रणीत, 3. अयाचित, 4. तात्कालिक, 5. उपपन्न ( भक्त - शिष्यों या अन्य लोगों द्वारा मठ में लाया गया भोजन ) । इनमें से जैन मुनि का भोजन 'माधुकर' तथा 'अयाचित' होता है ।
जैनग्रन्थों में भिक्षावृत्ति के निम्नलिखित नामों का उल्लेख मिलता है— 1. उदराग्निप्रशमन, 2. अक्षमृक्षण, 3. गोचरी, 4. श्वभ्रपूरण और 5. भ्रामरी या मधुकरी वृत्ति । इनमें से आहारदाता पर भाररूप बाधा पहुँचाये बिना कुशलता से भ्रमर की तरह आहार ग्रहणा करना 'भ्रामरी वृत्ति' है। जैसे भ्रमर बिना म्लान किए ही द्रुमपुष्पों से थोड़ा रस पीकर अपने को तृप्त कर लेता है, वैसे ही लोक में मुक्त (अपरिग्रही ) श्रमण या साधु दानभक्ति (दाता द्व दिये जाने वाले निर्दोष आहार) की एषणा में उसीप्रकार रत रहते हैं, जैसे भ्रमर पुष्पों में 38 इन समताओं के अतिरिक्त अनेक विषमतायें भी हैं, जिनकी चर्चा अन्यत्र अपेक्षित है।
सन्दर्भ-सूची
2. प्रवचनसार, 220-221।
1. वृहदारण्यक उपनिषद्, 2/4/1-51 3. वही, 224 4. वृहदारव्यकोपनिषद्. 2/4/1, 3/5/11 5. डॉ. रमेशचन्द्र जैन : पद्मचरित में प्रतिपादित भारतीय संस्कृति, पृ. 65-661 6. ब्राह्मणो ब्रह्मचर्यतः पद्मपुराण 6/209 । 7. डॉ. फूलचन्द्र प्रेमी : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 144 8. कल्पसूत्र चूर्णि 284 एवं कल्पसूत्र सुबोधिका टीका पत्र, 190-191। 9. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 121 । 10. मनु. 6/4/1, 43-44, वसिष्ठ धर्म सूत्र 12-15, शंख 7/61 11. धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम भाग, पृ. 491 12. प्रवचनसार, 203-204 14. गिरिकंदरं मसाणं सुण्णागारं च रुक्खमूलं वा । ठाणं मूलाचार 10/59 ।। 15. भगवती आराधना 232 । पृ.618 1 17. मनु. 6/41, एवं 49, गौतम 3 / 11 । 18. प्रवचनसार, 240 19. वही, 1941 20. मनुस्मृति 6/40, 47-48, याज्ञ. 3/61, गौतम 3/23 । 21. वसिष्ठधर्म 10/7, शंख 7/3, आदिपर्व 119/12-5 या 10 घर । 22. एककालं चरेद् भैक्षं न प्रसज्येत विस्तरे । भैक्षे प्रसक्तो हि यतिर्विषयेष्वपि सज्जति । । - मनु. 6/55 23. वदसमिदिंदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिदि सयण भदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च । । - प्रवचनसार, 208 24. इन्द्रियाणांनिरोधेन रागद्वेषक्षयेण च। अहिंसया च भूतानाभमृतत्वाय कल्पते । । - मनु. 6/ 60 25. ज्ञानार्णव, 20 / 1। 26. वही, 23/4 27. वही, 8/32 28. सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मभिर्न निबद्धयते। दर्शनेन विहीस्तुं संसारं प्रतिपद्यते । । - मनु. 6/74 29. ज्ञानार्णव, 6/1 । 30. मनुस्मृति, 6/50-51। 31. मूलाचार, 6/38-40 । 32. मनुस्मृति 6/57, एवं 59, वसिष्ठ 10/21-22 एवं 25 याज्ञ. 3/591 33. प्रवचनसार, 229 । 34. प्रवचनसार, अमृतचन्द्राचार्य टीका, गाथा 229 । 35. दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं पिवेज्जलम्। सत्यपूतं वदेद्वाक्यं मनःपूतं समाचरेत् । । - मनु. 6/46 36. वायुपुराण, 1/18/17 37. स्मृतिमुक्ताफल (पृ. 200 ) एवं यतिधर्मसंग्रह (पृ. 74-75 ) में उद्धृत । 38. दशवैकालिक, 1/2-3।
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13. वृहत्कल्पसूत्र 3, पृ. 69 1 विरागबहुलं धीरो भिक्खु णिसेवेऊ ।। 16. भगवती आराधना विज . टी. 421,
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पर्यावरण-संरक्षण और जैनधर्म
-पं. निहालचन्द जैन
पर्यावरण-संरक्षण आज की एक विश्वव्यापी ज्वलन्त-समस्या है। हमारे देश के 42वें संविधान-संशोधन द्वारा प्रत्येक नागरिक का यह मूल-कर्त्तव्य हो गया है कि वह प्राकृतिक पर्यावरण-जिसके अंतर्गत वन, झील और वन्य जीव हैं, की रक्षा करें और उसका संवर्धन करें, प्राणीमात्र के प्रति दयाभाव रखें तथा अवैध-शिकार करने पर कड़ी दंड-व्यवस्था है। उक्त संविधान संशोधन में जैनधर्म की मूल-भावना को बड़ा संबल मिला है।
पर्यावरण-संबंधी आचार-संहिता, सभी जीवों के प्रति आदरभाव तथा प्रकृति के सौन्दर्य की सुरक्षा की भावना बनाये रखने को बनी है। पर्यावरण के अन्तर्गत वह सब कुछ आ जाता है, जो हमारे आसपास मौजूद है; जैसे- पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, पेड़पौधे, पशु-पक्षी एवं बादर (स्थूल) जीव जंतु तथा भू-गर्भ के खनिज। - विश्व के प्राय: सभी धर्म-जीवों, पशुओं और पौधों के संरक्षण के बारे में उपदेश देते हैं। हिन्दू धर्म में, विविध प्राकृतिक संसाधनों जैसे पेड़ों में पीपल, बरगद, आम, इमली, नदियों में गंगा-जमुना, पशुओं में गाय-बैल, यहाँ तक की सूर्य, चन्द्रमा आदि के पूजन के लिये प्रावधान है। इस्लाम-धर्म भोजन के लिये पशुओं को मारने का समर्थन नहीं करता है। ईसाइयों की धार्मिक-पुस्तक (मैथ्यू 7/12) में पृथ्वी को क्षति पहुँचाना या वन-साम्राज्य का निराधार-विनाश करना (पुस्तक-सिनेसिस 1/28) परमात्मा का अपमान' कहा है। भारतीय-संस्कृति प्रमुखत: जैन-संस्कृति का पर्यावरण-संरक्षण में एक महत्त्वपूर्ण-योगदान रहा है। जिसके प्रमुख-बिन्दुओं पर प्रस्तुत-लेख में विचार किया जा रहा है। 1. असंतलित-पर्यावरण एवं मानव :
1. पर्यावरण-प्रदूषण के बारे में 1980 में अमरीकी राष्ट्रपति विश्व-2000' के प्रतिवेदन में कहा था कि- "यदि पर्यावरण-प्रदूषण नियंत्रित न किया गया, तो 2030 तक तेजाबी वर्षा, भूखमरी और महामारी का तांडव-नृत्य होगा।"
2. औद्योगिक एवं नगरीकरण अपने कूरा-करकट से नदियों के जल को प्रदूषित कर रहा है, जिससे जलीय जीव-जन्तुओं के साथ-साथ मानव-जीवन खतरे में है।
3. उर्वरक एवं कीटनाशकों से भूमि-प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है।
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4.वनों के सफाया होने से, जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं। सन् 1600 से अब तक 120 जातियाँ स्तनधारियों की तथा 225 प्रजातियाँ पक्षियों की विलुप्त हो चुकी हैं, और इस सदी के अंत तक 650 वन्य प्राणियों की प्रजातियाँ विलुप्त होने की कगार पर हैं ।
वन-विनाश के कारण न केवल वर्षा में कमी आई है, अपितु बाढ़, सूखा, भू-स्खलन, भू-रक्षण, मरुस्थलीकरण एवं अन्य पारिस्थितिक- विंक्षोभों में । निरन्तर वृद्धि हो रही है। 5. पृथ्वी - तल से लगभग 100 कि.मी. ऊँचाई पर 'ओजोन गैस' की एक पारदर्शी रक्षा-परत है, जो पराबैंगनी और ब्रह्मांड - किरणों जैसी घातक सौर किरणों को पृथ्वी पहुँचाने से रोकती हैं।
कल-कारखानों, वाहनों, विमानों आदि के धुएँ से यह ओजोन परत नष्ट होती है । विश्व में करीब 750 हजार टन ऐसी विषैली गैसें प्रतिवर्ष वातावरण में छोड़ी जातीं हैं; जिससे ओजोन पर घातक - असर होता है । उत्तरी ध्रुव 'अंटार्कटिका' के ऊपर एक ओजोन छिद्र नजर आने लगा है, जिसे वैज्ञानिकों ने देखा है ।
6. आणुविक-परीक्षणों से घातक रेडियोधर्मी - प्रदूषण बढ़ रहा है, जिससे अंतरिक्ष भी प्रदूषण से रहित नहीं रह पा रहा है।
विगत 50 वर्षों में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या जितनी विकट हुई है, उतनी पिछले 400 वर्षों में भी नहीं। इसका कारण है कि मनुष्य ने प्रकृति का अतिशय - दोहन करना शुरू कर दिया है। हाल में आये भयंकर - भूकंप का एक कारण वैज्ञानिकों ने भूमि के नीचे जल-स्तर के गिर जाने से, भूमि के भारी- शून्य पैदा हो जाने की संभावना से ऐसी संहारक-दुर्घटना होना बताया गया है।
2. जैन तीर्थंकरों के जन्म एवं तप कल्याणक तथा पर्यावरण :
