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________________ कुछ ऐतिहासिक तथ्य ____ विबुध श्रीधर साहित्यकार होने के साथ-साथ इतिहासवेत्ता भी प्रतीत होते हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में कुछ ऐसे ऐतिहासिक तथ्य प्रस्तुत किये हैं, जो गम्भीर रूप से विचारणीय हैं। उनमें से कुछ तथ्य निम्नप्रकार हैं(1) ‘इल' गोत्र एवं मुनिराज श्रुतसागर।' (2) त्रिपृष्ठ एवं हयग्रीव के युद्ध-प्रसंगों में मृतक योद्धाओं की बन्दीजनों (चारण-भाटों) द्वारा सूचियों का निर्माण। (3) दिल्ली के प्राचीन नाम—'ढिल्ली' का उल्लेख । (4) तोमरवंशी राजा अनंगपाल एवं हम्मीर वीर का उल्लेख। 1. कवि श्रीधर ने राजा नन्दन के मुख से मुनिराज श्रुतसागर को सम्बोधित कराते हुए उन्हें 'इल-परमेश्वर' कहलवाया है।" यह इल' अथवा 'इल-गोत्र' क्या था, और इस परम्परा में कौन-कौन से महापुरुष हुए हैं, कवि ने इसकी कोई सूचना नहीं दी। किन्तु हमारा अनुमान है कि कवि का संकेत उस वंश-परम्परा की ओर है, जिसमें कलिंग-सम्राट् खारवेल (ई.पू. द्वितीय सदी) हुआ था। खारवेल ने हाथीगुम्फा-शिलालेख में अपने को ऐर' अथवा 'ऐल' वंश का कहा है। यह वंश शौर्य-वीर्य एवं पराक्रम में अद्वितीय माना जाता रहा है। राजस्थान की परमार-वंशावलियों में भी कलिंग-वंश का उल्लेख मिलता है। प्रतीत होता है कि परिस्थितिविशेष के कारण आगे-पीछे कभी खारवेल का वंश पर्याप्त-विस्तृत होता रहा तथा उसका ऐर' अथवा ऐल' गोत्र भी देश, काल एवं परिस्थितिवश परिवर्तित होता गया। गोइल्ल, चांदिल्ल, गोहिल्य, गोविल, गोयल, गुहिलोत, भारिल्ल, कासिल, वासल, मित्तल, जिन्दल, तायल, बुन्देल, बाघेल, रुहेल, खेर . आदि गोत्रों अथवा जातियों में प्रयुक्त इल्ल, इल, यल, अल, एल तथा एर या ऐर उक्त इल अथवा एल के ही विविध रूपान्तर प्रतीत होते हैं। सम्भवत: खार+व+एल इस नाम से भी विदित होता है। जो कुछ भी हो, यह निश्चित है कि 'इल' अथवा 'एल' वंश पर्याप्त प्रतिष्ठित एवं प्रभावशाली रहा है। 11वीं 12वीं सदी में भी वह पर्याप्त प्रसिद्धि प्राप्त रहा होगा, इसीलिए कवि ने सम्भवत: उसी वंश के मुनिराज श्रुतसागर के 'इल' गोत्र का विशेषरूप से उल्लेख किया है। ___ 2. विबुध श्रीधर उस प्रदेश का निवासी था, जो सदैव ही वीरों की भूमि बनी रही और उसके आसपास निरन्तर युद्ध चलते रहे। कोई असम्भव नहीं, यदि उसने अपनी आँखों से कुछ युद्धों को देखा भी हो, क्योंकि 'वड्ढमाणचरिउ' में त्रिपृष्ठ एवं हयग्रीव के बीच हुए युद्ध", उनमें प्रयुक्त विविध प्रकार के शस्त्रास्त्र", मन्त्रि-मण्डल के बीच में "साम, दाम, दण्ड और "भेद-नीतियों के समर्थन एवं विरोध में प्रस्तुत किये गये विभिन्न प्रकार के तर्क, "रणनीति, संव्यूह-रचना" आदि से यह स्पष्ट विदित होता है। 00 28 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002
SR No.521369
Book TitlePrakrit Vidya 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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