जैनधर्म प्रकृति के साथ तादात्म्य की एक अनोखी प्रस्तुति है। तीर्थकरों के जन्मकल्याणक का संबंध क्षीरसागर के जल और सुमेरु पर्वत के हरे भरे जंगल में स्थित पाण्डुकशिला पर होने वाले अभिषेक से प्रारंभ होता है । तप- कल्याण में भावी तीर्थकर - तपश्चर्या हेतु वन की ओर प्रयाण करते हैं और वे शाल्मली, जामुन, बरगद, अशोक आदि वृक्षों के नीचे ध्यान में लीन होते हैं। इसके पीछे बड़ा रहस्य छिपा है। वृक्ष-प्राणवायु (ऑक्सीजन) का जनक होता है। एक वृक्ष अपनी 50 वर्ष की औसत आयु में लगभग 15 लाख 70 हजार मूल्य की प्राणवायु देकर 'वायु- शुद्धिकरण और आर्द्रता - नियंत्रण करता है । ध्यानावस्था में श्वासोच्छ्वास की गति अत्यंत मंद होने पर भी योगी-जन, किसी वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ होकर आवश्यक - प्राणवायु प्राप्त करते हैं । शुक्लध्यान के फलस्वरूप अरहंत-अवस्था में तीर्थंकर को अष्ट-प्रतिहार्यों की प्राप्ति होती है, जिनका सम्बन्ध प्रकृति एवं पर्यावरण से है, जैसे— पुष्पवृष्टि जो पर्यावरण को सुवासित करता है तथा अशोक
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वृक्ष आदि हैं। भगवान् गंधकटी में स्थित सिंहासन पर कमल होता है, उस कमल के चार अंगुल ऊपर अंतरिक्ष में श्री जिनेन्द्रदेव विराजमान रहते हैं। यह गंधकुटी और कमल भी प्रकृति की श्रेष्ठ-प्रस्तुति का प्रतीक है। . . ___केवलज्ञान' के दस अतिशयों में 100 योजन तक सुभिक्ष होना तथा बिना ऋतुओं के फल और फूल वृक्षों में आ जाना भी पर्यावरण की परम-शुद्धि के द्योतक हैं। . 3. चौबीस तीर्थंकरों के प्रतीक चिहन और पर्यावरण :
तीर्थकरों के प्रतीक-चिह्न, पर्यावरण-संरक्षण के रहस्य को अपने में समेटे हुए हैं। जैनश्रमणों/मुनियों/तीर्थकरों की दिगम्बर-मुद्रा प्रकृति और परिस्थितिकी की मूल-अवधारणा से जुड़ा हुआ है। जैसे प्रकृति में कोई आवरण नहीं, इसीप्रकार प्रकृतस्थ-जीवन भी आवरणरहित होता है। अतएव तीर्थंकरों ने प्रकृति, वन्य-पशु और वनस्पति-जगत् के प्रतीक-चिह्नों से अपनी पहचान को जोड़ दिया। इनमें बारह थलचर-जीव जैसेवृषभ, हाथी, घोड़ा, बंदर, गैंडा, महिष, शूकर, सेही, किरण, बकरा, सर्प और शेर हैं। इनमें शूकर प्राणियों से उत्सर्जित-मल का भक्षणकर पर्यावरण को शुद्ध रखनेवाला एक उपकारक-पशु है। सिंह को छोड़कर शेष सभी ग्यारह पशु शाकाहारी हैं, जो शाकाहार की शक्ति के संदेशवाहक हैं। चक्रवाक नभचर-प्राणी है तथा मगर, मछली और कछुआ जलचर-पंचेन्द्रिय हैं। ये जल-प्रदूषण को नष्ट करने में सहायक जल-जंतु हैं। लाल एवं नीला कमल तथा कल्पवृक्ष, वनस्पति-जगत् के प्रतिनिधि हैं। इनमें कमल सुरभित-पुष्प है, जो वायुमण्डल एवं पर्यावरण को न केवल सौन्दर्य प्रदान करते हैं, वरन् महकाते भी हैं। इसके अलावा स्वस्तिक-चिह्न, वज्रदण्ड, मंगल-कलश, शंख और अर्धचन्द्र सभी मानव-कल्याण की कामना के प्रतीक हैं। इसप्रकार ये चौबीस चिह्न किसी न किसी अर्थ में प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े हुए हैं। 4. 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' बनाम पर्यावरण :
आचार्य उमास्वामी ने 'तत्त्वार्थसूत्र' नामक ग्रन्थ में एक सूत्र दिया— “परस्परोपग्रहो जीवानाम्" (5/21) परस्पर में एक-दूसरे की सहायता करना जीवों का उपकार है। लोक में निरपेक्ष कोई नहीं रह सकता है। एक बालक बड़ा होकर जो उपलब्धियाँ प्राप्त करता है, इसमें उसकी योग्यता/आत्मपुरुषार्थ के साथ-साथ माता-पिता, समाज, गुरु, सत्संगति, राज्यशासन एवं पर्यावरण आदि अनेक साधन उपकारक बनते हैं। हर एक व्यक्ति पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण-शक्ति से भी जुड़ा है। अन्यान्य-ग्रहों की अदृश्य-शक्तियों से प्रभावशाली रहता है। उसके अस्तित्व की डोर–धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गलद्रव्य के उपकारक-हाथों में भी सौंपी हुई है। पर्यावरण का संतुलन और प्रकृति का संदेश भी, एक प्राणी को दूसरे प्राणी का उपकारक बने रहने का है, जैसे मनुष्यों व प्राणियों द्वारा त्याज्य अशुद्ध हवा (कार्बनडाइआक्साइड) वनस्पति-जगत् के लिये ग्राह्य-प्राणवायु है और
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वनस्पतियों द्वारा त्याज्य-वायु मानव व प्राणियों के लिये ग्राह्य-प्राणवायु है। पर्यावरण का संतुलन इसी अन्योन्याश्रय-सिद्धान्त पर टिका हुआ है। 5. जैन-संस्कृति के प्राण तीर्थक्षेत्र, मंदिर तथा पर्यावरण :
__ समस्त जैनतीर्थ, अतिशय और सिद्धक्षेत्र (निर्वाण-क्षेत्र) हरे भरे वृक्षों से युक्त पर्वत शिखरों, नदियों के तीरों, बड़े जलाशयों, झीलों, आदि पर अवस्थित हैं। चाहे वह सम्मेदशिखर की पावन निर्वाण-भूमि हो या गिरिनार पर्वत, चाहे श्रवणबेल्गोला की विन्ध्यगिरि व चन्द्रगिरि की मनोरम-उपत्यकायें हों या राजस्थान के माउंट आबू के जैन मंदिर, सभी प्रकृति की गोद में स्थित हैं और सभी प्रदूषणों से मुक्त हैं।
बुन्देलखण्ड के अतिशयक्षेत्र श्री देवगढ़, कुण्डलपुर, सिद्धक्षेत्र सोनागिरि, रेशंदीगिरि आदि हों या गुजरात का शत्रुजय-क्षेत्र पर्वत-मालाओं से घिरे शुद्ध-पर्यावरण से युक्त हैं। ___अतीत-काल में सभी जैन-मंदिर उद्यानों या सरोवरों से युक्त बगीचों में हुआ करते थे। इसी प्रकार श्रमणों की तपस्थली निर्जन एवं घने वन या पर्वत की गुफाएँ हुआ करती थीं; क्योंकि वे जन-कोलाहल (ध्वनि प्रदूषण) से रहित, प्राणवायु से घनीभूत-वातावरणवाले स्थान होते थे, जो ध्यान और समाधि के लिये बड़े सहायक होते हैं।
आज महानगर-संस्कृति में हमारे जैन-मंदिर बस्तियों के अंदर ही बनने लगे हैं, जहाँ उद्यानमय-परिवेष नहीं रह गया है। फिर भी उन मंदरों के सेवक या भृत्य, माली या बागवान कहलाते हैं। जो इस तथ्य के द्योतक हैं कि ध्यान और उपासना के केन्द्र, ये जैन-मंदिर पहले उद्यानों से घिरे होते थे, जो वायु, जल, ध्वनि, आदि प्रदूषणों से रहित हुआ करते थे। इसी रहस्य को एक कवि ने छंदोबद्ध करने का प्रयास किया है जो द्रष्टव्य है . जो वृक्षों से पूर्ण जैन, पर्वत तीर्थों पर थी पर्याप्त,
जहाँ साधनारत रहते थे, मुक्तिप्राप्ति-हित मुनिवर-लोग।
प्राणवायु की शुद्ध-प्राप्ति ही, मुख्य-सहायक साधक योग।।' जैन-तीर्थों का यह वैज्ञानिकरूप पर्यावरण से जुड़ा हुआ है। प्राकृतिक सुषमा से युक्त, स्वच्छ शांत-वातावरण में ये जैन-तीर्थ अध्यात्म के केन्द्र हैं, जो प्राणवायु के भंडार हैं। इसके पीछे वृक्षों, वनों, उद्यानों के संवर्धन और रक्षा का भाव ही विद्यमान है। वहाँ ग्रीष्मकाल में भी शीतल आर्द्र वायु बहती रहती है, जो सूर्य की तपन को कम कर देती है। इसीप्रकार पर्यावरण-संरक्षण में इन तीर्थों की एक महत्त्वपूर्ण-भूमिका है। 6. अहिंसा और पर्यावरण : ____ अहिंसा, पर्यावरण के संरक्षण का मूल-आधार है। अहिंसक आचार-संहिता द्वारा, हम संसार के जीवों की रक्षा करके पर्यावरण को पूर्णत: संतुलित रख सकते हैं। अहिंसा जैनधर्म का प्राण है।
श्रावक की भूमिका में भले ही आरंभी, और विरोधी-हिंसा त्याज्य नहीं है; परन्तु वह
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संकल्पी-हिंसा का पूर्णत्यागी होता है। त्रस जीवों की हिंसा का पूर्णत्यागी होकर वह एकेन्द्रिय स्थावर-जीवों जैसे—पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति की भी संकल्पपूर्वक विराधना नहीं करता है। इसीतरह पर्यावरण को संरक्षित करने में श्रावक की एक अहम्भूमिका होती है। 7. शाकाहार और पर्यावरण-संतुलन : ____ शाकाहार और पर्यावरण का चोली-दामन का संबंध है। आचार्य मुनिश्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने कहा है कि "क्रूरताओं की शक्ति का बढ़ना, इस शताब्दी का सबसे बड़ा अभिशाप है। इससे समग्र पर्यावरण प्रदूषित हुआ है और लोक-मन अस्वच्छ हुआ है। युद्ध, रक्तपात, आतंकवाद, लूट-खसोट आदि इस भीषण प्रस्थान-बिन्दु पर जा रहे मनुष्य को सर्वनाश से, एक शाकाहार ही बचा सकता है।"
प्रकृति ने मानव-आहार के लिये अनेक वनस्पति व स्वादिष्ट-पदार्थ उत्पन्न किये हैं। वहीं पशु और पक्षी मानव की सेवा करते हैं। वे एक ओर प्राकृतिक-संतुलन बनाए रखने में सहायक हैं, तो दूसरी ओर मानव का थोड़ा भी प्यार पाकर वफादार बनकर सेवा करते हैं। मांसाहार-हिंसा करता की जमीन से पैदा होनेवाला आहार है। पर्यावरण के प्रदूषित होने की समस्या हिंसा से जुड़ी हुई है, तथा अहिंसा प्रदूषण-मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय है।
मांसाहार-पृथ्वी पर जलाभाव करने को उत्तरदायी है। 'फ्री-प्रेस' इंदौर के अनुसार लगातार मांसाहार के बढ़ने के कारण पश्चिम देशों, विशेषत: उत्तरी-अमेरिका में पानी के दुष्काल की भयावह-स्थिति पैदा हो गई है। प्राप्त आंकड़ों से जहाँ प्रति टन मांस के उत्पादन के लिये लगभग 5 करोड़ लीटर जल की जरूरत होती है। वहाँ प्रति टन चावल व गेहूँ के लिए क्रमश: 45 लाख लीटर व 5 लाख लीटर जल की जरूरत होती है। इसप्रकार अमेरिका में कत्लखानों के कारण पर्यावरण की जो विकट-स्थिति उत्पन्न हो रही है, वह भारत की होने को है। भारत पेट्रोल व विदेशी-मुद्रा के लिए पशुधन को समाप्त करके विदेशी लोगों की आपूर्ति कर रहा है, जिससे देश में लगभग 4800 बड़े कत्लखाने और हजारों छोटे-छोटे कत्लखाने हैं, जो प्रकृति और पर्यावरण के दुश्मन हैं।
दुनिया का कोई जीवधारी नहीं है, जो सिर्फ मांसाहार पर आश्रित हो। उसे प्रत्यक्ष या परोक्ष शरीर के चयापचय के संतुलन के लिये शाकाहार पर निर्भर रहना होता है। यह कुतर्क दिया जाता है कि यदि सारे लोग शाकाहारी हो जावें, तो शाकाहार कम पड़ जायेगा और पशु-पक्षियों की आबादी एक समस्या बन जायेगी। ऐसा सोचना गलत है। एक अर्थशास्त्री माल्थ्स का कहना है कि खाने-पीने की चीजों और जनसंख्या के बीच संतुलन प्रकृति स्वयं बनाए रखती है।
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8. श्रमणाचार एवं पर्यावरण : .. ___जैन-मुनि की जीवनभर के लिये एक स्वीकृत चर्या है, जो पर्यावरण-शुद्धिपरक होती है। साधु के अट्ठाईस मूलगुणों में पाँच महाव्रतों, पाँच समिति, पाँच इंद्रियों के विषयों का निरोध, छह-छह आवश्यक और सात शेष गुण होते हैं। समिति के पालनार्थ वह मौनव्रत (बोलने का संयम) रखता है, जो ध्वनि-प्रदूषण के विसर्सन के लिये है। मल-मूत्र का क्षेपण, निर्जन्तु व एकान्तस्थान में करता है, जो वायु-प्रदूषण के बचाव के लिये है। __ मुनि का अपरिग्रह-महाव्रत प्रकृति से अतिदोहन की प्रवृत्ति पर अंकुश रखने के प्रतीकरूप है, शरीर के स्नानादि-संस्कार नहीं करके जल अपव्यय नहीं होने देता है। दिन में एक बार खड़े होकर शुद्ध सात्त्विक व अयाचित आहार ग्रहण करके मनुष्य की बहुगुणित-अभिलाषा को विराम देने का भाव निहित है; क्योंकि मनुष्य की अनंत इच्छायें ही प्राकृतिक संकटों की जननी हुआ करती हैं। 9. श्रावकचार और पर्यावरण :
श्रावक बारह प्रकार के आचार का पालन करता है। 1. पाँच अणुव्रत-अहिंसाणुव्रत, अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रह परिमाणुव्रत। ये पाँचों अणुव्रत मानव के भीतरी पर्यावरण को शुद्ध करके मन को पवित्र बनाते हैं और इससे. अंतर्जगत् का प्रदूषण दूर बनता है। 2. तीन गुणव्रत हैं— दिग्व्रत/देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत। अनर्थदण्ड के पाँच भेद हैं—अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादाचरित, हिंसादान और अशुभश्रुति। इन गुणव्रतों का अनुशीलन करने से बाह्य-पर्यावरण प्रदूषणरहित बनता है; क्योंकि 'अनर्थदण्ड-व्रत' के अंदर वह ऐसे व्यापार करने की सलाह नहीं देता; जिससे युद्ध की सम्भावना हो या प्राणियों को कष्ट पहुँचे।
अनावश्यक जंगल कटवाना, जमीन खुदवाना, जल प्रदूषित करना- ये प्रमादचरित के अन्तर्गत आता है। विषैली गैस का प्रसार करना या हिंसा के उपकरण देना हिंसादान है। साम्प्रदायिक तनाव, जातीय दंगे आदि को बढ़ानेवाली अशुभ-बातों को सुनना/सुनाना अशुभश्रुति है। इन सभी का श्रावक त्यागी होता है। 3. चार शिक्षाव्रत- सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोगपरिमाण और अतिथिसंविभाग, जीवन को संयमित रखते हैं; जिससे पर्यावरण भी संयमित एवं मर्यादित बना रहता है। 10. उपसंहार :
पर्यावरण-वैज्ञानिक पहलू से जुड़ा है। अस्तु, जैनधर्म की उपर्युक्त समस्त घटनाएँ सीधी या परोक्ष रूप से पर्यावरण से जुड़ी हैं। अत: जैनधर्म का अनुशीलक, पर्यावरण-सन्तुलन का सम्पोषक/समर्थक होता है। विश्व को प्राकृतिक प्रकोपों से छुटकारा दिलाने के लिये विश्वमान्य-सिद्धान्त-अहिंसा व शाकाहार ही है।
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पुस्तक समीक्षा
(1)
पुस्तक का नाम : गुरुवाणी (पूज्य आचार्यश्री विद्यानंद जी मुनिराज के प्रवचनों का मराठी अनुवाद) अनुवादक : श्री धन्यकुमार जैनी प्रकाशक : श्रीमती सरयू दफ्तरी, C/o रत्नत्रय हीट एक्सचेंजर्स, विद्यानगरी मार्ग, कालीना,
___ सांताक्रूज (पूर्व) मुंबई-400098 (महाराष्ट्र) संस्करण : अप्रैल 2000 ई., (डिमाई साईज, पेपरबैक, लगभग 200 पृष्ठ) मूल्य : 55/- रुपये ___ परमपूज्य आचार्यश्री के प्रवचनों के पुस्तकाकार संस्करण कई वर्षों से प्रकाशित होते आ रहे हैं, और समाज में ही नहीं अपितु साधु-संघों में भी इनकी भरपूर माँग रहती है। इसका एक प्रमुख कारण गंभीर से गंभीर विषय को सरल एवं सुबोध भाषाशैली में प्रस्तुत करना तथा समाज को एक प्रासंगिक दृष्टि प्रदान करना है। __ यद्यपि पूज्य आचार्यश्री ने ये प्रवचन हिन्दी-भाषा में दिए थे, तथा एक सिद्धहस्त मनीषी ने इन्हें मराठी-भाषा में अनूदित करके महाराष्ट्र के धर्मानुरागियों के लिए पूज्य आचार्यश्री के भावों को पहुँचाने का महनीय-कार्य गरिमापूर्वक सम्पन्न किया है। एतदर्थ विद्वान्-अनुवादक बधाई के पात्र हैं। ____ सुप्रतिष्ठित उद्योगपति एवं विख्यात समाजसेविका श्रीमती सरयू दफ्तरी जी ने इसका प्रकाशन कराकर न केवल मराठी के जैन-साहित्य को समृद्ध किया है, अपितु पूज्य आचार्यश्री के युगांतरकारी मंगल-संदेशों को महाराष्ट्र की धर्मप्राण जनता तक पहुँचाकर बहुत-उपयोगी समाजसेवा की है। __ यह पुस्तक अपने स्तरीय-प्रकाशन के लिये प्रशंसनीय तो है ही, प्रत्येक मराठीभाषी जैनश्रावकं के लिए संग्रहणीय, पठनीय एवं विचारणीय भी है। –सम्पादक **
(2) पुस्तक का नाम : प्रौढ प्राकृत रचना सौरभ (भाग 1-2) लेखक का नाम : डॉ. कमलचन्द सोगाणी प्रकाशक : अपभ्रंश साहित्य अकादमी, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी (राज.) संस्करण : प्रथम भाग 1999 ई., द्वितीय भाग 2002 ई.
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मूल्य
: प्रथम भाग 100/-, (पैपरबेक, पृष्ठ 246) द्वितीय भाग 80/-, (पैपरबेक, पृष्ठ 96)
प्राकृतभाषा के स्वाध्यायी जिज्ञासुओं के लिए यह प्रकाशन निश्चितरूप से उपयोगी हैं। इसमें अध्यवसायी विद्वान् डॉ. कमलचंद जी सोगाणी की अपनी विशिष्ट दृष्टि और कार्यशैली प्रतिबिम्बित है। यद्यपि प्राकृतभाषा के मूलभूत नियमों की इसमें कहीं-कहीं अनदेखी भी हुई है, यथा— पद के मध्य में हलन्त नकार का प्रयोग होना, प्राकृत के अनुरूप नहीं है। ऐसे स्थलों में अनुस्वार का प्रयोग होना चाहिए था, किन्तु प्रतीत होता है कि प्रत्ययों को दर्शाने के लिए ऐसी असावधानियाँ कुछ हो गई हैं। समग्रतः प्राकृतभाषा के व्याकरणिक नियमों की सूत्रानुसारी जानकारी के लिए यह संस्करण उपयोगी है, और संग्रहणीय भी है ।
-सम्पादक **
(3)
पुस्तक का नाम: मदनजुद्ध काव्य मूल-लेखक
: महाकवि बूचराज
सम्पादन- अनुवाद : डॉ. (श्रीमती) विद्यावती जैन
प्रकाशक
संस्करण
मूल्य
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भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद्
:
: प्रथम 1998 ई.
: उपलब्ध नहीं, पैपरबेक, पृष्ठ 124
अपभ्रंश भाषा प्राकृत एवं हिन्दी के बीच की तह महनीय कड़ी है, जो आधुनिक राष्ट्रभाषा को हमारी प्राच्य - भाषाओं से जोड़ती है, और भारत की भाषिक एवं सांस्कृतिक एकता को निर्धारित करती है ।
अपभ्रंश भाषा के साहित्यकारों में जैन संतों और विद्वानों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । यहाँ तक कि अपभ्रंश भाषा का अधिकांश साहित्य इन्हीं के द्वारा लिखा गया है । 12-13वीं शताब्दी ई. के यशस्वी साहित्यकार महाकवि बूचराज ने लगभग 8 रचनाएँ तथा अनेकों गीत और पद लिखे हैं । इनमें 'मयणजुद्ध कव्व' (मदनयुद्ध काव्य) नामक कृति अपने साहित्यिक गौरव के कारण विद्वज्जगत् में प्रभूत आदरणीय रही है
1
I
विभिन्न ग्रंथ-भण्डारों से इसकी पाण्डुलिपियों का संकलन करके विदुषी सम्पादिका ने भरपूर परिश्रमपूर्वक़ इसका सम्पादन एवं अनुवाद किया है। जैनसमाज में प्राचीन पाण्डुलिपियों के सम्पादक और अनुवादक विद्वान् बहुत कम रह गये हैं, और नई पीढ़ी में यह विधा प्रायः अनुपलब्ध है। इस दृष्टि से विदुषी सम्पादिका का यह कार्य नितान्त आदरणीय, सराहनीय एवं अनुकरणीय है ।
यह पुस्तक प्रत्येक जैन श्रावक-श्राविका एवं विद्यानुरागीजनों के लिए अपने निजी संग्रह में रखने योग्य तथा पठनीय एवं विचारणीय है ।
- सम्पादक **
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पुस्तक का नाम : यशोधरचरितम् मूल-लेखक : भट्टारक-सकलकीर्ति संपादक : डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' . प्रकाशक : सन्मति रिसर्च इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, सदर, नागपुर संस्करण : प्रथम 1988 ई., प्रतियाँ 1100 मूल्य : उपलब्ध नहीं, पक्की जिल्द, पृष्ठ लगभग 184 ___ जैनाचार्यों एवं मनीषियों ने प्राकृत-अपभ्रंश भाषाओं के साथ-साथ संस्कृतभाषा एवं विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में साहित्य-सृजन करके न केवल जैनतत्त्वज्ञान, कथाओं एवं अन्य बहुआयामी ज्ञान-विज्ञान का व्यापक प्रचार-प्रसार किया है; अपितु उन भाषाओं के साहित्य को भी समृद्ध किया है।
14वीं शताब्दी ई. के प्रसिद्ध विद्वान् भट्टारक सकलकीर्ति संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी —इन तीनों भाषाओं के अधिकारी विद्वान् थे, तथा आपने कुल अड़तीस रचनाएँ लिखी हैं, जिनमें से 30 रचनाएँ केवल संस्कृतभाषा में ही निबद्ध हैं। 'यशोधरचरितम्' उनकी एक संस्कृतभाषा निबद्ध महत्त्वपूर्ण रचना है।
विभिन्न ग्रन्थ-भण्डारों में उपलब्ध इसकी पाण्डुलिपियों का तुलनात्मक पाठ-सम्पादन कर विद्वान् सम्पादक ने इसका प्रकाशन किया है। इसमें प्रारम्भ में ग्रंथ का कथासार लगभग अनुवाद-शैली में दिया गया है, तथा बाद में ग्रंथ का मूलपाठ सम्पादित करके प्रकाशित कराया है। ___ यह पुस्तक अपने स्तरीय प्रकाशन के लिये प्रशंसनीय, पठनीय एवं विचारणीय है।
–सम्पादक ** प्राकृतभाषा गामे गामे णयरे णयरे, विलसदु पागदभासा।
सदणे सदणे जण-जण-वदणे, जयदु चिरं जणभासा।। अर्थ :- यह प्राकृतभाषा ग्राम-ग्राम में और नगर-नगर में विलसित होती रहे। यह जनभाषा घर-घर में ही नहीं, अपितु जन-जन के मुख में भी चिरकाल तक जयवन्त रहे।
आतंकवादी सस्सो य भरधगामस्स, सत्तसंवच्छराणि णिस्सेसो।
दड्ढा डंभणदोसेण, कुम्भकारेण रूढेण ।। अर्थ :- मायाचार के दोष से रुष्ट हुए कुम्भकार ने 'भरत' नामक गांव का धान्य सात वर्ष तक पूर्ण रूप से जलाया था।
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आभमत
0 'प्राकृतविद्या' का जुलाई-सितम्बर '02 का अंक अपनी अर्जित सर्वतोमुखी प्रसिद्धि के अनुरूप है। इसकी आत्मा में आप अद्भुत ऊर्जा भरते हैं, हार्दिक बधाई। नवता और भव्यता सम्मान्य है ही। प्रोज्ज्वल प्रतिभा और दिव्य श्रम का सातत्य उम्र के मुँहताज नहीं होते। आपको संस्थागत एवं राष्ट्रीयता सम्मानों से विभूषित देख यह तथ्य और भी चरितार्थ होता है। शंकराचार्य, आंग्ल कवि कीट और शैले जवानी की चौखट पर ही चल बसे थे, पर उनकी प्रतिभा ने उन्हें दिक्कालजयी बना दिया। आप साम्प्रदायिक संकीर्णता से परे रहकर ही कार्य करते हैं, यह पुनः स्पृहणीय अर्हता है। शत वसन्त लगें आपको। दिल्ली के श्यामपक्ष से परे रहकर आप जमें, यह पुनः स्मर्तव्य है। -डॉ. रवीन्द्र कुमार जैन, मद्रास **
© 'प्राकृतविद्या' का जनवरी-जून '02 का अंक मिला। आभारी हूँ। आवरण-पृष्ठ पर भगवान् महावीर की दिव्य-प्रतिमा के चित्र ने इसे नयनाभिराम बना दिया है। सारी सामग्री पठनीय, मननीय एवं संग्रहणीय है। भारतीय आस्था के स्वर 'जन-गण-मन' के द्वारा एक नई जानकारी मिली है, आभार। अभी तक मैं भी यही समझता था कि यह गीत गुरुदेव ने जार्ज पंचम के सम्मुख गाया था। इतनी महत्त्वपूर्ण शोधपरक सामग्री के उच्चस्तरीय सम्पादनपूर्वक प्रस्तुतीकरण की गरिमा 'प्राकृतविद्या' के अलावा अन्य किसी जैन-पत्रिका में दृष्टिगोचर नहीं होती। आपके अथक श्रम एवं प्रतिभा का नितनूतन उत्कर्ष 'प्राकृतविद्या' के अंकों में निरन्तर वृद्धिंगत होता परिलक्षित होता है। हार्दिक अभिनन्दन।
___-अरुण कुमार जैन, वरिष्ठ अभियंता, भुवनेश्वर (उड़ीसा) ** 0 प्राकृतविद्या' के अंक बहुत सुचारित खोजपूर्ण एवम् ज्ञानपूर्ण लेखों से प्रकाशित होकर बराबर प्राप्त हो रहे हैं, उसके लिए आपको धन्यवाद । आप एवम् आपकी यह पत्रिका निरन्तर उन्नति करती रहे, ऐसी मंगल भावना रखता हूँ।
__-रूपचन्द कटारिया, रानी बाग, नई दिल्ली ** 0 'प्राकृतविद्या' का जुलाई-सितम्बर 2002 का अंक मिला। आवरण-पृष्ठ पर मुद्रित जैनसमाज के गौरव महापुरुषों के चित्र देखकर हृदय पुलकित हो गया। साथ ही ऐसे सुसमृद्ध व्यक्ति कितने धर्मपरायण और धर्मप्रभावक थे? —यह जानकर विशेष प्रसन्नता हुई। अंक में प्रकाशित सभी आलेख गहन शोधपूर्ण एवम् मननीय हैं, ऐसी उत्कृष्ट सामग्री के लिए हार्दिक साधुवाद। -पं. प्रकाश चन्द्र जैन ज्योतिर्विद, मैनपुरी (उ.प्र.) **
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सुप्रीम कोर्ट ने कहा- सरकारी सहायता वाले संस्थानों में
गैर-अल्पसंख्यकों को भी दाखिला मिले अल्पसंख्यकों को शिक्षा-संस्थान खोलने की
मनमानी की नहीं
नई दिल्ली, 31 अक्तूबर । सुप्रीम कोर्ट ने ने कहा है कि धार्मिक व भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शिक्षा-संस्थान स्थापित करने का पूरा संवैधानिक अधिकार है। लेकिन उनके संचालन में वे मनमानी नहीं कर सकते। ऐसी संस्था जो सरकारी सहायता भी न लेती हो, तब भी शैक्षिक उत्कृष्टता के लिए सरकार उनके लिए नियम बना सकती है। सरकारी सहायता न लेने वाली अल्पसंख्यक संस्थाओं—स्कूल आदि में प्रवेश-प्रक्रिया पर सरकार नियंत्रण नहीं कर सकती, पर व्यावसायिक शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश में पारदर्शिता सुनिश्चित
करने के लिए सरकार जरूरी निर्देश दे सकती है। - मुख्य न्यायाधीश बी.एन. किरपाल की अध्यक्षता वाली 11 जजों की संविधान पीठ ने यह अहम व्यवस्था गुरुवार को सेंट स्टीफेंस कालेज विवाद व सैकड़ों दूसरे मामलों का निपटारा करते हुए दी। अदालत ने कहा है कि सरकारी सहायता से चलने वाली अल्पसंख्यक शिक्षा-संस्थाएं प्रबंधन के मामले में सरकारी नियमों और निर्देशों की अनदेखी नहीं कर सकतीं। ये नियम-व्यवस्था में पारदर्शिता और स्तर की गुणवत्ता के मद्देनजर जरूरी हैं। अदालत ने कहा कि अल्पसंख्यक संस्थाएँ अनुच्छेद 30 (1) के तहत अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते वक्त अनुच्छेद 29 (2) के प्रावधानों का भी पालन करेंगी। जिनमें व्यवस्था है कि जाति, नस्ल और भाषा के आधार पर कोई भेदभाव नहीं हो सकता। इस मामले में एक पहलू पर जजों के बीच मतभेद थे। मुख्य न्यायाधीश बी.एन. किरपाल, न्यायमूर्ति के.जी. बालकृष्णन, न्यायमूर्ति जी.बी. पटनायक, न्यायमूर्ति राजेंद्र बाबू, न्यायमूर्ति पी.वी. रेड्डी व न्यायमूर्ति अरिजित पसायत इस राय के थे कि सरकारी सहायता नहीं लेने वाली अल्पसंख्यक संस्थाओं को भी प्रवेश में मनमानी का अधिकार नहीं मिल सकता। जबकि न्यायमूर्ति एस.एन. वरियावा, न्यायमूर्ति वी.एन. खरे, न्यायमूर्ति एस.एस.एम. कादरी, न्यायमूर्ति रूमा पाल व न्यायमूर्ति अशोक भान इस मुद्दे पर अलग राय के थे कि सहायता न लेने वाली अल्पसंख्यक संस्थाओं के लिए भी सरकार प्रवेश व नियुक्ति के नियम बना सकती है। 11 जजों की संविधान पीठ ने उन्नीकृष्णन मामले में सुप्रीम कोर्ट की तरफ से
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प्रतिपादित व्यवस्था को उलट दिया और कहा कि अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थाएँ भी प्रवेश की आड़ में छात्रों से कैपिटेशन फीस वसूल नहीं कर सकतीं। ____ अल्पसंख्यक शब्द की व्याख्या का प्रकरण सुप्रीम कोर्ट में काफी समय से विचाराधीन था। मूल विवाद दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कालेज में ईसाई छात्रों को प्रवेश में वरीयता देने के प्रकरण में शुरु हुआ था। मगर बाद में देश भर की दूसरी सैकड़ों याचिकाएँ भी इसी विवाद से जुड़ गई। सुप्रीम कोर्ट के पहले के निर्णय नौ जजों की संविधान पीठ के थे, सो संवैधानिक प्रावधानों की नए सिरे से व्याख्या के लिए 11 जजों वाली बड़ी संविधान पीठ बनी। मुख्य न्यायाधीश बी.एन. किरपाल के साथ इसमें न्यायमूर्ति जी.बी. पटनायक, न्यायमूर्ति वी.एन. खरे, न्यायमूर्ति एस. राजेंद्र बाबू, न्यायमूर्ति एस.एस.एस.एम. कादरी, न्यायमूर्ति रुमा पाल, न्यायमूर्ति पी.वी. रेड्डी, न्यायमूर्ति अशोक भान, न्यायमूर्ति एस.एन. वरियावा, न्यायमूर्ति के.जी. बालकृष्णन और न्यायमूर्ति अरिजित पसायत थे। __ अदालत ने व्यवस्था दी कि अल्पसंख्यक वर्ग को अपनी पसंद की शिक्षा संस्थाएं स्थापित करने का मौलिक अधिकार तो है मगर ऐसी संस्था अगर सरकार से आर्थिक सहायता लेती है, तो सरकार उसके प्रबंधन की निगरानी कर सकती है। सरकारी सहायता से चलने वाली 'अल्पसंख्यक शिक्षा-संस्था न तो प्रवेश में मनमानी कर सकती है और न सरकारी नियम-कानूनों से ऊपर मानी जा सकती है। पर जो अल्पसंख्यक संस्था सरकार से सहायता नहीं लेती, उसके प्रबंधन में सरकार या विश्वविद्यालय को न्यूनतम हस्तक्षेप करना चाहिए। पर ऐसी संस्थाएँ भी छात्रों के प्रवेश में पारदर्शिता बरतेंगी। अल्पसंख्यक वर्ग के छात्रों को प्रवेश में वरीयता देने की उन्हें छूट होगी पर कोई कसौटी उन्हें भी तय करनी ही होगी।
संविधान पीठ ने अनुच्छेद 30 (1) को अनुच्छेद 29 (2) के साथ जोड़कर व्याख्या की। अनुच्छेद 29 (2) में प्रावधान है कि किसी के साथ जाति, नस्ल या भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। अल्पसंख्यक कौन है? इस सवाल की अदालत ने कोई नई व्याख्या नहीं की। अलबत्ता साफ किया कि राज्यों का पुर्नगठन भाषा के आधार पर हुआ था। अल्पसंख्यक धार्मिक और भाषाई दोनों आधार पर हो सकते हैं। पर किस राज्य में कौन इस श्रेणी में आएगा, यह राज्य के हिसाब से सरकार तय करेगी।
सरकारी सहायता न लेने वाली अल्पसंख्यक शिक्षा-संस्थाओं को भी सर्वोच्च अदालत ने दो श्रेणियों में रखा है। एक जो पारंपरिक शिक्षा प्रदान करती है। उनमें प्रवेश प्रबंधन अपनी व्यवस्था से कर सकता है, मगर उसमें पारदर्शिता होनी चाहिए। दूसरे श्रेणी में व्यावसायिक शिक्षा देने वाली संस्थाएँ आएंगी जहाँ प्रवेश पूरी तरह प्रतिभा के आधार पर होंगे जिसके लिए राज्य सरकार या विश्वविद्यालय संयुक्त-प्रवेश-परीक्षा आयोजित करने को अधिकृत होंगे।
सरकारी सहायता न लेने वाली अल्पसंख्यक-संस्थाएँ अपने वर्ग के छात्रों को प्रवेश में वरीयता दे सकती हैं पर उन्हें कुछ छात्र तो दूसरे वर्गों के भी लेने पड़ेंगे। दोनों में क्या
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अनुपात होगा, इसका फैसला राज्य सरकार आबादी के अनुपात और क्षेत्रीय - परिस्थितियों के आधार पर कर सकती है । अल्पसंख्यक छात्रों की कुल संख्या को भी फैसला करते वक्त ध्यान में रखना होगा ।
अल्पसंख्यक शिक्षा-संस्थाएँ अगर सरकार से आर्थिक सहायता नहीं लेतीं, तो स्टॉफ के बारे में अनुशासन-संबंधी नियम भी प्रबंधन बना सकता है। लेकिन शिक्षकों व प्रिंसिपल आदि की नियुक्ति करते वक्त ऐसा प्रबंधन राज्य सरकार के नियमों को मानेगा ।
कहा जा रहा है कि संविधान पीठ का फैसला शिक्षा क्षेत्र में 'मील का पत्थर' साबित होगा और सेवा की आड़ में मनमानी व मुनाफाखोरी करने की प्रवृत्ति पर अब प्रभावी अंकुश लगेगा। लेकिन जो अल्पसंख्यक - संस्थाएँ पारदर्शिता का ख्याल करेंगी उन्हें अपनी विशिष्टपहचान बरकरार रखने का पूरा अधिकार मिल गया है
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- ( 'जनसत्ता', पृ. 1 और 13, दिनांक 1.11.2002)
इक्ष्वाकुवंशी तीर्थंकर ऋषभदेव 'प्रथम ही तीर्थंकर रूप परमेश्वर कौ, वंश ही इक्ष्वाकु - अवतंस ही कहायौ है । वृषभ लाञ्छन पग धोरी रहे धींग जावे, धन्य मरुदेवी ताकी कुक्षी में आयौ है । रांजऋद्धि छोर करि भिच्छाचर भेस भये समता सन्तोष ग्यान केवल ही पायो है ।
नाभिरायजू को नन्द नमै उदय कहत गिरि शत्रुंजै
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सुर-नर-वृन्द, है ।।'
सुहायो
- ( चौबीस जिन सवैया, 1 )
अर्थ : • भगवान् श्रीवृषभदेव प्रथम तीर्थंकर हैं। वह परमेश्वर के साक्षात् रूप हैं । भगवान् इक्ष्वाकुवंशी हैं। यह इक्ष्वाकु नाम समस्त लोकविश्रुत वंशावली में अलंकारभूत है । भगवान् चरण-तल में वृषभ का चिह्न शोभायमान है। माता मरुदेवी धन्य हैं, जिनकी कुक्षि में (गर्भ में) आदि जिनपरमेष्ठी ने निवास किया है। उन्होंने राजकीय लौकिक समृद्धि-सम्पदा का परित्याग कर स्वेच्छा से भिक्षाजीवी वेष को ( मुनिवृत्ति को ) धारण किया है। समता, सन्तोष और केवलज्ञान भगवान् ने प्राप्त किये हैं । श्री ऋषभदेव श्रीनाभिराय के नन्दन हैं— आनन्दवर्धन हैं, उन्हें सुर, नर नमस्कार करते हैं। श्रीशत्रुंजय तीर्थ शैल पर निवास करते हुए उदय नामक सुकवि ने भगवान् की स्तुति में यह पद्य लिखा है।
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समाचार-दर्शन
दक्षिण भारत जैन सभा का शताब्दी-समारोह सम्पन्न भारतवर्ष की प्रमुख जैन संस्था 'दक्षिण भारत जैन सभा' का शताब्दी-समारोह श्री कुन्दकुन्द भारती के भव्य प्रांगण में दिनांक 22 दिसम्बर 2002 को अत्यन्त गरिमापूर्वक सम्पन्न हुआ। इस समारोह में परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने जैनसमाज के महापुरुषों की यशोगाथा संक्षेप में बताते हुए यह स्पष्ट किया कि बीसवीं शताब्दी में किन-किन महापुरुषों ने जैनसमाज और परम्परा की रक्षा की, तथा कैसे-कैसे इसे आगे बढ़ाया। उन्होंने वर्तमान परिस्थितियों में समाज के नेतृत्व को आपसी मतभेद भुलाकर जैनधर्म के प्रचार-प्रसार के लिए तथा समाज को इतिहास के अनुरूप गौरवपूर्ण स्थान दिलाने के लिए मिलजुल कर संगठित प्रयास करने पर जोर दिया। ____ इस समारोह में 'दि रत्नाकर बैंक लि.' के अध्यक्ष डॉ. अन्नासाहब चोपड़े ने भगवान् महावीर के 2600वें जन्मकल्याणक-वर्ष के निमित्त दक्षिण भारत जैनसभा' द्वारा निर्मित की गई 'स्वणविष्टित' एवं 'रजतमयी' भव्य-मुद्राओं का लोकार्पण किया, और रत्नाकर बैंक द्वारा तथा व्यक्तिगत रूप से भी जनहितकारी कार्यों के प्रति समर्पण का संकल्प दोहराया।
. समारोह की अध्यक्षता करते हुए ‘अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी' के अध्यक्ष साहूश्री रमेश चन्द्र जैन ने कहा कि पूज्य आचार्यश्री के पावन सान्निध्य में विगत पचास से भी अधिक वर्षों से यह समाज उन्नति के नए आयाम विकसित करता रहा है, और ऐसे पावन संतों से ही समाज को नई दिशा मिल सकती है।
समारोह में पधारे हुए महानुभावों का भावभीना स्वागत दक्षिण भारत जैनसभा' के वर्तमान अध्यक्ष श्री आर.के. जैन ने किया। तथा कृतज्ञता-ज्ञापन दक्षिण भारत जैनसभा की पूर्व अध्यक्ष धर्मानुरागिणी श्रीमती सरयू दफ्तरी ने किया। स्वागताध्यक्ष श्री चक्रेश जैन बिजलीवालों ने स्वागत-भाषण प्रस्तुत किया, तथा दक्षिण भारत जैनसभा के पदाधिकारियों एवं सदस्यों ने अतिथियों का माल्यार्पण एवं शॉल-समर्पण से अभिनन्दन किया। - सभा के प्रारंभ में श्रीमती शालिनी जैन एवं श्री अरविन्द मुखेडकर के मंगल-भजन हुए, तथा डॉ. वीरसागर जैन ने मंगलाचरण किया। समारोह का गरिमापूर्ण संयोजन एवं संचालन डॉ. सुदीप जैन ने किया। इस कार्यक्रम में दक्षिण भारत जैन सभा' के सदस्यगण तथा दिल्ली जैनसमाज के धर्मानुरागी भाई-बहिन बड़ी संख्या में उपस्थित थे।–सम्पादक **
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साहू रमेशचन्द्र जी जैन 'मास कम्यूनिकेशन' के अध्यक्ष बने सम्पूर्ण दिगम्बर जैनसमाज के सर्वमान्य नेता तथा 'अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी', 'अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद्', 'कुन्दकुन्द भारती न्यास' आदि संस्थानों के अध्यक्ष. 'भारतीय ज्ञानपीठ' एवं 'साहू जैन ट्रस्ट' के प्रबंध-न्यासी धर्मानुरागी साहू श्री रमेशचन्द्र जी जैन को विश्वस्तरीय संचार माध्यम एवं सूचना प्रौद्योगिकी के प्रमुख संस्थान 'मास कम्यूनिकेशन' का मानद अध्यक्ष मनोनीत किया गया है। उनका कार्यकाल आगामी दो वर्ष तक रहेगा। यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सम्मान है, और आदरणीय साहू जी को यह गौरव प्राप्त होने पर देशभर के विभिन्न संस्थाओं के प्रतिनिधियों एवं समाज के गणमान्य लोगों ने हार्दिक बधाई और अभिनन्दन की भावनाएँ प्रेषित की हैं। कुन्दकुन्द भारती प्रांगण में भी दक्षिण भारत जैन सभा' के 'शताब्दी-समारोह' में इस निमित्त साहू जी का विशेषत: अभिनन्दन किया गया। ___कुन्दकुन्द भारती न्यास एवं प्राकृतविद्या-परिवार की ओर से आदरणीय साहू रमेशचन्द्र जी को इस शुभ-प्रसंग पर हार्दिक अभिनन्दन के साथ उनके सुदीर्घ यशस्वी एवं स्वस्थ जीवन के लिए हार्दिक मंगलकामनाएँ समर्पित हैं।
–सम्पादक ** प्रो. राजाराम जी य.जी.सी. की समिति के सदस्य मनोनीत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) नई दिल्ली ने 'राष्ट्रपति द्विसहस्राब्दी पुरस्कार सम्मान' से सम्मानित तथा प्राकृतविद्या' के प्रधान सम्पादक, कुन्दकुन्द भारती के मानद-निदेशक प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन, आरा (बिहार) को अपनी विजिटिंग कमेटी का सदस्य मनोनीत किया है। यह समिति लखनऊ विश्वविद्यालय तथा कुन्द अन्य विश्वविद्यालयों की नवमी पंचवर्षीय योजना की समीक्षा करेगी तथा दसवीं पंचवर्षीय योजना के लिए विश्वविद्यालय के विभिन्न प्रारूपों का आकलन कर यू.जी.सी. को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी। ___ संभवत: यह प्रथम अवसर है जब उक्त कमीशन ने जैनसमाज के किसी विद्वान् को अपनी उक्त अति महत्त्वपूर्ण कमेटी का सदस्य मनोनीत किया है। इस गौरवपूर्ण उपलब्धि के लिए डॉ. जैन का हार्दिक अभिनंदन ।
–सम्पादक ** 'अणुव्रत पुरस्कार' की धनराशि कुन्दकुन्द भारती में समर्पित नैतिकता एवं अहिंसा के उत्तम विचारों का जीवन भर प्रचार-प्रसार करने के फलस्वरूप इस वर्ष का अणुव्रत पुरस्कार वरिष्ठ साहित्यकार पद्मश्री यशपाल जैन को घोषित किया गया; परन्तु उनके परिजनों के अनुसार वे इस सम्बन्ध में बड़े नि:स्पृह थे और जैनदर्शन के शोधपूर्ण अध्ययन को बहुत अधिक बढ़ावा देना चाहते थे, जिसकी चर्चा वे बारम्बार परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज से मिलकर करते रहते थे; अत: उन्होंने उक्त पुरस्कार की सम्पूर्ण धनराशि 1,21,000 रुपये कुन्दकुन्द भारती शोध-संस्थान में शोधपरक गतिविधियों के संचालनार्थ समर्पित कर दी।
उक्त धनराशि का चैक महामहिम उपराष्ट्रपति के करकमलों से दिनांक 8 दिसम्बर को
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उनके निवास पर आयोजित यशपाल जी कृति 'अन्तर्दृष्टि' के लोकार्पण समारोह में कुन्दकुन्द भारती के विद्वान् डॉ. वीरसागर जैन ने प्राप्त किया। डॉ. वीरसागर जैन ने इस समारोह में यशपाल जी के उत्कृष्ट-लेखन का गुणानुवाद करते हुए कुन्दकुन्द भारती के नवनिर्मित-पुस्तकालय का परिचय दिया और प्राप्त धनराशि के लिए हार्दिक कृतज्ञता भी प्रकट की।
–प्रभात जैन ** 'अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन' का 41वाँ सत्र पुरी में आयोजित
पूना (महाराष्ट्र) के सुप्रतिष्ठित संस्थान 'भण्डारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' के द्वारा आयोजित होनेवाला 'अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन' इस बार उड़ीसा के पवित्र नगर 'पुरी' में गरिमापूर्वक आयोजित हुआ। यह इस सम्मेलन का 41वाँ सत्र था। इसके 'प्राकृत एवं जैनविद्या' वर्ग में देशभर के 50 से अधिक प्रतिष्ठित विद्वान् सम्मिलित हुए। इस सत्र की अध्यक्षता आरा (बिहार) के डॉ. रामजी राय ने की। दिल्ली से इसमें डॉ. सुदीप जैन के नेतृत्व में कुल चार विद्वानों (प्रो. शशिप्रभा जैन, श्रीमती रंजना जैन, प्रभात कुमार दास, श्रीमती. मंजूषा सेठी) ने अपने गरिमापूर्ण शोधपत्र प्रस्तुत किये, जिन्हें समागत मनीषियों ने मुक्तकंठ से सराहा।
उड़ीसा की जैनसमाज के विशेष अनुरोध पर दिनांक 15-12-2002 का अपराह्नकालीन सत्र 'खण्डगिरि-उदयगिरि' क्षेत्र पर आयोजित किया गया। इस निमित्त एक चार्टर्ड बस द्वारा सभी विद्वान् ‘पुरी' से यहाँ पधारे, तथा उन्होंने हाथीगुम्फा का ऐतिहासिक खारवेल-शिलालेख देखा, और उसका विस्तृत परिचय डॉ. सुदीप जैन से प्राप्त किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने रानीगुफा आदि अनेकों पुरातात्त्विक महत्त्व के श्रमण-संस्कृति के पुरावशेषों का अवलोकन किया, और खण्डगिरि पर स्थित जैन-मंदिरों और प्राचीन गुफाओं का भी दर्शन किया। इसके बाद उड़ीसा जैनसमाज द्वारा आयोजित विशेष-समारोह में उन्होंने उड़ीसा में जैन-संस्कृति के विविध आयामों पर अपने गवेषणापूर्ण विचार व्यक्त किये। क्षेत्र के मंत्री श्री शांति कुमार जैन ने समागत विद्वानों का तिलक, उत्तरीय-समर्पण एवं साहित्य-भेंटपूर्वक भावभीना स्वागत किया। तथा सत्र का संचालन श्री अरुण कुमार जैन, इंजीनियर ने किया। इस सत्र में समागत विद्वानों ने दो महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव भी पास किए. जिनमें प्रथम प्रस्ताव के अंतर्गत खण्डगिरि पर्वत पर स्थित गुफाओं में जो जिनबिम्ब उत्कीर्णित हैं, वे दिगम्बर जैन-परम्परा के हैं —यह पुष्ट करते हुए उड़ीसा सरकार एवं पुरातत्त्व विभाग से वहाँ पर हुए अतिक्रमण को शीघ्र हटाने और वहाँ की सांस्कृतिक गरिमा बनाने की माँग की। तथा द्वितीय प्रस्ताव के अंतर्गत सभी विद्वानों ने एक स्वर से भगवान् महावीर की जन्मभूमि वैशाली कुण्डलपुर' या 'विदेह कुण्डपुर' ही है, -इसे अपनी स्वीकृति प्रदान की। कार्यक्रम में कटक एवं भुवनेश्वर आदि की जैनसमाज के पदाधिकारी एवं कार्यकर्तागण भी बड़ी संख्या में उपस्थित रहे। –सम्पादक **
डॉ. भारिल्ल 'महामहोपाध्याय' के विरुद से विभूषित भारतीय विद्याभवन, चौपाटी के खचाखच भरे विशाल हॉल में आयोजित समारोह में
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वाणीविभूषण, आध्यात्मिक तत्त्वज्ञानी, जैनरत्न, अध्यात्मदिवाकर, विद्यावाचस्पति, परमागमविशारद, अध्यात्म शिरोमणि आदि अनेकानेक उपाधियों से विभूषित तत्त्ववेत्ता डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल को अध्यात्म स्टडी सर्किल, मुम्बई द्वारा महामहोपाध्याय की उपाधि से विभूषित किया गया है। अध्यात्म स्टडी सर्किल दिगम्बर-श्वेताम्बर आदि सभी जैनों में अध्यात्म का प्रचार-प्रसार करनेवाली बहुचर्चित संस्था है। डॉ. भारिल्ल विगत बीस वर्ष से इस संस्था से जुड़े हुये हैं और उनका सहयोग इसके जन्म से ही लगातार इसे प्राप्त हो रहा है।
डॉ. भारिल्ल के प्रवचनों का आकर्षण ही एक ऐसा आकर्षण है; जो संस्था को दिन-दूनी रात चौगुनी प्रगति दिला रहा है।
–सम्पादक ** प्राकृत-मनीषी प्रो. सत्यरंजन बनर्जी को राष्ट्रपति-सम्मान प्राच्य भारतीय भाषाओं के विशेषज्ञ तथा प्राकृतभाषा एवं जैनविद्या के क्षेत्र में कई दशकों से समर्पित रूप से कार्य करनेवाले विश्वविख्यात यशस्वी विद्वान् प्रो. सत्यरंजन बनर्जी को वर्ष 2002 का राष्ट्रपति-सम्मान घोषित किया गया है। उन्हें यह सम्मान पालिभाषा के क्षेत्र में कार्य करने के लिए दिया गया है।
प्रो. बनर्जी 'जैन जर्नल' नामक प्रतिष्ठित शोध-पत्रिका के कई वर्षों से सम्पादक हैं, तथा कलकत्ता. दिल्ली एवं लाडनूं आदि अनेंको स्थानों पर प्राकृतभाषा और साहित्य के समुन्नयन के लिए समर्पित भाव से पिछले कई दशकों से काम कर रहे हैं।
प्राकृतविद्या-परिवार उनकी इस अभूतपूर्व उपलब्धि के लिए उनका हार्दिक अभिनंदन करता है, और उनकी दीर्घायु एवं अच्छे स्वास्थ्य के साथ अनवरत साहित्य-सेवा के लिए अपनी मंगलकामनाएँ सादर समर्पित करता है।
–सम्पादक ** श्रीकृष्ण सेमवाल को राष्ट्रपति-सम्मान 2002 दिल्ली संस्कृत-अकादमी के सचिव तथा राजधानी में पिछले कई दशकों से संस्कृतभाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित मनीषी डॉ. श्रीकृष्ण सेमवाल जी को वर्ष 2002 का संस्कृतभाषा-विषयक राष्ट्रपति-पुरस्कार' घोषित हुआ है। भारतीय भाषाओं के इन विशिष्ट मनीषी एवं समर्पित समाजसेवी को यह पुरस्कार निश्चय ही महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है, और उनकी इस उपलब्धि से समस्त भारतीय भाषाप्रेमी गौरवान्वित हैं।
प्राकृतविद्या-परिवार उनकी इस अभूतपूर्व उपलब्धि के लिए उनका हार्दिक अभिनंदन करता है, और उनकी दीर्घायु एवं अच्छे स्वास्थ्य के साथ अनवरत साहित्य-सेवा के लिए अपनी मंगलकामनाएँ सादर समर्पित करता है।
____सम्पादक ** श्री राजेन्द्र जैन को राज्य-सम्मान तिलकवाड़ी बेलगाम (कर्नाटक) के सुप्रतिष्ठित नागरिक श्री राजेन्द्र जैन को बालदिवस के अवसर पर बाल कल्याण के क्षेत्र में उनकी उल्लेखनीय सेवाओं को दृष्टिगत रखते हुए कर्नाटक राज्य सरकार ने उन्हें सम्मानित किया है। 14 नवम्बर 2002 को बंगलौर में आयोजित एक राजकीय समारोह में महामहिम राज्यपाल श्री टी.एन. चतुर्वेदी जी ने उन्हें
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श्री राजेन्द्र जैन को सम्मानित करते हुये कर्नाटक के राज्यपाल श्री टी.एन. चतुर्वेदी यह सम्मान शॉल, श्रीफल, पुष्प-स्तबक, मानद-राशि एवं प्रशस्ति-पत्र के साथ समर्पित किया। ज्ञातव्य है कि श्री राजेन्द्र जैन ने बेलगाम और उसके आसपास के जिलों में हजारों उपेक्षित और पिछड़े वर्ग के बच्चों के उत्थान के लिए बहुआयामी कार्य किये हैं।
–सम्पादक ** विद्वत्परिषद् द्वारा मंगलतीर्थ-यात्रा का द्वितीय चरण प्रात: स्मरणीय पं. गणेशप्रसादजी वर्णी द्वारा स्थापित श्री अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् इस वर्ष 22 से 30 दिसम्बर तक बुन्देलखण्ड की मंगल तीर्थयात्रा का सफल आयोजन करने जा रही है। स्मरण रहे कि दिसम्बर 2001 में आयोजित दक्षिण भारत की मंगल तीर्थयात्रा आज भी विद्वत्वर्ग के मानसपटल पर अंकित है। अब यह बन्देलखण्ड की यात्रा इसके द्वितीय चरण के रूप में अविस्मरणीय रहेगी। कार्यक्रम को अन्तिमरूप दिया जा रहा है। विद्वत्परिषद् के जो सदस्य महानुभाव इस यात्रा का लाभ लेना चाहें वे तत्काल सम्पर्क करें।
-अखिल बंसल, दुर्गापुरा, जयपुर ** एन.सी.ई.आर.टी. की इतिहास-सम्बन्धी पुस्तकों में संशोधन राष्ट्रिय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् द्वारा प्रकाशित इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में जैनधर्म-दर्शन के महापुरुषों तथा भारतीय संस्कृति के अन्य महापुरुषों के बारे में जो अनर्गल तथा तथ्यरहित बातें प्रकाशित थीं, उन्हें संशोधित एवं परिमार्जित कर तथ्यपूर्ण रीति से सम्मान्य शब्दावलि में नये सिरे से निर्मित कर प्रकाशित किया गया है। ____ इस सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों- 1. न्यायमूर्ति एम.बी. शाह, 2. न्यायमूर्ति डी.एस. धर्माधिकारी एवं 3. न्यायमूर्ति एच.के. सेमा ने एक स्वर से बच्चों को संस्कृति के महापुरुषों एवं भारतीय धर्म-दर्शन के उदात्त विचारों को सिखाने की अनिवार्यता पर बल देते हुए इन पुस्तकों के प्रकाशन का मार्ग प्रशस्त किया है।
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एन.सी.ई.आर.टी. के निदेशक प्रो. राजपूत जी ने बड़े ही सन्तुलन, सूझबूझ एवं दूरदर्शितापूर्ण नीति से यह कार्य सम्पन्न कराया है तथा यह प्रक्रिया आगे निरन्तर चालू रखने की प्रतिबद्धता भी व्यक्त की है।
भाषाओं को बचाने का विश्व-अभियान भारत को शुरु करना चाहिए
नई दिल्ली, 29 अक्तूबर, जनसत्ता। भाषाएँ इस समय संकट में हैं। इसलिए जैसे पर्यावरण को बचाने के लिए विश्व अभियान सफलतापूर्वक चला है, वैसे ही मनुष्य की विविधता को सुनिश्चित करने के लिए भाषाओं को बचाने का एक विश्व-अभियान भी भारत को शुरू करना चाहिए। यह बात आज यहाँ महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति अशोक वाजपेयी ने कही। वे 21वीं सदी की वास्तविकता: भाषा, संस्कृति और टेक्नोलॉजी' विषय पर तीन दिवसीय सेमिनार के उद्घाटन के अवसर पर बोल रहे थे। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हो रहे इस सेमिनार का आयोजन ‘महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय' और केन्द्रीय भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर' द्वारा साझा तौर पर किया गया है। - अपने स्वागत वक्तव्य में उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि भाषा का सच्चाई से क्या संबंध है। उन्होंने कहा कि भाषा सच्चाई पर हमारी पकड़ का सबसे विश्वसनीय माध्यम है। जो भाषा में सच नहीं है उसे अन्यथा सच मानने में कठिनाई होती है। भाषा सच्चाई को सिर्फ प्रकट ही नहीं करती बल्कि उसको बदलती और उसमें हमारी शिरकत को सुनिश्चित करती है। उद्घाटन समारोह के दौरान शैलेंद्र कुमार सिंह और एन.एच. इटैगी द्वारा संपादित पुस्तक 'लिंग्विस्टिक लैंडस्केपिंग इन इंडिया' का लोकार्पण प्रो. जी.एन. देवी ने किया।
पहले सत्र में हैदराबाद विश्वविद्यालय के प्रो. प्रोबल दासगुप्ता ने अपने वक्तव्य में कहा कि भारतीय भाषाओं के भविष्य को प्रभावित करनेवाली निर्णायक गतिविधियाँ अब ज्यादातर अंग्रेजी केंद्रित भारतीयों के बीच हो रही हैं. जिनके जीवन और कार्यों का भारतीय भाषाओं पर गहरा असर है। एक मरती हुई भाषा के रूप में त्रिनिडाड-भोजपुरी पर अपने अध्ययन के अनुभव का उल्लेख करते हुए पैगी मोहन ने कहा कि आज की हिंदी का संकट भी यही है कि भले ही उसकी भाषिक संरचना स्थिर और स्वस्थ हो मगर भाषिक सामाजिक संकेतक उसकी जीवंतता पर छाए खतरे की ओर इशारा कर रहे हैं। आई.आई.टी. दिल्ली के प्रो. वागीश शुक्ला ने 'फ्री सोफ्टवेयर: ए कल्चर इंपरेटिव' विषय पर बोलते हुए कहा कि कुछ चीजें टेक्नोलॉजी थोप रही है। उन्होंने कहा कि सॉफ्टवेयर ही तय कर रहा है कि आप कैसे लिखें। यदि आप अलग तरह से लिखने की कोशिश करते हैं, तो कंप्यूटर उसे स्वीकार नहीं करता। वक्ताओं से सवाल-जवाब में कृष्णा सोबती और अन्विता अब्बी सहित कई प्रबुद्ध श्रोता शामिल हुए। सत्र की अध्यक्षता रुक्मिणी माया नायर ने की। ___ दूसरे सत्र में पुणे से आए प्रो. लक्ष्मण एम. खूबचंदानी ने कहा कि एक जमीनी परिप्रेक्ष्य से दक्षिण एशिया के भाषिक सांस्कृतिक परिदृश्य का जायजा लें, तो कई नामों से जानी
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जानेवाली उर्दू-हिंदी-हिंदुस्तानी का संगम इस क्षेत्र का एक विशेष चेहरा प्रस्तुत करता है।
कोलकाता से आए पत्रकार पलाश चंद्र विश्वास ने कहा कि भारतीय भाषाओं के प्रति दुराग्रह और अंग्रेजी मोह के चलते राष्ट्रभाषा और राजभाषा की राजनीति से कमाने-खाने वाले लोग हिंदी को अलग-थलग करने में जुटे हैं। जबकि इतिहास और वर्तमान हिंदी से भारतीय भाषाओं के अटूट और सुखद-दाम्पत्य को ही रेखांकित करते हैं। इस सत्र की अध्यक्षता आलोक राय ने की।
–सम्पादक ** "मध्यप्रदेश की जैन विरासत' पर प्रदर्शनी आयोजित मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल' में दिनांक 17 से 25 अक्तूबर 2002 तक राज्य सरकार की ओर से स्थानीय ‘राज्य संग्रहालय' में पुरातत्त्व अभिलेखागार एवं संग्रहालय म. प्र. के आयुक्त की ओर से एक विशाल एवं गरिमापूर्ण प्रदर्शनी का आयोजन किया गया, जिसमें मध्यप्रदेश की जैन विरासत' की गौरवपूर्ण प्रस्तुति की गयी। इस अवसर पर एक परिचयात्मक लघुपुस्तिका भी प्रकाशित की गयी। इस समस्त आयोजन के सूत्रधार धर्मानुरागी श्री डॉ. सुरेश जैन, आई.ए.एस. भोपाल रहे, जिनकी निष्ठा, लगन एवं समर्पण से यह अनुकरणीय आयोजन सम्पन्न हो सका।
–सम्पादक** प्राकृत-मनीषी डॉ. के.आर. चन्द्रा नहीं रहे वयोवृद्ध प्राकृतमनीषी एवं यावज्जीवन प्राकृत-अध्ययन अनुसंधान-लेखन एवं सम्पादन में संलग्न रहे विद्वद्वर्य डॉ. के.आर. चन्द्रा, अहमदाबाद (गुज.) का अक्तूबर 2002 के प्रथम सप्ताह में देहावसान हो गया है। इसी श्रुतपंचमी को उन्हें पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी की पावन-सन्निधि में शौरसेनी प्राकृतभाषा-साहित्य-विषयक 'आचार्य विद्यानन्द पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था। 'प्राकृतविद्या' परिवार की ओर से दिवंगत आत्मा को सुगतिगमन, एवं बोधिलाभ की मंगलकामना के साथ विनम्र श्रद्धासुमन समर्पित हैं। –सम्पादक **
मनीषी-प्रवर पं. अमृत लाल जी जैन दिवंगत वयोवृद्ध जैनमनीषी एवं संस्कृत-प्राकृत आदि भाषाओं के विशिष्ट विद्वान् पं. अमृतलाल जी जैन वाराणसी का दिनांक 8 नवम्बर 2002, को देहावसान हो गया। संस्कृत काव्य-रचना में सिद्धहस्त विद्वद्वर्य पं. अमृतलाल जी संस्कृत के आशुकवि के रूप में विख्यात थे, तथा वाराणसी के विद्वानों के बीच आपकी विशिष्ट गरिमा थी। जैनसमाज की अतुलनीय सेवा करनेवाले पं. जी साहब यावज्जीवन सादगी की मूर्ति बनकर धर्मप्रभावना करते रहे।
'प्राकृतविद्या' परिवार की ओर से दिवंगत भव्य-आत्मा को सुगतिगमन, एवं बोधिलाभ की मंगलकामना के साथ विनम्र श्रद्धासुमन समर्पित हैं।
-सम्पादक ** प्राकृतविद्या के स्वत्वाधिकारी एवं प्रकाशक श्री सुरेशचन्द्र जैन, मंत्री, श्री कुन्दकुन्द भारती, 18-बी, स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110067 द्वारा प्रकाशित; एवं मुद्रक श्री महेन्द्र कुमार जैन द्वारा, मै. घूमीमल विशालचंद के मार्फत प्रम प्रिंटिंग वर्क्स चूड़ीवालान, चावड़ी बाजार, दिल्ली-110006 में मुद्रित। भारत सरकार पंजीयन संख्या 48869/89
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इस अंक के लेखक-लेखिकाएँ 1.आचार्यश्री विद्यानन्द मुनिराज–भारत की यशस्वी श्रमण-परम्परा के उत्कृष्ट उत्तराधिकारी एवं अभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोगी संत परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज वर्तमान मुनिसंघों में वरिष्ठतम हैं। इस अंक में प्रकाशित 'जगद्गुरु' शीर्षक आलेख आपकी पुण्य-लेखनी द्वारा प्रसूत है। ____ 2. (स्व.) डॉ. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य—जैनदर्शन एवं न्यायशास्त्र के प्रकाण्ड मनीषी तथा सिद्धहस्त लेखक डॉ. महेन्द्र कुमार जी सशरीर विद्यमान न होते हुए भी अपने कालजयीकृतित्व के माध्यम से चिरकाल तक भारतीय-मनीषा को दिग्दर्शन करते रहेंगे। इस अंक में प्रकाशित 'प्राकृत-अपभ्रंश शब्दों की अर्थवाचकता' शीर्षक-आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है।
3. डॉ. राजाराम जैन—आप मगध विश्वविद्यालय में प्राकृत, अपभ्रंश के प्रोफेसर' पद से सेवानिवृत्त होकर श्री कुन्दकुन्द भारती जैन शोध संस्थान के निदेशक' हैं। अनेकों महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों, पाठ्यपुस्तकों एवं शोध-आलेखों के यशस्वी-लेखक भी हैं। आपको वर्ष 2000 का 'प्राकृतभाषा-विषयक' 'राष्ट्रपति सम्मान' समर्पित किया गया है। इस अंक में प्रकाशित 'भगवान् महावीर के व्यक्तित्व का दर्पण: वड्ढमाण-चरिउ' नामक आलेख के लेखक आप हैं।
पत्राचार-पता—महाजन टोली नं. 2, आरा-802301 (बिहार)
4. सत्यदेव विद्यालंकार—भारतीय संस्कृति, इतिहास एवं दर्शन के सुप्रसिद्ध हस्ताक्षर इन्दौर-निवासी श्री विद्यालंकार जी की उक्त क्षेत्रों में प्रामाणिक प्रतिष्ठा है। इस अंक में प्रकाशित 'जैनधर्म में राष्ट्रधर्म की क्षमता विद्यमान है' शीर्षक-आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है।
5. विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया—आप जैनविद्या के क्षेत्र में सुपरिचित हस्ताक्षर हैं. तथा नियमित रूप से लेखनकार्य करते रहते हैं। इस अंक में प्रकाशित 'रत्नत्रय अष्टक' नामक हिन्दी कविता के रचयिता आप हैं।
पत्राचार-पता-394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़-202001 (उ.प्र.)
6. डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल—आप ओरियंटल पेपर मिल्स, अमलाई में कार्मिक अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुये, जैनसमाज के अच्छे स्वाध्यायी विद्वान् हैं। इस अंक में प्रकाशित 'भगवान् महावीर की जन्मस्थली नालंदा कुण्डलपुर-आगमसम्मन नहीं' शीर्षक आलेख आपकी 'लेखनी से प्रसूत है।
पत्राचार-पता—बी.-369, ओ.पी.एम. कालोनी, अमलाई-484117 (म.प्र.) ___7. डॉ. जानकी प्रसाद द्विवेदी— वर्ष 1997 के 'आचार्य उमास्वामी पुरस्कार' से सम्मानित डॉ. द्विवेदी सारनाथ (वाराणसी) स्थित तिब्बती शिक्षण संस्थान' में संस्कृत के 'आचार्य' पद पर कार्यरत हैं। कातंत्र-व्याकरण' के संबंध में आपके द्वारा किया गया शोधकार्य अद्वितीय है। इस अंक में प्रकाशित 'ब्राह्मण-श्रमणम् प्रयोग की सार्थकता' नामक आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है।
स्थायी पता-एस.19/134, ए.सी.1, जदीद बाजार, नदेसर, वाराणसी कैण्ट-221002 (उ.प्र.)
8. डॉ. रमेशचंद जैन-आप भी जैनदर्शन के गवेषी-विद्वान् है। संप्रति आप जैन कॉलेज, बिजनौर (उ.प्र.) में संस्कृत एवं जैनदर्शन के विभागाध्यक्ष हैं। इस अंक में प्रकाशित 'वैदिक और जैन संन्यासी में उल्लिखित समताएँ' नामक आलेख आपके द्वारा लिखित है।
स्थायी पता-जैन मंदिर के पास, बिजनौर-246701 (उ.प्र.)
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9. डॉ. सुषमा सिंघवी-आप कोटा मुक्त विश्वविद्यालय के उदयपुर-संभाग क्षेत्र की निदेशिका हैं। तथा जैनविद्या एवं प्राकृत-वाङ्मय की विदुषी हैं। इस अंक में प्रकाशित 'दर्शनशास्त्र अन्तर्मुखी बनाता है और प्रदर्शन बहिर्मुखी' शीर्षक-आलेख आपके द्वारा लिखित है। __ पत्राचार पता—470, ओ.टी.सी. स्कीम, उदयपुर-313001 (राज.)
10. डॉ. कपूरचंद जैन एवं डॉ. ज्योति जैन—जैनदर्शन एवं साहित्य के साथ-साथ सामाजिक चेतना के लिए समर्पित दम्पत्ति। इस अंक में प्रकाशित 'अजातशत्रु भैय्या मिश्रीलाल गंगवाल' शीर्षक-आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है।
स्थायी पता—संस्कृत विभाग, कुन्दकुन्द जैन महाविद्यालय, खतौली-251201 (उ.प्र.)
11. डॉ. सुदीप जैन–श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली में 'प्राकृतभाषा विभाग' में वरिष्ठ उपाचार्य हैं। अनेकों पुस्तकों के लेखक, सम्पादक। प्रस्तुत पत्रिका के मानद सम्पादक' । इस वर्ष आपको प्राकृतभाषा-विषयक 'राष्ट्रपति-सम्मान' (युवा) से सम्मानित घोषित किया गया है। इस अंक में प्रकाशित सम्पादकीय-आलेख एवं पुस्तक-समीक्षाओं आदि के अतिरिक्त जैन-परम्परा में आचार्यत्व' शीर्षक आलेख आपके द्वारा लिखित है।
स्थायी पता—बी-32, छत्तरपुर एक्सटेंशन, नंदा फार्म के पीछे, नई दिल्ली-110030
12. डॉ. सत देव—आप प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र (हरियाणा) में प्राध्यापक हैं। इस अंक में प्रकाशित 'रोहतक से प्राप्त अप्रकाशित जैन मूर्तियाँ' शीर्षक-आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है। ___ 13. डॉ. वीरसागर जैन—आप हिन्दी भाषा-साहित्य एवं जैनदर्शन के विख्यात् विद्वान् हैं। सम्प्रति आप श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली में जैनदर्शन विभाग के अध्यक्ष हैं। इस अंक में प्रकाशित ज्ञान और विवेक' का हिन्दी अनुवाद आपके द्वारा रचित है।
पत्राचार पता- श्री कुन्दकुन्द भारती, कटवारिया सराय, नई दिल्ली-110067
14. अशोक वशिष्ठ भारतीय पत्रकार-जगत् में जाने-माने लेखक और समीक्षक हैं। इस अंक में प्रकाशित 'जगदीश चंद्र बसु' शीर्षक-आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है।
15. सुनील कुमार सिंह—कनिष्ठ शोध-अध्येता. (भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद्), बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर, बिहार विश्वविद्यालय, (दर्शन-विभाग), मुजफ्फरपुर-842001 इस अंक में प्रकाशित 'वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जैनधर्म-दर्शन के अहिंसा-विचार की प्रासंगिकता' शीर्षक आलेख आपके द्वारा लिखित है।
स्थायी पता—ग्राम-चाँदी, पो. हरौली, जिला-वैशाली-844101 (बिहार)
16. दिलीप धींग—आप अच्छे सामाजिक कार्यकर्ता एवं कवि हैं। इस अंक में प्रकाशित 'साधक होता द्रष्टा-ज्ञाता' शीर्षक कविता आपके द्वारा लिखित है।
स्थायी पता—ट्रेड हाउस, दूसरी मंजिल, 26, अश्विनी मार्ग, उदयपुर (राजस्थान)
17. पं. निहालचंद जैन—आप बीना (म.प्र.) में शासकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय में प्राचार्य पद पर कार्यरत हैं। इस अंक में प्रकाशित लेख 'पर्यावरण-संरक्षण और जैनधर्म' आपके द्वारा लिखित है।
स्थायी पता—शासकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, क्र. 3, बीना (सागर) म.प्र.। **
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002
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| अंतिम-आवरण-पष्ठ पर मुद्रित चित्र के बारे में
युनान में निर्ग्रन्य-परम्परा का प्रभाव
अंतिम आवरण-पृष्ठ पर मुद्रित-मूर्तिशिल्प यूनान के एथेंस नगर में प्राप्त हुई है। तथा वहाँ यह 'अमृतशिला' की प्रतिमा के रूप में विख्यात है। 'जर्मन प्राच्य वस्तुशाला' के अनुसंधान कार्यक्रम के अन्तर्गत प्राप्त इस प्रतिमा का कालनिर्णय मनीषियों ने ईसापूर्व छठवी-सातवीं शताब्दी किया है। इसप्रकार यह मूर्तिशिल्प महावीरयुगीन या उससे भी पूर्ववर्ती प्रमाणित होता है। यह निर्ग्रन्थ-मुद्रा का मूर्तिशिल्प है, जो एक नग्न योगी की कायोत्सर्ग-ध्यानमुद्रा को दर्शाता है। कला-शैली का यूनानी-प्रभाव होते हुए भी भारतीय अध्यात्म की झलक इसमें स्पष्ट है। ___ यूनान में निर्ग्रन्थ-संतों एवं दार्शनिकों की ईसापूर्वकाल से उपस्थिति अनेकों गवेषी विद्वानों ने अनेकत्र स्वीकार की है। इससे वहाँ निर्ग्रन्थ-परम्परा एवं विचारधारा का चिरन्तन-प्रभाव सूचित होता है। इतिहासप्रसिद्ध तथ्य है कि सिकन्दर के अनुरोध पर कल्याणमुनि यूनान गये थे और एथेंस नगर में ही 'सेंट कौलानस' के नाम से उनकी समाधि आज भी विद्यमान है। किंतु यह मूर्तिशिल्प इनसे भी कई शताब्दी पहिले से निर्ग्रन्थ-परम्परा का यूनान में व्यापक-प्रभाव प्रमाणित करता है।
- ईसापूर्व में यूनान में निर्ग्रन्थ-परम्परा के अस्तित्व एवं प्रभाव के बारे में डॉ. बी.एन. पाण्डे के विचार मननीय हैं- "यूनानी इतिहास से पता चलता है कि ईसा से कम से कम चार सौ वर्ष पूर्व ये दिगम्बर भारतीय तत्ववेत्ता पश्चिमी एशिया में पहुंच चुके थे।
पोप के पुस्तकालय के एक लातीनी आलेख से, जिसका हाल में अनुवाद हुआ है, पता चलता है कि ईसा की जन्म की शताब्दी तक इन दिगम्बर भारतीय दार्शनिकों की एक बहुत बड़ी संख्या इथियोपिया (अफ्रीका) के वनों में रहती थी और अनेक यूनानी विद्वान् वहीं जाकर उनके दर्शन करते थे और उनसे शिक्षा लेते थे।
यूनान के दर्शन और अध्यात्म पर इन दिगम्बर महात्माओं का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि चौथी सदी ई.पू. में प्रसिद्ध यूनानी विद्वान पिरो ने भारत आकर उनके ग्रंथों और सिद्धांतों का यानि भारतीय अध्यातम और भारतीय दर्शर का विशेष अध्ययन किया और फिर यूनान लौटकर एलिस नगर में एक यूनानी दर्शन पद्धति की स्थापना की। इस नई पद्धति का मुख्य सिद्धांत था कि इंद्रियों द्वारा वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति असंभव है, वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति केवल अंत:करण की शुद्धि द्वारा ही संभव है और उसके लिये मनुष्य को सरल से सरल जीवन व्यतीत करके आत्मसंयम और योग द्वारा अपने अंतर में धंसना चाहिए। भारत से लौटने के बाद पिरो दिगम्बर रहता था। उसका जीवन इतना सरल और संयमी था कि यूनान के लोग उसे बड़ी भक्ति की दृष्टि से देखते थे। वह योगाभ्यास करता था और निर्विकल्प समाधि में विश्वास करता था।" । - (साभार उद्धृत— भारत और मानव संस्कृति, खण्ड II, लेखक- बिशम्बरनाथ पाण्डे, पृ. 128,
प्रकाशक- प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, सन् 1996)
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________________ Printed by : DHOOMI MALVISHAL CHAND Tel. : 23266775, 23269186 युनान के एथेंस नगर में प्राप्त महावीरयुगीन कायोत्सर्ग-मुद्रा में अवस्थित निर्ग्रन्थ नग्न-प्रतिमा -(सुचना स्रोत-'कन्नड़प्रभा', कन्नड़ दैनिक, 12 मई 2002, पृष्ठ 7, 'देश-विदेश' कॉलम के अन्तर्गत प्रकाशित)